लेख सारिणी
दत्तात्रेय जयंती – Dattatreya Jayanti
दत्तात्रेय जयंती को दत्त जयंती भी कहा जाता है, इस दिन भगवान दत्तात्र्य (दत्त) के जन्मदिन को मनाते है, हिंदू धर्म में भगवान दत्तात्रेय को त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु और महेश का एकरूप माना गया है। धर्म ग्रंथों के अनुसार श्री दत्तात्रेय भगवान विष्णु के छठे अवतार हैं। वह आजन्म ब्रह्मचारी और अवधूत रहे इसलिए वह सर्वव्यापी कहलाए। यही कारण है कि तीनों ईश्वरीय शक्तियों से समाहित भगवान दत्तात्रेय की आराधना बहुत ही सफल, सुखदायी और शीघ्र फल देने वाली मानी गई है।
मन, कर्म और वाणी से की गई उनकी उपासना भक्त को हर कठिनाई से मुक्ति दिलाती है। हिंदु कैलेंडर के अनुसार मार्गशिर्ष महीने की पूर्णिमा पर मनाया जाता है। दत्तात्रेय जयंती मुख्य रूप से महाराष्ट्र में मनाई जाती है। भक्तों का मानना है कि वे दत्तात्रेय जयंती पर पूजा करते हुए जीवन के सभी पहलुओं में लाभ पाते हैं लेकिन इस दिन का मुख्य महत्व यह है कि यह व्यक्तियों के पितृ मुद्दों से रक्षा करता है।
दत्तात्रेय में ईश्वर और गुरु दोनों रूप समाहित हैं इसीलिए उन्हें ‘परब्रह्म मूर्ति सद्गुरु’ और ‘श्री गुरु देव दत्त’ भी कहा जाता हैं। भगवान दत्तात्रेय को नाथ संप्रदाय की नवनाथ परंपरा का भी अग्रज माना है।
यह भी पढ़े – भगवान् दत्तात्रेय के अचूक मंत्र जो करेंगे सम्पूर्ण जीवन को सुखी और मनोवांछित फल से भरपूर
दत्तात्रेय जयंती का महत्व – Dattatreya Jayanti Ka Mahatva
मार्गशीष मासे के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा तिथि को दत्तात्रेय जयंती मनाई जाती है। दत्तात्रेय जयंती को दत्त जयंती के नाम से भी जाना जाता है। यह जयंती मुख्य रूप से कर्नाटक,महराष्ट्र,आंध्र प्रदेश और गुजरात में मनाया जाता है। भगवान दत्तात्रेय ऋषि अत्रि और देवी अनुसूया के पुत्र हैं। जिन्हें भगवान शिव, भगवान विष्णु और ब्रह्मा जी तीनों का अवतार माना जाता है। पुराणों के अनुसार माना जाता है कि दत्तात्रेय ने 24 गुरुओं से शिक्षा प्राप्त की थी। भगवान दत्तात्रेय सिर्फ स्मरण करने मात्र से ही अपने भक्तों के पास पहुंच जाते हैं। इस कारण से इन्हें ”स्मृतिमात्रानुगन्ता” और ”स्मर्तृगामी” भी कहा जाता है। इनका जन्म मार्गशीष मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को प्रदोष काल में हुआ था। इसी कारण से हर साल इस समय पर ही दत्तात्रेय जयंती मनाई जाती है। इस दिन भगवान दत्तात्रेय की मंदिरों में विशेष पूजा अर्चना की जाती है।
दत्तात्रेय जयंती व्रत विधि – Dattatreya Jayanti Vrat Vidhi
- दत्तात्रेय जयंती के दिन उपवास करना चाहिए
- सुबह जल्दी स्नानं करके भगवान् दत्तात्रेय की पूजा करनी चाहिए
- भगवान् दत्तात्रेय को दीप, धुप, चन्दन, हल्दी, मिठाई, फल, फूल अर्पित करना चाहिए
- भगवान् दत्तात्रेय की सात परिक्रमा करनी चाहिए
- शाम के समय भगवान् दत्तात्रेय स्रोत्र और मंत्र का जाप करना चाहिए
यह भी पढ़े – जानिए भगवान् दत्तात्रेय की जन्म कथा, साधना विधि, अवतार और उनके 24 गुरुओ के बारे मे
दत्तात्रेय जयंती कथा – Dattatreya Jayanti Katha
धर्म ग्रंथों के अनुसार एक बार तीनों देवियों पार्वती, लक्ष्मी तथा सावित्री जी को अपने पतिव्रत धर्म पर बहुत घमण्ड होता है अत: नारद जी को जब इनके घमण्ड के बारे में पता चला तो वह इनका घमण्ड चूर करने के लिए बारी-बारी से तीनों देवियों की परीक्षा लेते हैं जिसके परिणाम स्वरूप दत्तात्रेय का प्रादुर्भाव होता है.
नारद जी देवियों का गर्व चूर करने के लिए बारी-बारी से तीनों देवियों के पास जाते हैं और देवी अनुसूया के पतिव्रत धर्म का गुणगान करते हैं. लगे. देवी ईर्ष्या से भर उठी और नारद जी के जाने के पश्चात भगवान शंकर से अनुसूया का सतीत्व भंग करने की जिद करने लगी. सर्वप्रथम नारद जी पार्वती जी के पास पहुंचे और अत्रि ऋषि की पत्नी देवी अनुसूया के पतिव्रत धर्म का गुणगान करने लगे.
देवीयों को सती अनुसूया की प्रशंसा सुनना कतई भी रास नहीं आया. घमण्ड के कारण वह जलने-भुनने लगी. नारद जी के चले जाने के बाद वह देवी अनुसूया के पतिव्रत धर्म को भंग करने की बात करने लगी. ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश तीनों को अपनी पत्नियो के सामने हार माननी पडी़ और वह तीनों ही देवी अनुसूया की कुटिया के सामने एक साथ भिखारी के वेश में जाकर खडे़ हो गए. जब देवी अनुसूया इन्हें भिक्षा देने लगी तब इन्होंने भिक्षा लेने से मना कर दिया और भोजन करने की इच्छा प्रकट की.
देवी अनुसूया ने अतिथि सत्कार को अपना धर्म मानते हुए उनकी बात मान ली और उनके लिए प्रेम भाव से भोजन की थाली परोस लाई. लेकिन तीनों देवों ने भोजन करने से इन्कार करते हुए कहा कि जब तक आप नग्न होकर भोजन नहीं परोसेगी तब तक हम भोजन नहीं करेगें. देवी अनुसूया यह सुनते ही पहले तो स्तब्ध रह गई और गुस्से से भर उठी. लेकिन अपने पतिव्रत धर्म के बल पर उन्होंने तीनो की मंशा जान ली.
उसके बाद देवी ने ऋषि अत्रि के चरणों का जल तीनों देवों पर छिड़क दिया. जल छिड़कते ही तीनों ने बालरुप धारण कर लिया. बालरुप में तीनों को भरपेट भोजन कराया. देवी अनुसूया उन्हें पालने में लिटाकर अपने प्रेम तथा वात्सल्य से उन्हें पालने लगी. धीरे-धीरे दिन बीतने लगे. जब काफी दिन बीतने पर भी ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश घर नही लौटे तब तीनों देवियों को अपने पतियों की चिन्ता सताने लगी.
देवियों को अपनी भूल पर पछतावा होने लगा. वह तीनों ही माता अनुसूया से क्षमा मांगने लगी. तीनों ने उनके पतिव्रत धर्म के समक्ष अपना सिर झुकाया. माता अनुसूया ने कहा कि इन तीनों ने मेरा दूध पीया है, इसलिए इन्हें बालरुप में ही रहना ही होगा. यह सुनकर तीनों देवों ने अपने – अपने अंश को मिलाकर एक नया अंश पैदा किया. इसका नाम दत्तात्रेय रखा गया. इनके तीन सिर तथा छ: हाथ बने. तीनों देवों को एकसाथ बालरुप में दत्तात्रेय के अंश में पाने के बाद माता अनुसूया ने अपने पति अत्रि ऋषि के चरणों का जल तीनों देवो पर छिड़का और उन्हें पूर्ववत रुप प्रदान कर दिया.
यह भी पढ़े –
- महाभारत के पात्रो के अनसुने रहस्य – Secrets Of the Mahabharata
- काल भैरव – कलियुग की बाधाओं का शीघ्र निवारण करने वाले
- महाभारत युद्ध के बाद की कथा – After Mahabharata War
- अर्जुन और उलूपी की प्रेमकथा और पुत्र इरावन का बलिदान
- हनुमान जी के विवाह का रहस्य – Story of Hanuman Ji Marriage
- श्री कृष्ण के साथ भगवान शंकर का घोर युद्ध और बाणासुर