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मन की शांति पानी हो तो क्षमाशील बनें

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क्षमा बोरों का भूषण है, शूरमाओं का अलंकार है पर आकर्षणों को भूल भुलैया का होना स्वाभाविक है और देवताओं का दिव्य लक्षण है। सच्चा वीर व साहसी और संभवतः जीवन में गलतियाँ- त्रुटियाँ इसी वजह से नही है, जो औरों की गलतियों त्रुटियों एवं नासमझियों हुआ करती है। इसलिए सामान्य इंसान को गलतियों का को क्षमा कर देता है। क्षमादान एक उत्कृष्ट साहस एवं पुतला भी कह दिया जाता है, जो पग-पग पर गलतियाँ अप्रतिम पराक्रम से कम नहीं है। यह भावपूर्ण और विशाल करता है और ठोकरें खाता है। ऐसे अज्ञानी जन क्षमा के हृदय का परिचय है, जिसके स्पर्श से अब तक कितने हो पात्र होते हैं। संवेदनशील हृदयवान व्यक्ति ऐसे लोगों को लोगों का हृदय परिवर्तन हुआ है और वे अपनी जीवन की क्षमा कर देते हैं।


वे जीवन की गूढ़ता से परिचित होते हैं, दशा एवं दिशा को बदलने में समर्थ हुए हैं। क्षमा एक मानवी स्वभाव के मर्मज्ञ होते हैं, इसलिए वे सभी की सभी 1 प्रकार की त्रुटियों को उदार एवं उदात्त हृदय से माफ करते रहते ऐसा दैवीय तत्त्व है, जो स्वयं को उपकृत तो करता ही है साथ ही औरों का भी उपकार करता है। शास्त्र वचनों के अनुसार क्षमा धर्म का लक्षण है। धर्म अर्थात् जिसे हम धारण करते हैं और जिसे धारण कर हम जाने, पहचाने एवं समझे जाते हैं। इस परिभाषा के अनुसार क्षमा से ही हमारे समूचे अस्तित्व की पहचान बनती है। इसके बिना न तो हमारा कोई यथार्थ परिचय है और न पहचान। मनुष्य का मनुष्यत्व, इंसान की इंसानियत तभी तक है जब तक कि उसमें क्षमा जैसे गुणों का सुंदर सम्मिश्रण है। इसी के द्वारा ही मनुष्य की सार्थक व्याख्या होती है और इसकी ठोक ठीक परिभाषा की जा सकती है। अन्य शब्दों में क्षमा का तत्त्व ईश्वर की श्रेष्ठ कृति, मनुष्य का दिव्य अलंकार है। इसी गुण के कारण ही इसमें नैसर्गिक सौंदर्य की आलोक आभा झलकती है।

मनुष्य जीवन दैवीय वरदान होने के साथ एक गूढ़ पहेली भी है। इसके पथ गहन खाइयों, खंदकों एवं दुर्गम जंगलों सुरंगों से होकर गुजरते हैं, जिसमें कभी गुजरे नहीं, चले नहीं, जाना एवं पहचाना नहीं ऐसे निविड़ पथ पर मनुष्य को चलना-बढ़ना पड़ता है। ऐसी राह जो दूसरों को क्षमा कर देता है वह ईश्वर का प्रियपात्र बनता है। भगवान उसको समस्त कमियों खामियों एवं दुर्बलताओं को क्षमा कर देता है और अपने अंक में समा लेता है। वह ऐसे अपना लेता है जैसे संत तिरुवल्लुवर ने अपना लिया था। दक्षिण के यह उदार संत जीवनभर सबको क्षमा करते रहे। कई बार खोटे सिक्के के बदले भी वे नए कपड़े दे देते थे।

अनेकों बार वे स्वयं ठगे जाते थे, पर औरों को नहीं ठगते थे। ठगने वालों को कभी कोई दंड नहीं दिया। वे उन्हें अपने सजल हृदय से माफ कर देते थे। इस प्रकार उनके पास नए कपड़े देने के बदले प्राप्त खोटे सिक्कों का एक बड़ा संग्रह हो गया। इन सिक्कों को तो कहीं चलना ही नहीं था ये तो मात्र संत तिरुवल्लुवर के पास ही चल सकते थे। परिणामतः इसकी एक पोटली बन गई। जीवन के अंतिम क्षणों में उन्होंने परमात्मा से कहा-“प्रभु। मैंने जीवनभर दूसरों के खोटे सिक्कों को चलाया है, मैं अकिंचन भी एक खोटा सिक्का हूँ। प्रभु! तू मुझे भी चला दे।” परमात्मा ने उन्हें अपना लिया। दूसरों को वे जीवनभर क्षमा करते रहे और वे भी क्षम्य हो गए, परमात्मा द्वारा अपना लिए गए।

क्षमा-उदारता व विशालता का परिचायक है। जिसका हृदय जितना उदार होगा वह उतना ही क्षमाशील होगा। इसे यों भी कहा जा सकता है कि क्षमा करने से संकीर्णता घटती है व विशालता बढ़ती है। क्षमा तो एक निष्काम भाव है। जिसे क्षमा दी जाती है, उससे न तो कोई अपेक्षा होती है और न उपेक्षा जहाँ अपेक्षा और उपेक्षा हो वहाँ सहज क्षमा का भाव कहाँ होगा? वहाँ तो अहंकार की मोटी, मैली एवं दुर्गंधयुक्त चादर होती है। जो उदात्त भावनाओं एवं उत्कृष्ट विचारों को ढँके-ढाँपे रहती है। दंभ और अहंकार से घनीभूत मनोवृत्ति से ग्रसित व्यक्ति कभी किसी को माफ नहीं कर सकता वह तो लेना जानता है, देना नहीं। वह केवल अपनी गलतियों के लिए क्षमा की याचना करता है और वह भी विनम्रता के साथ नहीं, उद्धतता व उदंडता के साथ इसके विपरीत क्षमा तो विचारों की बहती हुई एक सरिता है, भावनाओं का झरता हुआ झरना है, जो स्वयं बहती है और अपने घाट में आने वाले अगणितों की प्यास बुझाती चलती है।

इसमें अनायास ही अनेकों सद्गुण लिपटे रहते हैं। इसके अभाव में तो हिटलर और मुसोलिनी ही पैदा हो सकते हैं. परंतु इसके साथ जीवन का समन्वय संत, सिद्ध, महात्मा की सृष्टि करता है और ये क्षमा की साक्षात् मूरत होते हैं। इन्हें ही इंसान की वृत्तियों की गहन समझ होती है। मानवीय भूलों के लिए सदा क्षमा करते रहना इनका सहज स्वभाव होता है। इनका क्षमादान कभी व्यर्थ नहीं जाता, बल्कि इससे एक नया मानव गढ़ता है। ऐसे ही थे करुणावतार भगवान बुद्ध तथागत की क्षमा से दुर्दीत अंगुलिमाल का जीवन ही बदल गया, उसका सारा अहंकार पलभर में पश्चात्ताप के आँसू बनकर बह गया और वह संत बन गया। शास्ता की क्षमारूपी सजल धार से नगरवधू आम्रपाली की सारी अपवित्रता धुल गई। वह साधिका बन गई, भिक्षुणी हो गई।

क्षमा एक अनूठे दिव्यास्त्र एवं ब्रह्मास्त्र के समान है, जिसकी शक्ति इतनी अनोखी होती है कि बिना रक्तपात के, बिना टूट-फूट के ही विजय पताका फहराने लगती है और हृदय साम्राज्य को अधिकार में कर लेती है। क्षमापुरुष वशिष्ठ ने इसी का प्रयोग किया था। उन्होंने अपने प्राणहंता राजा विश्वरथ पर इसका अमोघ प्रयोग किया और राजा विश्वरथ जन-जन के हितैषी, समस्त विश्व के मित्र विश्वामित्र बन गए। ब्रह्मर्षि वशिष्ठ की क्षमा ने उन्हें भी ब्रह्मर्षि बना दिया। उनके हृदय का अहंकार गल गया और जीवन का समस्त ताप मिट गया और वे स्वयं भी क्षमा की जीवंत प्रतिमा बन गए।

क्षमाशील को अपने जीवन में एक अपार संतोष का अनुभव होता है, जिसे कर्म एवं व्यवहार में उतारकर ही अनुभव किया जा सकता है। इससे आंतरिक गुणों का विकास एवं अभिवर्द्धन होता है। इस संदर्भ में वैज्ञानिक शोध-अनुसंधान भी हो रहे हैं। इससे भी विदित होता है कि क्षमा शारीरिक स्वास्थ्य एवं मानसिक शांति का एक महत्त्वपूर्ण कारक है। यह निष्कर्ष एक सर्वेक्षण पर आधारित है, जिसके अंतर्गत १४०० लोगों को शामिल किया गया था। पाँच महीने के अध्ययन-अन्वेषण के पश्चात् पता चला कि ४५ से ६४ साल के लोगों में क्षमा का भाव प्रायः अधिक विकसित रूप में होता है। ६५ से अधिक उम्रदराज लोगों में यह भाव और भी अधिक मात्रा में पाया गया।

इस अध्ययन से यह भी पता चला कि क्षमा करने वाले लोग अपेक्षाकृत अधिक शांत एवं सहज होते हैं। उनमें शांति एवं संतोष की भावना मान्य से अधिक होती है। इसके ठीक विपरीत जो क्षमा में विश्वास नहीं रखते, जो औरों को उनकी त्रुटियों एवं दोषों पर दंड देने पर विश्वास रखते हैं, उनकी मनःस्थिति अशांत एवं आक्रामक पाई गई। यह वृत्ति अधिकतर १८ से ४४ वर्ष की उम्र के युवाओं में दृष्टिगोचर हुई। इस निष्कर्ष के परिप्रेक्ष्य में मिशिगन विश्वविद्यालय के डॉ. लारेन और शोधकार्य में संलग्न उनके सहयोगियों का कहना है कि क्षमा से शारीरिक एवं मानसिक लाभ का मिलना अब एक सुनिश्चित वैज्ञानिक तथ्य है। हाँ यह बात भिन्न है कि यह किसे कितनी मात्रा में उपलब्ध हुआ। इतना तो तय है कि क्षमा से आत्मिक संतोष मिलता है। यह अनुभव एक निर्विवाद तथ्य है, एक अकाट्य सत्य है। आवश्यकता है इस दैवीय गुण को विकसित करके इसके दिव्य आनंद

की अनुभूति करने की। क्षमाशीलता की भाववृत्ति को अपनाकर हम भी सच्चे साहसी, पराक्रमी एवं उदारचेताओं की श्रेणी में गिने जा सकते हैं। इस व्रत को अपनाकर हम भी सही मानवीय गरिमा से संपन्न बन सकते हैं, क्योंकि क्षमादान से बड़ा कोई दान नहीं। इसे अपनाकर अपना जीवन भी धन्य हो, ऐसा संकल्प सबके अंदर जागे।

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