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महेश नवमी उत्सव क्यों ?
हिंदू समाज का महेश्वरी वर्ग महेश (शिव) नवमी उत्सव धूमधाम से मनाता है। कहा जाता है कि इस वंश की उत्पत्ति शिव यानी महेश द्वारा हुई थी। इस उत्सव पर रूद्राभिषेक करके भगवान शिव की या़त्रा निकालीस जाती हैं किसी समय खड्गलसेन नाम का राजा एक राज्य में सिंहासनारूढ़ था। उसके राज्य की प्रजा बडी़ शान्ति से रहती थी। चारों ओर सुख, समुद्धि एवं संतोष था। वह राजा बडा़ धर्मावतार, प्रजा हित में दक्ष न्यायप्रिय था। फिर भी राजा और रानी उदास और चिंतित रहते थे। उनके कोई संतति नहीं थी।
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राजा ने खूब दान-धर्म किया, पूजा-पाठ कराए तथा मंत्रियों के परामर्श से पुत्रकामेष्ठी यज्ञ करवाया। ऋषियों ने उसे आशीर्वाद दिया,‘‘हे राजन्ं इस यज्ञ के प्रताप से तुम्हें एक अत्यंत पराक्रमी पुत्र प्राप्त होगा। वह चक्रवर्ती भी होगा। लेकिन तुम्हें यह ध्यान रखना होगा कि वह बीस वर्ष की अवस्था तक उत्तर दिशा की ओर न जाएं।’’
राजा ने ऋषियों की आज्ञा स्वीकार कर ली। उस राजा के चैबींस रानियां थी। उनमें से पंचावती नामक रानी यथासमय गर्भवती हुई और उसने एक सुन्दर पुत्र को जन्म दिया। पूरे राज्य में पुत्र-जन्मोत्सव धूमधाम के साथ मनाया गया। पुत्र का नाम सुजान कंवर रखा था। अल्प समय में कुवर ने विद्याध्यन एवं शस्त्र विद्या में निपुणता प्राप्त कर ली। एक दिन कुंवर जंगल में शिकार खेलने के लिए गया। उसके साथ सेवक भी थे। आमोद-प्रमोद में समय यों ही बीत गया । अचानक कुंवर की इच्छा उत्तर की ओर बढ़ने की हुई। उसके सेवको ने उसे बहुत समझाया। लेकिन कुंवर नहीं माना। वह जानना चाहता थां कि उसे उत्तर की और क्यों जाने नहीं दिया जाता।
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ऐसा विचार कर उत्तर दिशा की ओर गया। शीघ्र ही वह सूर्यकुंड के समीप पहुंच गया। वहां छह ऋषि यज्ञ कर रहे थें। वेद मंत्रों के उच्चारण से वातावरण गुंज रहा थां। यह देखते ही कुंवर को क्रोध आ गया कि उसे यज्ञ की जानकारी न होने पाए, इसलिए उसे उत्तर दिशा मे जाने से रोका जा रहा था। यह सोचकर कुंवर ने अपने सेवकों को आदेश दिया कि वे उस यज्ञ का विध्वंस करके यज्ञ-सामग्री को नष्ट कर दें।
आदेश पाते ही सेवको ने ऋषियो को घेर लिया और यज्ञ का विध्वंस करने लगे। यह देख ऋषियों ने क्रोधित होकर कुंवर को शाप दे दिया। उस शाप कें प्रभाव से कुंवर अपने सेवकों सहित गया। यह समाचार पाते ही उसके पिता राजा खड्गलसेन ने प्राण त्याग दिए। उसकी पत्नियां (रानियां ) सती हुईं। उधर कुंवर की पत्नी चंद्रावती कुंवर के सेवकों की पत्नियों के साथ सूर्यकुंड के समीप पहुंची। उसने ऋषियो से अनुनय-विनय करते हुए क्षमा मांगी। तब ऋषियों ने कहा कि वे दिया हुआ शाप वापस लेने में सक्षम नहीं है। यद्यपि उन्होेनं कहा कि पास ही एक गुफा है, वहां जाकर भगवान महेश (शिव) की आराधना करें। उनकी मनोकामना अवश्य ही पूर्ण होगी। ऋषियों को प्रणाम कर सब स्त्रियां गुफा में गई और पूरे मनोभाव से भगवान की आराधना करने लगीं।
उनकी आराधना से प्रसन्न होकर देवी पार्वती वहां उपस्थित हुई और आशीर्वाद देते हुए बोली,‘‘ सौभाग्यवती होओ, पुत्रवती होओ।’’
तब चंद्रावती ने विनयपूर्वक कहा, ‘‘हे जगन्माता, हम सब के पति ऋषियों के शाप से पत्थर में परिवर्तित हो गये है। आपके आर्शीवाद का फल मिले, इसके लिए आप हमारे पतियों को शाप मुक्त करने की कृपा करें।’’
उसी समय वहां भगवान श्री महेश पधारे। सबने उनकी स्तुती की । भगवान ने उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर, ’’तथास्तु” कहा। परिणामस्वरूप राजकुमार कुंवर अपने सेवकों सहित पूर्व स्थिति में आ गया। वे सब भगवान के चरणों में गिर पडे़। भगवान ने उपदेश, ‘‘ क्षमावान बनों और क्षत्रियवर्ण छोड़कर वैश्य वर्ण धारण करो।’’
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सभी ने उनकी आज्ञा मान ली, लेकिन उनके हाथ से शस्त्र नहीं छूटे। फिर भगवान महेश के आदेश से उन्होंने सूर्यकुंड में स्नान कियां । कुंड के जल में सभी शस्त्र गल गए। तब से वह कुंड ‘लोहागल’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। जब कुंवर सहित सभी सेवकों को यह ज्ञात हुआ कि उनकी पत्निंयां क्षत्राणिंयां है, तो उन्होने उन्हे स्वीकार नहीं किया। यह देख पार्वती जी ने समझौता कराने के उदेश्य से कहा, ‘‘आप सब मेरी परिक्रमा करे। परिक्रमा करते समय जो स्त्री- पुरूष पति-पत्नि है, उनका गठबन्धन अपने आप हो जाऐगा।’’
माहेश्वरी शब्द के प्रत्येक अक्षर में गांठ इसी गठबंधन का प्रतीक है। इस दिन से विवाह के समय माहेश्वरी समाज में चार फेरे बाहर लिए जाते है जो इस घटना की याद दिलाते है। जिस दिन भगवान महेश ने वरदान दिया, उस दिन युधिष्ठिर संवत् 7, ज्येष्ठ शुक्ल नवमीं थी। इसलिए इस दिन महेश नवमी उत्सव मनाया जाता है। इससें महेश (शिव) का पूजन तथा रूद्राभिषेक बडे़ धूमधाम से होता हैं।