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16 संस्कारों में सांतवा संस्कार – अन्नप्राशन संस्कार

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अन्नप्राशन संस्कार कब और क्यों – Annaprashana Sanskar

Annaprashana Sanskar : हिंदू धर्म में मनुष्य के पैदा होने से मरण तक 16 संस्कार किए जाते हैं। इन सभी का व्यक्ति के जीवन में विशेष महत्व होता है। हालांकि, आजकल की भागदौड़ भरी जिंदगी में ये सभी संस्कार केवल नाम के रह गए हैं। ऐसे में जागरण आध्यात्म की यह कोशिश है कि हम आपको हिंदू धर्म के सभी संस्कारों के बारे में विस्तार से बता पाएं। इन्हीं 16 संस्कारों में से 7वां संस्कार है अन्नप्राशन। अन्नप्राशन वह संस्कार है जब शिशु को पारंपरिक विधियों के साथ पहली बार अनाज खिलाया जाता है। इससे पहले तक शिशु केवल अपनी माता के दूध पर ही निर्भर रहता है। यह संस्कार बेहद महत्वपूर्ण है।

अन्नप्राशन संस्कार का महत्व

अन्नप्राशन संस्कृत के शब्द से बना है जिसका अर्थ अनाज का सेवन करने की शुरुआत है। इस दिन शिशु के माता-पिता पूरे विधि-विधान के साथ बच्चे को अन्न खिलाते हैं। कहा गया है अन्नाशनान्यातृगर्भे मलाशालि शद्धयति जिसका अर्थ होता है माता के माता के गर्भ में रहते हुए जातक में मलिन भोजन के जो दोष आ जाते हैं उनका नाश हो जाता है। अन्नप्राशन एक बच्चे के विकास में अगले कदम को दर्शाता है। वैदिक युग से शुरू हुई अन्नप्राशन की यह विधि, दक्षिण एशिया, ईरान के साथ-साथ पारसी लोगों में भी मनाई जाती है। अपने-अपने क्षेत्रों के संस्कार व रिवाजों के अनुसार, यह विधि बच्चे की 5 से 9 माह की आयु के बीच की जाती है।

परंपरा के हिसाब से, यह संस्कार चार महीने से कम या एक वर्ष से ऊपर के बच्चे का नहीं किया जाता है। कई जगहों पर अन्नप्राशन संस्कार को पूरी महत्वता दी जाती है और इसके लिए एक समारोह का आयोजन किया जाता है जिसमें कई अतिथि आते हैं व एक बड़े स्थल में भोज कराना भी शामिल है। इस अवसर के लिए चुने गए शुभ मुहूर्त पर अन्नप्राशन मंत्र का संचालन करने के लिए पुजारी भी बुलाए जाते हैं।

जब बालक 6-7 महीने का हो जाता है और पाचनशक्ति प्रबल होने लगती है तब यह संस्कार किया जाता है। शास्त्रों में अन्न को ही जीवन का प्राण बताया गया है। ऐसे में शिशु के लिए इस संस्कार का अधिक महत्व होता है। शिशु को ऐसा अन्न दिया जाना चाहिए जो उसे पचाने में आसानी हो साथ ही भोजन पौष्टिक भी हो।

शुभ मुहूर्त में देवताओं का पूजन करने के पश्चात् माता-पिता समेत घर के बाकी सदस्य सोने या चाँदी की शलाका या चम्मच से निम्नलिखित मन्त्र के जाप से बालक को हविष्यान्न (खीर) आदि चटाते हैं।

अन्नप्राशन संस्कार मंत्र

शिवौ ते स्तां व्रीहियवावबलासावदोमधौ ।
एतौ यक्ष्मं वि वाधेते एतौ मुञ्चतो अंहसः॥

 अर्थात् हे ‘बालक! जौ और चावल तुम्हारे लिये बलदायक तथा पुष्टिकारक हों। क्योंकि ये दोनों वस्तुएं यक्ष्मा-नाशक हैं तथा देवान्न होने से पापनाशक हैं।’

इस संस्कार के अन्तर्गत देवों को खाद्य-पदार्थ निवेदित होकर अन्न खिलाने का विधान बताया गया है। अन्न ही मनुष्य का स्वाभाविक भोजन है। उसे भगवान का कृपाप्रसाद समझकर ग्रहण करना चाहिये।

अन्नप्राशन संस्कार विधि

अन्नप्राशन संस्कार की विधि बच्चे को उसके मामा की गोद में बैठाकर शुरू की जाती है, जिसमें मामा अपने भांजे को ठोस आहार का पहला निवाला खिलाते हैं। जब बच्चा पहला निवाला खा लेता है तो परिवार के बाकी सदस्य भी उसे थोड़ा-थोड़ा भोजन खिलाते हैं और साथ ही अनेकों उपहार भी दिए जाते हैं। इसी प्रकार से अन्नप्राशन की विधि पूर्ण की जाती है। इस प्रक्रिया के अंतिम में बच्चे के सामने कुछ सामग्री रखी जाती है जैसे मिट्टी, सोने के आभूषण, कलम, किताबें, भोजन व इत्यादि। अब इन चीजों में से बच्चे को किसी एक चीज का चुनाव करना होता है। रिवाज के अनुसार बच्चे का चयन ही उसके भविष्य का प्रतीक माना जाता है।

  • बच्चा यदि सोने के आभूषण चुनता है तो माना जाता है कि वह भविष्य में धनवान बनेगा।
  • यदि बच्चा कलम का चयन करता है तो इसका मतलब है कि वह बुद्धिमान होगा।
  • बच्चे के पुस्तक चुनने पर माना जाता है कि वह ज्ञानी होगा।
  • यदि वह मिट्टी चुनता है तो इसका मतलब है कि वह जायदाद के मामले में भाग्यशाली है।

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