योग के आठों अंगों का अपना विशिष्ट महत्त्व है, और वे साधक को अपने से अगले अंग के सुयोग्य बनाते हैं। यम और नियम तो भूमिकात्मक अंग हैं, किन्तु शेष छ: अंग तो योग से प्रत्यक्ष और अविभिन्न रूप से जुड़े हैं।
इनका प्रथम आसन ही हैं। ऋषियों ने प्रकृति, पशु, पक्षी आदि के स्वभाव का अध्ययन कर आसनों (Asana), बन्ध (Bandhas) व मुद्राओं (Mudra) का निर्माण किया।
जैसा कि कहा गया है, कि लोक में जितने भी जीव-जन्तु हैं, उनकी चेष्टाओं के अनुसार उतने ही आसन हैं। आसनों के इन सभी भेदों को महादेव ही जानते हैं।
आसनों के मूल प्रवर्तक तो स्वयं भगवान शिव हैं। जिन्होंने 84 लाख योनियों के आधार पर 84 लाख आसन बनाए थे। किन्तु संख्या में अत्यधिक हो जाने पर उनमें प्रमुख 84 आसन छांट लिए गए।
योग विदों ने उन 84 आसनों में भी प्रमुख रूप से उपयोगी दो आसन छांट लिए। जिनमें एक सिद्ध व दूसरा पद्म आसन है।
यद्यपि आसनों का राजा शीर्षासन (Shirshasana) को माना गया है। किन्तु वह शारीरिक/भौतिक लाभ व रोगनाश की दृष्टि से आध्यात्मिक लाभ या कुण्डलिनी जागरण आदि के सम्बन्ध में ध्यान योग्य आसनों में उपर्युक्त दो ही प्रमुख हैं।
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Siddhasana | सिद्धासन
धरती पर दोनों पैर सामने फैलाकर बैठ जाएं बाएं पैर को मोड़कर उसकी एड़ी सीवनी प्रदेश (गुदा व शिश्न के मध्य का स्थान) पर दृढ़ता से स्थापित करें।
दाएं पैर को मोड़कर उसकी एड़ी को उपस्थ के ऊपर तथा पहली एड़ी के (टखने के) ऊपर स्थापित करें।
दोनों पैरों के तलवों व अंगूठों को एक-दूसरे पैर की जंघाओं व पिंडलियों के बीच फंसा लें और कमर, गर्दन व सिर को सीधा समसूत्र कर लें। मूलबन्ध लगाएं। उड्डियान बन्ध लगाएं और फिर जालन्धर बन्ध लगाएं।
यह सिद्धासन हुआ। इस आसन में आज्ञाचक्र ( भृकुटियों के मध्य) पर दृष्टि स्थिर करके मन व इन्द्रियों को भी वहीं एकाग्र करके ध्यान करें तो आत्मसाक्षात्कार होता है।
मूलबन्ध को लगाने में और स्थिर रखने में अति सहायक होता है तथा पैरों में पद्मासन की भांति जल्दी ही थकान नहीं होने देता तथा सिद्धों के लिए है।
अत: इसे सिद्धासन कहते हैं। बहुत से विद्वान पद्मासन व सिद्धासन में भी सिद्धासन को सर्वश्रेष्ठ कहते हैं। क्योंकि यह सरल, सहयोगी एवं स्वत: सिद्ध है।
परन्तु बहुत से विद्वान पद्मासन को अधिक श्रेष्ठ कहते हैं।’ योग कुण्डल्य उपनिषद्’ ने तो सिद्धासन से वज़ासन को श्रेष्ठ माना है, और पद्मासन के साथ वज्रासन को ही रखा है।
वज्रासन अपने स्थान पर श्रेष्ठ है। एक मात्र यही आसन है, जो भोजनोपरांत भी किया जा सकता है।
Padmasana | पद्मासन
बाईं जंघा के मूल में दायां और दांई जंघा के मूल में बायां पैर मोड़कर स्थापित करें। फिर हाथों को पीठ के पीछे ले जाकर दाएं हाथ से बाएं पैर का तथा बाएं हाथ से दाएं पैर का अंगूठा पकड़ लें।
ठोड़ी को हृदय से लगाकर नासिका के अग्रभाग को दोनों नेत्रों से स्थिर होकर देखें मन, बुद्धि व इन्द्रियों को भी वहीं केन्द्रित करें। यह पद्मासन सम्पूर्ण व्याधियों को दूर करने वाला है।
पद्मासन में हाथों की स्थिति भिन्न होती है। पैरों को अंगूठों को बांधने के स्थान पर दोनों हाथ घुटनों पर अथवा गोदी में रखे जाते हैं। सिद्धासन में भी हाथों को इसी प्रकार रखना चाहिए ।
किन्तु दोनों ही आसनों में पैरों की स्थिति व लगाए जाने वाले बन्धों एवं ध्यान का महत्त्व है, न कि हाथों की स्थिति का, हाथों की स्थिति तो विभिन्न क्रियाओं में बदल दी जाती है।
जैसे जाप करना हो तो हाथ से माला फेरी जाती है। मानसिक ध्यान में तर्जनी, अनामिका, मध्यमा, कनिष्ठा आदि को दबाकर (अंगूठे से) रखा जाता है।
प्रार्थना या आत्मनिवेदन में नमस्कार की मुद्रा में छाती पर बांध लिया जाता है, अथवा भजन आदि में हाथों से खड़ताल/मजीरा आदि बजाया जाता है।
अत: हाथों की स्थिति महत्त्वपूर्ण नहीं है। महत्त्वपूर्ण है पैरों की स्थिति, कमर व गर्दन की स्थिति महत्त्वपूर्ण है।
Tratak | त्राटक
त्राटक भी योग ( yoga ) का ही अंग है, तथा मन के साथ-साथ दृष्टि के केन्द्रीकरण व उनकी शक्तियों को बढ़ाने में अत्यंत उपयोगी है, किन्तु कुण्डलिनी के सम्बन्ध में यह उतना प्रभावी नहीं है।
दृष्टि को नेत्र बन्द करके, मन, बुद्धि व इन्द्रियों सहित शरीर के भीतर कहीं केन्द्रित करना अन्तर्त्राटक कहा जाता है। इस कार्य में विभिन्न चक्रों आदि पर ध्यान एकाग्र किया जाता है।
जबकि शरीर के बाहर किसी बिन्दु पर मन, बुद्धि व इन्द्रियों सहित नेत्रों को स्थिर करना ‘ बाह्मत्राटक’ कहलाता है। इस कार्य में नासिकाग्र, पैर का अंगूठा अथवा दीपक, दीवार पर बना चिह, तारा, सूर्य आदि को माध्यम बनाया जाता है।
सम्मोहन विद्या में सफलता के लिए त्राटक का अभ्यास अति उपयोगी है। पर कुण्डलिनी जागरण में प्राणों व ध्यान का महत्त्व है, न कि त्राटक का।
कुण्डलिनी जागरण से सम्बंधित ज्ञान के लिए और उससे सम्बंधित रहस्यों को जानने के लिये kundalini लिंक पर जाये।
Bandhas | बन्ध
मूलबन्ध, उड्डियान बन्ध तथा जालन्धर बन्ध इन तीनों प्रमुख बन्धों का योगविद्या में तथा कुण्डलिनी जागरण में अत्यधिक महत्त्व है।
ये बन्ध योग की प्रमुख पांच मुद्राओं के अन्तर्गत आते हैं। पंचमुद्राओं में उपर्युक्त तीन बन्ध भी शामिल हैं। इसी से इनका महत्त्व सिद्ध हो जाता है।
Moola Bandhas | मूलबन्ध
मूलबन्ध को योनिबन्ध भी कहते हैं। गुदा तथा उपस्थ के प्रदेश की ऊपर संकुचित करके रखना तथा प्राण और अपान को मिलाना मूलबन्ध है।
एड़ी से योनि स्थान को दबाकर भीतर को खींचें। इस प्रकार अपान वायु को ऊपर की ओर उठाकर प्राणवायु से मिलाने पर योनिबन्ध कहलाता है।
इस तरह प्राण, अपान, नाद और बिन्दु में मूलबन्ध के द्वारा एकता प्राप्त होती है। यह योग निःसन्देह सिद्धि प्राप्त कराने वाला होता है।
इस प्राण और अपान को जो मिलाने के प्रयास में रत रहता है उसके मूत्र, मल आदि विकारों का क्षय होता है और वह यदि वृद्ध भी हो तो युवा हो जाता है।
‘शिव संहिता’ में तो मूलबन्ध को और भी महत्त्वपूर्ण तथा जरा-मरण का नाश करने वाला कहा गया है।
Uddiyana bandhas | उड़ियान बन्ध
जिससे बंधा हुआ प्राण सुषुम्ना में उड़ने लगे/उठने लगे उसे योगी उड्डियान बन्ध कहते हैं। स्पष्ट है, कि प्राण को सुषुम्ना में प्रेषित कर सकने में समर्थ यह बन्ध कुण्डलिनी को भी ऊपर उठाने में सहयोगी होता है।
किन्तु लेटे या अधबैठे होकर अथवा कमर झुकाकर बैठने पर मूलबन्ध व जालन्धर बन्ध तो किसी प्रकार लग भी जाएं पर उड्डियान बन्ध नहीं लग सकता।
उदर के पश्चिम में तथा नाभि के नीचे के भाग में इस बन्ध का स्थान बताया जाता है। अर्थात् नाभि प्रदेश/नाभि से कुछ ऊपर व नाभि से नीचे इसका स्थान है।
इस बन्ध में इस स्थान को यथा सम्भव भीतर खींचकर सुषुम्ना से ही लगा देने का प्रयास किया जाता है। कही गईं ‘नौली क्रिया’ तथा ‘ अग्निसार’ आदि क्रियाएं व्यक्ति को बेहतर उड्डियान बन्ध लगा पाने में समर्थ बनाती हैं।
Jalandhara Bandhas | जालन्धर बन्ध
ठोड़ी को सिकोड़ कर कण्ठकूप में अथवा हृदय से 4 अंगुल ऊपर दृढ़ता पूर्वक स्थापित करने से किन्तु गर्दन व दृष्टि सीधी रखने पर यह बन्ध लगता है।
यह न केवल कुम्भक द्वारा धारण की गई वायु को रोके रखने में सहयोगी होता है अपितु सहस्नार चक्र से झरने वाले अमृत को भी नीचे गिरने से रोकता है।
कण्ठ की शिराओं का जाल इस बन्ध से कसा जाता है, अत: इसे जालन्धर बन्ध कहते हैं। यह बन्ध भी वायु निरोध में सहायक होने से मृत्यु नाशक माना गया है।
यह वृद्धावस्था तथा मृत्यु का नाश करने वाला है। यह बन्ध शिराजाल को बांधकर/कसकर चन्द्रामृत रूपी जल को कपाल कुहर से नीचे गिरने से रोकता है।
वह दु:खों व रोगों का नाश करने वाला जालन्धर बन्ध माना गया है। इससे चन्द्रामृत गिर कर अग्नि में पड़ने से रुका रहता है। इस जालन्धर बन्ध के अभ्यास से वायु का प्रकोप नहीं हो पाता क्योंकि यह वायु निरोध में सहायक होता है।
Mudra | मुद्रा
ये मुद्राएं जप एवं मंत्रादि में प्रयुक्त होने वाली मुद्राओं से भिन्न होती है। नभोमुद्रा (खेचरी मुद्रा), महामुद्रा/महाबन्ध, शक्तिचालिनी मुद्रा, विपरीतकरणी मुद्रा, शाम्भवी मुद्रा, काकीमुद्रा, अश्विनी मुद्रा आदि और भी अनेक मुद्राएं हैं।
प्रमुख मुद्रा का यहां वर्णन करेंगे। ये योग विषयक मुद्राएं हैं।
Maha Mudra/Maha bandhas | महामुद्रा/महाबन्ध
यह मुद्रा समस्त प्रकार के रोगों का नाश करती है और कुण्डलिनी जागरण में अत्यंत सहयोगी है। विशेष रूप से पाचन तन्त्र को सुव्यवस्थित करती है।
प्रायः समस्त योगग्रन्थों में इसका वर्णन मिलता है। इस मुद्रा के साथ विधिपूर्वक किया गया प्राणायाम अत्यंत लाभकारी होता है।
पूर्ण रूप से प्राणायाम को समझने के लिये प्राणायाम ( Pranayama ) पर क्लीक कर जानकारी प्राप्त करे।
हृदय में ठोड़ी को दृढ़ता से स्थापित करें। बाएं पैर की एड़ी को योनिस्थान में दृढ़ता से लगाएं व दाएं पैर को सामने पसार कर दोनों हाथों से उसका तलवा पकड़ लें।
फिर पूरक द्वारा उदर में वायु को भरके कुम्भक करें। बाद में शनैः शनै: रेचक करें। यह रोगों का नाश करने वाली श्रेष्ठ महामुद्रा कही जाती है।
इसका अभ्यास प्रथम चन्द्रनाड़ी से और फिर सूर्यनाड़ी से करना चाहिए। इस प्रकार दोनों नथुनों से प्राणायाम समान मात्रा में पूर्व हो जाने पर यह मुद्रा छोड़ दें।
Khechari Mudra/ Nabho Mudra | नभोमुद्रा/खेचरी मुद्रा
खेचरी मुद्रा/नभोमुद्रा को सभी योग विषयक ग्रन्थों ने अति सम्मान पूर्ण स्थान दिया है तथा प्रमुखता से उपयोगी व महत्त्वपूर्ण बताया है।
खेचरी मुद्रा के वर्णन से पूर्व सहस्नारचक्र से निरंतर झरने वाले अमृत के विषय में चर्चा करना आवश्यक है। क्योंकि खेचरी मुद्रा इसी अमृत के पान की विधि है।
सहस्नरार चक्र में उपस्थित सोलह दल की कमल कर्णिका में एक चन्द्र बिम्ब है जिससे निरन्तर अमृत स्राव होता है।
तालूमूल में स्थित चन्द्रमा से होता हुआ यह सुधा नीचे गिरता है, और नाभि में स्थित अग्नि (जठराग्नि) रूपी सूर्य द्वारा ग्रस लिया जाता है।
इस प्रकार व्यर्थ चला जाता है। जब तक जीवन रहता है, यह अमृत स्राव सतत चलता है। जब यह अमृत झरना बन्द हो जाता है, तब मृत्यु होती है।
सहस्नरार चक्र में परमशिव का कुण्डलिनी रूपी शक्ति से अभेदात्मक मिलन होता है। यही परमशिव का स्थान है।
अत: कोई बड़ी बात नहीं कि शिव की जटाओं से वाली गंगा की धारा की कथा के माध्यम से इसी अमृतस्नाव का मर्म समझाया गया हो।
इस अमृत की रक्षा करने के लिए ही विपरीत मुद्रा, खेचरी मुद्रा आदि का प्रावधान है। इस अमृत का मान जरा मृत्यु विनाशक तथा दिव्य को देने वाला है।
छेदन, चालन, दोहन द्वारा जिह्ला को नोकदार लम्बा कर भूकुटियों में मध्य भाग में दृष्टि स्थिर करके जब जिह्ला उलटी होकर कपाल कुहर में प्रविष्ट होने के योग्य हो जाती है, तब उसे खेचरी मुद्रा कहते है।
इस मुद्रा से चित्त व जिह्ना दोनों कपाल कुहर रूपी आकाश में विचरण करते हैं। तब ऊपर पहुंचाई गई जिह्ना वाला पुरुष अमर हो जाता है।
Viparita Karani Mudra | विपरीतकरिणी मुद्रा
जैसा कि नाम ही से स्पष्ट हो जाता है, कि यह मुद्रा शरीर की स्थिति को उल्टी या विपरीत कर देने वाली है। अत: इसको “विपरीत करिणी’ कहते हैं।
मात्र शरीर को उल्टा कर लेने से ही यह मुद्रा सिद्ध नहीं हो जाती। पहले प्राणायाम तथा खेचरी आदि मुद्राएं सिद्ध की जाती हैं।
फिर विपरीतकरिणी मुद्रा में खेचरी का समावेश किया जाता है। प्राणवायु की नासिका के उर्ध्वविवर में तथा जीभ को जिह्ना मूल से पलटकर ब्रह्मरंघ्र की ओर पहुंचाने का अभ्यास किया जाता है।
यह अत्यंत कठिन अभ्यास है। ‘ झाण्डिल्योपनिषद्’ में संध्या के समय वायु को खींचकर पीने का निर्देश मिलता है।
उससे तीन महीने में अभ्यासी की वाणी सरस्वती स्वरूपा हो जाती है। छ: महीने में समस्त रोग दूर हो जाते हैं। अत: इस अवस्था में जिह्ना द्वार प्राणवायु को खींचा भी जाता है।
जो जितेन्द्रिय योगी सदा ऐसा करता है, उसका क्षय कभी नहीं हो सकता। जीव को ऊर्ध्व स्थित कर सुधापान करने वाला साधक पंद्रह दिनों में ही मृत्यु को जीतने वाला हो जाता है।
Shaktichalini Mudra and Shakti Chalana | शक्तिचालिनी मुद्रा व शक्तिचालन
इस मुद्रा का सीधा सम्बन्ध कुण्डलिनी को जागृत कर उसे ऊपर चढ़ाने से है। अत: इसे ‘शक्तिचालिनी मुद्रा’ कहा गया है।
यह भी अत्यधिक महत्त्वपूर्ण क्रिया है। किन्तु लम्बे अभ्यास से ही यह मुद्रा सिद्ध होती है। अत: थैर्य आवश्यक है। प्राय: समस्त योग विषयक ग्रन्थों ने इसे सम्मानपूर्वक मान्यता दी है।
दोनों हाथों की अज्जली बांधकर दोनों कुहनियों को दृढ़ता से हृदय पर रखकर पद्मासन करें। ठोड़ी को हृदय से दृढ़तापूर्वक लगाकर ज्योतिरूप ब्रह्म का ध्यान करें|
प्राणायाम द्वारा वायु खींचकर उसे अपानवायु से मिलाएं और कुम्भक द्वारा धारण करके शनै: शनै: छोड़ दें। ऐसा करने से साधक को कुण्डलिनी शक्ति के प्रभाव का अतुलित बोध होता है अथवा शक्ति जागृत होती है।
यह शक्तिचालिनी मुद्रा कुण्डलिनी शक्ति को जागृत करती है। इसीलिए इसे शक्तिचालिनी कहते हैं| परन्तु यह लम्बे अभ्यास से सिद्ध होती है।
पद्मासन के स्थान पर सिद्धासन का प्रयोग इस मुद्रा में अधिक लाभकारी रहेगा क्योंकि अश्विनी मुद्रा तथा योनिमुद्रा में यही सिद्धासन अधिक सहयोगी रहता है और कम प्रयास से ही मुद्रा को सिद्ध करता है।
शरीर पर भभूत मलने के तीन सम्भावित कारण हैं। पहला नग्नावस्था को ढकना। दूसरा बैराग्य भाव को उदित
करने के बाह्य प्रयास एवं तीसरा इस क्रिया में शरीर पर आने वाले पसीने को सोखने की सुविधा प्राप्त करना।
क्योंकि पसीने के अधिक बहने की अनुभूति भी मुद्रा के स्थायित्व में बाधक हो सकती है। यह भी सम्भावना है कि शिव को ईष्ट मानने के कारण घेरण्ड ऋषि शिव की ही भांति देह पर भभूत मलने को आवश्यक समझते हों।
नाभि पर वस्त्र लपेटने अथवा वस्त्र को नाभि पर रख कटि सूत्र से बांधने के पीछे दो उद्देश्य संभावित हैं । पहला उड्डियान बन्ध में सहयोग एवं नाभिमंडल को भीतर दबाकर उद्देलित करना।
दूसरा नाभिमंडल पर ध्यान लगाने में सहयोग प्राप्त करना सुषुम्ना में वायु को प्रत्यक्ष करने का अर्थ वायु को वहां अनुभव करने से है।
Ashvini Mudra | अश्विनी मुद्रा
उपस्थ सहित गुदा को बार-बार संकुचित करना तथा ढीला छोड़ना अश्विनी मुद्रा कही जाती है। यह कुण्डलिनी को जागृत कर पाने में समर्थ भले ही न हो अथवा चलाने में सक्षम भले न हो ।
किन्तु उसको थपथपा कर या छेड़कर उत्तेजित अवश्य करती है। इसीलिए घेरण्ड ऋषि ने वायु के सुषुम्ना के द्वार
पर अनुभव करने तक अश्विनी मुद्रा के प्रयोग का निर्देश दिया है।
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