विजयादशमी : बुराई पर अच्छाई की विजय का पर्व
दशहरा यानी विजयदशमी हिन्दू धर्म का एक प्रमुख त्योहार है. अश्विन मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को इसका आयोजन होता है. श्री राम ने इसी दिन रावण का वध किया था. इसे असत्य पर सत्य की विजय के रूप में मनाया जाता है. इसीलिये इस दशमी को विजयादशमी के नाम से जाना जाता है. विजय दशमी आश्विन शुक्ल दशमी को बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। यह भारत का ‘राष्ट्रीय त्योहार’ है। रामलीला में जगह–जगह रावण वध का प्रदर्शन होता है।
क्षत्रियों के यहाँ शस्त्र की पूजा होती है। ब्रजके मन्दिरों में इस दिन विशेष दर्शन होते हैं। इस दिन नीलकंठ भगवान शिव का दर्शन बहुत शुभ माना जाता है। यह त्योहार क्षत्रियों का माना जाता है। इसमें अपराजिता देवी की पूजा होती है। यह पूजन भी सर्वसुख देने वाला है। दशहरा या विजयादशमी नवरात्रि के बाद दसवें दिन मनाया जाता है। इस दिन राम ने रावण का वध किया था। रावण राम की पत्नी सीता का अपहरण कर लंका ले गया था। भगवान राम युद्ध की देवी मां दुर्गा के भक्त थे, उन्होंने युद्ध के दौरान पहले नौ दिनों तक मां दुर्गा की पूजा की और दसवें दिन दुष्ट रावण का वध किया।
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इसके बाद राम ने भाई लक्ष्मण, भक्त हनुमान, और बंदरों की सेना के साथ एक बड़ा युद्ध लड़कर सीता को छुड़ाया। इसलिए विजयादशमी एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण दिन है। इस दिन रावण, उसके भाई कुम्भकर्ण और पुत्र मेघनाद के पुतले खुली जगह में जलाए जाते हैं। कलाकार राम, सीता और लक्ष्मण के रूप धारण करते हैं और आग के तीर से इन पुतलों को मारते हैं जो पटाखों से भरे होते हैं। पुतले में आग लगते ही वह धू धू कर जलने लगता है और इनमें लगे पटाखे फटने लगते हैं और जिससे इनका अंत हो जाता है। यह त्योहार बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीक है।
दशहरा उत्सव की उत्पत्ति
दशहरा उत्सव की उत्पत्ति के विषय में कई कल्पनायें की गयी हैं। भारत के कतिपय भागों में नये अन्नों की हवि देने, द्वार पर धान की हरी एवं अनपकी बालियों को टाँगने तथा गेहूँ आदि को कानों, मस्तक या पगड़ी पर रखने के कृत्य होते हैं। अत: कुछ लोगों का मत है कि यह कृषि का उत्सव है। कुछ लोगों के मत से यह रणयात्रा का द्योतक है, क्योंकि दशहरा के समय वर्षा समाप्त हो जाती है, नदियों की बाढ़ थम जाती है, धान आदि कोष्ठागार में रखे जाने वाले हो जाते हैं। सम्भवत: यह उत्सव इसी दूसरे मत से सम्बंधित है।
भारत के अतिरिक्त अन्य देशों में भी राजाओं के युद्ध प्रयाण के लिए यही ऋतुनिश्चित थी। शमी पूजा भी प्राचीन है। वैदिक यज्ञों के लिए शमी वृक्ष में उगे अश्वत्थ (पीपल) की दो टहनियों (अरणियों) से अग्नि उत्पन्न की जाती थी। अग्नि शक्ति एवं साहस की द्योतक है, शमी की लकड़ी के कुंदे अग्नि उत्पत्ति में सहायक होते हैं। जहाँ अग्नि एवं शमी की पवित्रता एवं उपयोगिता की ओर मंत्रसिक्त संकेत हैं। इस उत्सव का सम्बंध नवरात्र से भी है क्योंकि इसमें महिषासुर के विरोध में देवी के साहसपूर्ण कृत्यों का भी उल्लेख होता है और नवरात्र के उपरांत ही यह उत्सव होता है। दशहरा या दसेरा शब्द ‘दश’ (दस) एवं ‘अहन्’ से ही बना है।
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विजय दशमी दशहरा – शास्त्रों के अनुसार
विजयदशमी के त्योहार का विशद वर्णन हेमाद्रि , सिंधुनिर्णय, पुरुषार्थचिंतामणि, व्रतराज, कालतत्त्वविवेचन, धर्मसिंधु आदि में किया गया है। कालनिर्णय के मत से शुक्ल पक्ष की जो तिथि सूर्योदय के समय उपस्थित रहती है, उसे कृत्यों के सम्पादन के लिए उचित समझना चाहिए और यही बात कृष्ण पक्ष की उन तिथियों के विषय में भी पायी जाती है जो सूर्यास्त के समय उपस्थित रहती हैं।
हेमाद्रिने विद्धा दशमी के विषय में दो नियम प्रतिपादित किये हैं-
- वह तिथि, जिसमें श्रवण नक्षत्र पाया जाए, स्वीकार्य है।
- वह दशमी, जो नवमी से युक्त हो।
किंतु अन्य निबंधों में तिथि सम्बंधी बहुत से जटिल विवेचन उपस्थित किये हैं। यदि दशमी नवमी तथा एकादशी से संयुक्त हो तो नवमी स्वीकार्य है, यदि इस पर श्रवण नक्षत्र ना हो।
स्कन्द पुराण में आया है-
‘जब दशमी नवमी से संयुक्त हो तो अपराजिता देवी की पूजा दशमी को उत्तर पूर्व दिशा में अपराह्न में होनी चाहिए। उस दिन कल्याण एवं विजय के लिए अपराजिता पूजा होनी चाहिए।
यह द्रष्टव्य है कि विजयादशमी का उचित काल है, अपराह्न, प्रदोष केवल गौण काल है। यदि दशमी दो दिन तक चली गयी हो तो प्रथम (नवमी से युक्त) अवीकृत होनी चाहिए। यदि दशमी प्रदोष काल में (किंतु अपराह्न में नहीं) दो दिन तक विस्तृत हो तो एकादशी से संयुक्त दशमी स्वीक्रत होती है। जन्माष्टमी में जिस प्रकार रोहिणी मान्य नहीं है, उसी प्रकार यहाँ श्रवण निर्णीत नहीं है। यदि दोनों दिन अपराह्न में दशमी ना अवस्थित हो तो नवमी से संयुक्त दशमी मान ली जाती है, किंतु ऐसी दशा में जब दूसरे दिन श्रवण नक्षत्र हो तो एकादशी से संयुक्त दशमी मान्य होती है। ये निर्णय, निर्णय सिंधु के हैं। अन्य विवरण और मतभेद भी शास्त्रों में मिलते हैं।
शुभ तिथि
विजयादशमी वर्ष की तीन अत्यंत शुभ तिथियों में से एक है, अन्य दो हैं – चैत्र माह की शुक्ल पक्ष की दशमी और कार्तिक माह की शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा। इसीलिए भारतवर्ष में बच्चे इस दिन अक्षरारम्भ करते हैं, इसी दिन लोग नया कार्य आरम्भ करते हैं, भले ही चंद्र आदि ज्योतिष के अनुसार ठीक से व्यवस्थित ना हों, इसी दिन श्रवण नक्षत्र में राजा शत्रु पर आक्रमण करते हैं, और विजय और शांति के लिए इसे शुभ मानते हैं।
वनस्पति पूजन
विजयदशमी पर दो विशेष प्रकार की वनस्पतियों के पूजन का महत्त्व है-
एक है शमी वृक्ष, जिसका पूजन रावण दहन के बाद करके इसकी पत्तियों को स्वर्ण पत्तियों के रूप में एक-दूसरे को ससम्मान प्रदान किया जाता है। इस परंपरा में विजय उल्लास पर्व की कामना के साथ समृद्धि की कामना करते हैं।
दूसरा है अपराजिता (विष्णु-क्रांता) – यह पौधा अपने नाम के अनुरूप ही है। यह विष्णु को प्रिय है और प्रत्येक परिस्थिति में सहायक बनकर विजय प्रदान करने वाला है।नीले रंग के पुष्प का यह पौधा भारत में सुलभता से उपलब्ध है। घरों में समृद्धि के लिए तुलसी की भाँति इसकी नियमित सेवा की जाती है.
रामलीलाओं का मॉर्डन होता स्वरूप
आजकल रामलीला मंचन में मॉडर्न तकनीकों का इस्तेमाल किया जा रहा है. रामलीलाओं के कई सीन तमाम मॉडर्न तकनीकों और कम्प्यूटर के जरिये कुछ इस तरह पेश किए जा रहे हैं कि वे हकीकत को छू लेती हैं. लालकिला की लीला में जहां पुतलों का दहन electronic तरीके से होता है वहीं देश के अन्य भागों में रामलीला में computerised भवन भी देखने को मिलते हैं.
जहां एक तरफ रामलीलाओं के युद्ध दृश्यों में तलवारों से चिंगारियां निकलती हैं और अग्नि तीर चलाए जाते हैं वहीं मिलाप के दृश्यों को बहुत मार्मिक तरीके से पेश किया जाता है. दर्शकों को बोरियत ना हो इसका पूरा ख्याल भी रखा जाता है. कुंभकर्ण को गहरी निद्रा से जगाने का सीन कुछ इसी तरह का होता है. लंका युद्ध के समय गहरी नींद में सो रहे कुंभकर्ण को क्रेन से जगाया जाता है.
जिस तरह से रामलीला देखने वालों की भीड़ जुटती है हम कह सकते हैं कि देश में आज भी रामलीला का आनंद अपने चरम पर विराजमान है. समय के साथ कुछ तकनीकों का प्रयोग कर इससे और ज्यादा दर्शक के जोड़ने का प्रयास किया जाता है.
क्या है दशहरा का सामाजिक महत्त्व?
दशहरे का सांस्कृतिक पहलू भी है. भारत कृषि प्रधान देश है. जब किसान अपने खेत में सुनहरी फसल उगाकर अनाज रूपी संपत्ति घर लाता है तो उसके उल्लास और उमंग की कोई सीमा नहीं रहती. इस प्रसन्नता के अवसर पर वह भगवान की कृपा को मानता है और उसे प्रकट करने के लिए वह उसका पूजन करता है. पूरे भारतवर्ष में यह पर्व विभिन्न प्रदेशों में विभिन्न प्रकार से मनाया जाता है.
महाराष्ट्र में इस अवसर पर सिलंगण के नाम से सामाजिक महोत्सव मनाया जाता है. इसमें शाम के समय सभी गांव वाले सुंदर-सुंदर नये वस्त्रों से सुसज्जित होकर गांव की सीमा पार कर शमी वृक्ष के स्वर्ण रूपी पत्तों को लूटकर अपने ग्राम में वापस आते हैं. फिर उस स्वर्ण रूपी पत्तों का परस्पर आदान-प्रदान किया जाता है.
कैसे मनाते हैं भारत के विभिन्न प्रदेशों में दशहरा?
दशहरा अथवा विजयदशमी राम की विजय के रूप में मनाया जाए अथवा दुर्गा पूजा के रूप में, दोनों ही रूपों में यह शक्ति पूजा का पर्व है. इस दिन शस्त्रों की पूजा भी की जाती है. यह हर्ष और उल्लास तथा विजय का पर्व है. देश के कोने-कोने में यह विभिन्न रूपों से मनाया जाता है.:-
1. हिमाचल प्रदेश में कुल्लू का दशहरा बहुत प्रसिद्ध है. अन्य स्थानों की ही भांति यहां भी दस दिन अथवा एक सप्ताह पहले से ही इस पर्व की तैयारी आरंभ हो जाती है. स्त्री और पुरुष सुंदर वस्त्रों से सज्जित होकर तुरही, बिगुल, ढोल, नगाड़े, बांसुरी अथवा जिसके पास जो वाद्य होता है, उसे लेकर बाहर निकलते हैं. पहाड़ी लोग अपने ग्रामीण देवता का धूमधाम से जुलूस निकाल कर पूजन करते हैं. देवताओं की मूर्तियों को बहुत ही आकर्षक पालकी में सुंदर ढंग से सजाया जाता है. साथ ही वे अपने मुख्य देवता रघुनाथ जी की भी पूजा करते हैं. इस जुलूस में प्रशिक्षित नर्तक नटी नृत्य करते हैं. इस प्रकार जुलूस बनाकर नगर के मुख्य भागों से होते हुए नगर परिक्रमा करते हैं और कुल्लू नगर में देवता रघुनाथजी की वंदना से दशहरे के उत्सव का आरंभ करते हैं. दशमी के दिन इस उत्सव की शोभा निराली होती है.
2. पंजाब में दशहरा नवरात्रि के नौ दिन का उपवास रखकर मनाते हैं. इस दौरान यहां आगंतुकों का स्वागत पारंपरिक मिठाई और उपहारों से किया जाता है. यहां भी रावण-दहन के आयोजन होते हैं और मैदानों में मेले लगते हैं.
3. बस्तर में दशहरे के मुख्य कारण को ‘राम की रावण पर विजय’ ना मानकर, लोग इसे मां दंतेश्वरी की आराधना को समर्पित एक पर्व मानते हैं. दंतेश्वरी माता बस्तर अंचल के निवासियों की आराध्य देवी हैं, जो दुर्गा का ही रूप हैं. यहां का दशहरा श्रावण मास की अमावस से अश्विन मास की शुक्ल त्रयोदशी तक चलता है. प्रथम दिन देवी से समारोह आरंभ करने की अनुमति ली जाती है. देवी एक कांटों की सेज पर विराजमान होती हैं. यह कन्या एक अनुसूचित जाति की है, जिससे बस्तर के राजपरिवार के व्यक्ति अनुमति लेते हैं. यह समारोह लगभग पंद्रहवीं शताब्दी से शुरू हुआ था.
4. बंगाल, उड़ीसा और असम में यह पर्व दुर्गा पूजा के रूप में ही मनाया जाता है. यह बंगालियों, उड़ीसा और असम के लोगों का सबसे महत्वपूर्ण त्योहार है. यह पर्व पूरे बंगाल में पांच दिनों के लिए मनाया जाता है. उड़ीसा और असम में चार दिन तक त्योहार चलता है. यहां देवी दुर्गा को भव्य सुशोभित पंडालों में विराजमान करते हैं.
देश के नामी कलाकारों को बुलवाकर दुर्गा की मूर्ति तैयार करवाई जाती हैं. इसके साथ अन्य देवी देवताओं की भी कई मूर्तियां बनाई जाती हैं. त्योहार के दौरान शहर में छोटे मोटे स्टॉल भी मिठाईयों से भरे रहते हैं. यहां षष्ठी के दिन दुर्गा देवी का बोधन, आमंत्रण एवं प्राण प्रतिष्ठा आदि का आयोजन किया जाता है. उसके उपरांत सप्तमी, अष्टमी एवं नवमी के दिन प्रातः और सायंकाल दुर्गा की पूजा में व्यतीत होते हैं.
अष्टमी के दिन महापूजा और बलि भी दी जाती है. दशमी के दिन विशेष पूजा का आयोजन किया जाता है. पुरुष आपस में गले मिलते हैं. स्त्रियां देवी के माथे पर सिंदूर चढ़ाती हैं और साथ ही आपस में सिंदूर भी लगाती हैं. इस दिन यहां नीलकंठ पक्षी को देखना बहुत ही शुभ माना जाता है. इसके बाद देवी की प्रतिमाओं को विसर्जित किया जाता है.
5. तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश एवं कर्नाटक में दशहरा नौ दिनों तक चलता है जिसमें तीन देवियां लक्ष्मी, सरस्वती और दुर्गा की पूजा करते हैं. पहले तीन दिन लक्ष्मी, धन और समृद्धि की देवी, का पूजन होता है. अगले तीन दिन सरस्वती, कला और विद्या की देवी, की अर्चना की जाती है और अंतिम दिन देवी दुर्गा, शक्ति की देवी, की स्तुति की जाती है. पूजन स्थल को अच्छी तरह फूलों और दीपकों से सजाया जाता है. लोग एक दूसरे को मिठाइयां और कपड़े देते हैं.
कर्नाटक में मैसूर का दशहरा विशेष उल्लेखनीय है. मैसूर में दशहरे के समय पूरे शहर की गलियों को रोशनी से सज्जित किया जाता है और हाथियों का श्रृंगार कर पूरे शहर में एक भव्य जुलूस निकाला जाता है. इस समय प्रसिद्ध मैसूर महल को दीपमालिकाओं से दुल्हन की तरह सजाया जाता है. इसके साथ शहर में लोग टार्च लाइट के संग नृत्य और संगीत की शोभा यात्रा का आनंद लेते हैं. यहां एक बात आपको बता दें कि इन द्रविड़ प्रदेशों में रावण-दहन का आयोजन नहीं किया जाता है.
6. गुजरात में मिट्टी सुशोभित रंगीन घड़ा देवी का प्रतीक माना जाता है और इसको कुंवारी लड़कियां सिर पर रखकर एक लोकप्रिय नृत्य करती हैं जिसे गरबा कहा जाता है. गरबा नृत्य इस पर्व की शान है. पुरुष एवं स्त्रियां दो छोटे रंगीन डंडों को संगीत की लय पर आपस में बजाते हुए घूम-घूम कर नृत्य करते हैं. इस अवसर पर भक्ति, फिल्म तथा पारंपरिक लोक-संगीत सभी का समायोजन होता है. पूजा और आरती के बाद डांडिया रास का आयोजन पूरी रात होता रहता है. नवरात्रि में सोने और गहनों की खरीद को शुभ माना जाता है.
7. महाराष्ट्र में नवरात्रि के नौ दिन मां दुर्गा को समर्पित रहते हैं, जबकि दसवें दिन ज्ञान की देवी सरस्वती की वंदना की जाती है. इस दिन विद्यालय जाने वाले बच्चे अपनी पढ़ाई में आशीर्वाद पाने के लिए मां सरस्वती के तांत्रिक चिह्नों की पूजा करते हैं. किसी भी चीज को प्रारंभ करने के लिए खासकर विद्या आरंभ करने के लिए यह दिन काफी शुभ माना जाता है. महाराष्ट्र के लोग इस दिन विवाह, गृह-प्रवेश एवं नये घर खरीदने का शुभ मुहूर्त समझते हैं.
8. कश्मीर के अल्पसंख्यक हिन्दू नवरात्रि के पर्व को श्रद्धा से मनाते हैं. परिवार के सारे वयस्क सदस्य नौ दिनों तक सिर्फ पानी पीकर उपवास करते हैं. हिन्दू धर्म के अनुसार नौ दिनों तक लोग माता खीर भवानी के दर्शन करने के लिए जाते हैं. यह मंदिर एक झील के बीचोंबीच बना हुआ है. ऐसा माना जाता है कि देवी ने अपने भक्तों से कहा हुआ है कि यदि कोई अनहोनी होने वाली होगी तो सरोवर का पानी काला हो जाएगा. कहा जाता है कि इंदिरा गांधी की हत्या के ठीक एक दिन पहले और भारत पाक युद्ध के पहले यहां का पानी सचमुच काला हो गया था
विजयादशमी पर्व से हमारे पूर्वजों व देशवासियों ने मर्यादा पुरूषोत्तम श्री रामचन्द्र जी के आदर्श जीवन व उनके कृतित्व को जोड़ा है। यद्यपि आश्विन शुक्ला दशमी को मनाई जाने वाली विजयादशमी का श्री रामचन्द्र जी की लंकेश रावण पर विजय की तिथि से कोई ऐतिहासिक सम्बन्ध नहीं है, परन्तु हिन्दू धर्म के आदर्श होने के कारण और विजयादशमी का पर्व प्राचीन काल से क्षात्र धर्म से जुड़ा होने के कारण क्षात्र धर्म के मूर्त व आदर्श रूप मर्यादा पुरुषोत्तम
श्री राम को स्मरण करने का दिवस तो निश्चय ही है। यदि क्षात्र धर्म के पर्व पर श्री रामचन्द्र जी को स्मरण न किया जाये तो उनके समान अन्य कम ही हैं जिन्हें हम स्मरण कर सकते हैं और उनके जीवन से प्रेरणा ले सकते हैं। हम समझते हैं कि आज के दिन हमें योगेश्वर श्री कृष्णा और उनके व्यक्तित्व व कृतित्व को स्मरण कर उनके जीवन से भी प्रेरणा ग्रहण करने का व्रत लेना चाहिये। इससे न केवल हमारा जीवन लाभान्वित होगा वरन देश और समाज को भी लाभ होगा। यह नहीं भूलना चाहिये कि श्री रामचन्द्र जी ने ऋषियों के यज्ञों में विघ्न डालने वाले असुरों व राक्षसों का नाश किया था जिससे विश्व का कल्याण करने वाले यज्ञों की रक्षा हुई थी। इन्हीं यज्ञों को उन्नीसवीं सदी में वेदों के तलस्पर्शी विद्वान आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द ने पुनः प्रचलित किया है।
विजयादशमी का दिन आज हमें श्री रामचन्द्र जी के जीवन से प्रेरणा लेने सहित यज्ञों की रक्षा करने व स्वयं यज्ञ एवं उनके आदर्शों को अपने जीवन में धारण करने की भी अपेक्षा करता हुआ प्रतीत होता है। श्री रामचन्द्र जी में जो ज्ञान, बल, आचरण था वह वेद की शिक्षा, ऋषि-मुनियों की संगति व यज्ञों के कारण था। अतः हमें भी वेदाध्ययन कर अपने जीवन में ज्ञान व बल की वृद्धि करने के साथ उनका आचरण करना है और ईश्वरीय ग्रन्थ वेद और वेद ज्ञान के वाहक ऋषियों की आज्ञा के अनुसार प्रतिदिन पंचमहायज्ञों को धारण व आचरण में लाकर, इससे स्वयं उन्नत होकर संसार को भी उन्नत करना है।
श्री रामचन्द्र जी का जीवन इस लिए भी अनुकरणीय है कि उन्होंने देश व समाज से आसुरी व राक्षसी प्रवृत्तियों को दूर करने के साथ देश के ऋषि-मुनियों को सताने व उनके यज्ञीय कार्यों में बाधा डालने वाले राक्षसी स्वभाव के लंकापति राजा रावण को दण्डित किया था। सत्य की रक्षा के लिए दुष्टों को दण्डित करना आवश्यक होता है नहीं तो सत्य का व्यवहार समाप्त होकर देश व समाज में अनुशासन नहीं रहता और इससे धार्मिक व सदाचारी लोगों को दुःख व कष्ट होता है। हमारा देश श्री राम व श्री कृष्ण जी की सन्तानें है। इस कारण कि हमारे सबके पूर्वज राम व कृष्ण से जुड़े हुए हैं।
यह इस कारण भी है कि प्राचीन काल में गुण, कर्म व स्वभावानुसार वर्ण परिवर्तन होता था। ब्राह्मण क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र बन जाते थे और क्षत्रिय व वैश्य गुण, कर्म व स्वभाव के अनुसार अनेक उन्नत व निम्न वर्णों को प्राप्त होते थे। अतः श्री राम व श्री कृष्ण सभी वर्णों के साझे पूर्वज हैं और हम उन्हीं की सन्ततियां हैं। अतः हमें उनको ही आदर्श मानकर उनका अनुकरण व अनुसरण करना है। यह भी हमारा कर्तव्य व धर्म है।
हम जानते हैं कि श्री राम व श्री कृष्ण यज्ञों के प्रेमी थे। यज्ञ परोपकार का सर्वश्रेष्ठ कार्य व उदाहरण हैं। इससे वायु शुद्ध होती है और पर्यावरण को लाभ होता है। वायु शुद्ध करने का यज्ञ के समान दूसरा उपाय संसार में वैज्ञानिकों के पास भी नहीं है। यज्ञ का मुख्य आधार गोघृत है। अतः गोपालन सहित व गोरक्षा भी यज्ञ से जुड़ी हुई है। इसलिये प्रत्येक वैदिक धर्मी राम व कृष्ण के अनुयायी को यज्ञ की रक्षा करने हेतु स्वयं इसको प्रतिदिन सम्पन्न करना चाहिये। महर्षि दयानन्द ने दीर्घ काल से बन्द यज्ञ की परम्परा को वैदिक काल के अनुसार प्रचलित कर इसे सरल व सर्वत्र सुलभ करा दिया है।
सभी आर्य विचारधारा के लोग प्रतिदिन यज्ञ करते ही हैं। यज्ञकर्ता, गोपालक व गोरक्षक ही वस्तुतः श्री राम व श्री कृष्ण के अनुयायी कहलाने के अधिकारी हैं। इस पर सभी सनातन धर्मी भाईयों को विचार करना चाहिये और ओ३म् नाम तथा वेद के विचारों, मान्यताओं व सिद्धान्तों के अन्तर्गत संगठित होकर वेदों, सनातन वैदिक धर्म व संस्कृति का प्रचार व प्रसार करना चाहिये। यह ध्यान में रखना चाहिये कि संसार में केवल वेद और वैदिक धर्म ही ऐसी जीवन शैली हैं जो विश्व से अशान्ति, अधर्म तथा पाप को मिटा कर शान्ति, धर्म व शुभ कर्मों को स्थापित कर सकती हैं।
संसार में बहुत से महापुरूष व वैज्ञानिक आदि हुए हैं। हम जब भी किसी महापुरूष या वैज्ञानिक की जयन्ती मनाते हैं तो हम क्या करते हैं? उनके जीवन, विचारों, गुणों व कार्यों को स्मरण कर उनमें संशोधन, सवंर्धन व प्रचार की प्रेरणा प्राप्त कर उसके प्रसार का ही तो व्रत लेते हैं। अतः विजयादशमी पर्व पर भी हमें ऐसा ही करना है। हमें श्री राम चन्द्र जी व श्री कृष्ण जी के जीवन पर विचार करना है और उनके जीवन, कार्यों व आदर्शों को जानकर उनकी प्राप्ति को अपने जीवन का उद्देश्य व लक्ष्य बनाना है। ऐसा करके हम कुछ-कुछ उनके जैसे बन सकते हैं। केवल उनके नाम का कीर्तन करने से कोई लाभ किसी को नहीं होता।
विजया दशमी का पर्व मनाते हुए सर्वोत्तम विधि यही है कि हम अपने घरों में वृहत्त यज्ञ-अग्निहोत्रों का आयोजन करें जिससे परिवार व समाज का वातावरण शुद्ध व पवित्र हो और इससे सभी को स्वास्थ्य व मन की प्रसन्नता का लाभ हो। इसके साथ श्री राम, श्री कृष्ण, चाणक्य, महर्षि दयानन्द, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस, सरदार पटेल, पं. श्यामजी कृष्ण वर्मा, वीर सावरकर, मदन लाल ढ़ीगरा, शहीद ऊधम सिंह, राम प्रसाद बिस्मिल, भगतसिंह, राजगुरू व सुखदेव आदि का स्मरण कर उनके जीवन से प्रेरणा लेनी चाहिये।