लेख सारिणी
अजा एकादशी – Aja Ekadashi
Aja Ekadashi – हिंदु कैलेंडर के हिसाब से प्रत्येक चंद्रमास में दो पक्ष होते हैं एक कृष्ण पक्ष और एक शुक्ल पक्ष। दोनों पक्षों में पंद्रह तिथियां होती हैं। कृष्ण पक्ष प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक रहता है तो शुक्ल पक्ष की शुरुआत अमावस्या के बाद प्रतिपदा को चंद्र दर्शन के साथ होती है और पूर्णिमा तिथि के समाप्त होने के साथ ही शुक्ल पक्ष भी समाप्त हो जाता है। दोनों पक्षों की दोनों तिथियों में दो एकादशियां आती हैं।
हर मास की एकादशियों का अपना अलग महत्व होता है और उनकी महिमा का गुणगान करती अलग-अलग कथाएं भी धार्मिक ग्रंथों में मौजूद हैं। कुल मिलाकर वर्ष के 12 महीनों में एकादशियों की संख्या 24 होती है लेकिन मलमास जिसे अधिक मास भी कहा जाता है के होने से इनकी संख्या बढकर 26 हो जाती है। भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी का महत्व भी धार्मिक ग्रंथों में मिलता है। आइये जानते हैं इस एकादशी की कथा व महत्व को।
Aja Ekadashi Mahatva – अजा एकादशी व्रत महत्व
भाद्रपद के कृष्ण पक्ष की एकादशी को अजा एकादशी कहा जाता है। युद्धिष्ठिर जब भगवान श्री कृष्ण से एकादशी व्रत की कथाओं को सुन रहे थे तो उन्हें जिज्ञासा हुई कि भाद्रपद की कृष्ण एकादशी को क्या कहते हैं और इसका माहात्म्य क्या है? उन्होंनें अपनी जिज्ञासा प्रभु के सामने रखी तो भगवान मधुसूदन ने कहा इसका नाम अजा एकादशी है और जो भी इस एकादशी का व्रत विधिनुसार रखता है वह सब प्रकार के पापों से मुक्त हो जाता है और इस दिन भगवान ऋषिकेष की पूजा कर वह मोक्ष को पा लेता है।
Aja Ekadashi Vrat Katha – अजा एकादशी व्रत कथा
सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र के बारे में तो लगभग पूरा हिंदुस्तान जानता है। लोक कथाओं से लेकर लोकनाट्यों तक के जरिये जन-जन ने हरिश्चंद्र के दुख को महसूस किया। कर्त्वयपरायणता का पाठ हरिश्चंद्र की कथा से आज भी मिलता है। तो अजा एकादशी की कथा इन्हीं सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र की कथा है। बात सतयुग की है राजा हरिश्चंद्र बहुत ही सत्यवादी और चक्रवर्ती राजा हुआ करते थे। उनके दरबार से कोई खाली नहीं जाता था। एक बार ऋषि विश्वामित्र ने उनकी परीक्षा लेने की सोची उन्होंनें हरिश्चंद्र से सारा राज-पाट मांग लिया।
अब हरिश्चंद्र बिल्कुल कंगाल हो गये बात यहीं खत्म नहीं हुई विश्वामित्र ने उनसे स्वर्ण मुद्राएं मांग ली जिन्हें देने का वचन वे भूलवश दे बैठे। जब विश्वामित्र ने उन्हें याद दिलाया कि राज-पाट तुम पहले ही सौंप चुके हो तो अब मुद्राएं कैसे दोगे तो हरिश्चंद्र ने अपनी पत्नी और पुत्र को गिरवी रख दिया लेकिन फिर भी मुद्राएं पूरी नहीं हुई फिर उन्होंनें खुद को भी एक चांडाल का दास बनना स्वीकार किया और महर्षि की मुद्राएं पूरी की। लेकिन उसके कष्टों की कहानी यहां खत्म नहीं हुई। हरिश्चंद्र शमशान में मृतकों के परिजनों से दाह संस्कार के बदले कर वसूली करने के काम को करता था। कई बार उनके सामने धर्मसंकट की स्थिति भी बनी लेकिन वे सत्य और कर्तव्य के मार्ग से विचलित नहीं हुये।
उधर हरिश्चंद्र की पत्नी को माली के यहां काम करना पड़ा एक दिन की बात है बगीचे में खेल रहे पुत्र रोहिताश को सांप ने काट लिया जिससे उसकी वहीं पर मृत्यु हो गई। वह रोती बिलखती पुत्र के शव को लेकर शमशान में पंहुची तो पुत्र की लाश को देखकर हरिश्चंद्र का कलेजा भी भर आया। सारा वृतांत सुनकर हरिश्चंद्र ने कहा कि मैं अपने कर्तव्य में बंधा हुआ जो भी यहां दाह संस्कार के लिये आता है उसे कर के रुप में कुछ न कुछ देना पड़ता है। तुम्हारे पास क्या है। उस बेचारी के पास अपने पुत्र की लाश के अलावा क्या था।
यह दिन भाद्रपद की कृष्ण एकादशी का था दोनों के सुबह से कुछ भी खाया नहीं था। अपने हालातों पर दोनों भगवान से प्रार्थना कर रहे थे। जब हरिश्चंद्र ने दाह संस्कार नहीं करने दिया तो रानी ने अपनी आधी साड़ी चीर कर हरिश्चंद्र को कर के रुप में दी। उधर प्रभु भी यह सब कुछ देख रहे थे तो हरिश्चंद्र की कर्तव्य परायणता को देखकर उन्होंनें उनके पुत्र को जीवित कर दिया और फिर से हरिश्चंद्र को राज-पाट भी लौटा दिया। तो इस प्रकार अजा एकादशी के व्रत से हरिश्चंद्र के समस्त दु:खों का निवारण हो गया।
इस एकादशी की कथा के बारे में मान्यता है कि इस कथा के सुनने मात्र से ही अश्वमेध यज्ञ के समान फल की प्राप्ति होती है।
Aja Ekadashi Niyam – अजा एकादशी व्रत में रखें ये सावधानियां
अजा एकादशी के महत्व और कहानी के बारे में आप जान चुके हैं लेकिन इस व्रत के दौरान कुछ सावधानियां भी जरुर बरतनी चाहिये अन्यथा व्रत का फल अपेक्षानुसार नहीं मिलता। दशमी तिथि की रात्रि में मसूर की दाल नहीं खानी चाहिये और ना ही चने या चने के आटे से बनी चीजें खानी चाहियें। शाकादि भोजन, शहद आदि खाने से भी बचना चाहिये। ब्रह्मचर्य का पूर्ण रूप से पालन करना चाहिये।
Aja Ekadashi Vrat Katha – अजा एकादशी व्रत पूजा विधि
एकादशी के दिन व्रती को प्रात:काल में उठकर नित्यक्रिया से निपटने के बाद घर की साफ-सफाई करनी चाहिये। इसके बाद तिल व मिट्टी के लेप का इस्तेमाल करते हुए कुशा से स्नान करना चाहिये। स्नानादि के पश्चात व्रती को भगवान श्री हरि यानि कि विष्णु भगवान की पूजा करनी चाहिये। पूजा करने से पहले घट स्थापना भी की जाती है जिसमें कुंभ को लाल रंग के वस्त्र से सजाया जाता है और स्थापना करने के बाद कुंभ की पूजा की जाती है।
तत्पश्चात कुंभ के ऊपर श्री विष्णु जी की प्रतिमा स्थापित कर उनके समक्ष व्रती संकल्प लेते हैं फिर धूप, दीप और पुष्पादि से श्री हरि की पूजा की जाती है। लेकिन यदि आपको जीवन में काफी संघर्ष और कष्टों से गुजरना पड़ रहा है तो इसके उपाय के लिये आपको विद्वान ज्योतिषाचार्यों से परामर्श लेना चाहिये जो कि अब बहुत ही सरल हो गया है।
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