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भक्तियोग – जाने भक्ति योग क्या है, कितने प्रकार की होती है और संक्षिप्त सार

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भक्ति योग | Bhakti Yoga 

भक्ति (Bhakti Yoga) संस्कृत के मूल शब्द “भज” से निकला  है – जिसका अर्थ है प्रेममयी सेवा और संस्कृत में योग का अर्थ है “जोड़ना”।

भक्ति योग क्या है | What is Bhakti Yoga 

भक्ति योग (Bhakti Yoga in Hindi) का अर्थ है परमेश्वर से प्रेममयी सेवा के द्वारा  जुड़ना। प्रेम में स्वार्थ नहीं होता है । प्रेम में लोग बलिदान देते हैं । प्रेम में लोग त्याग करते हैं । प्रेम में उपहार उस वस्तु को देते  हैं जो अनमोल हो । अर्थात वह प्रेम जो अनमोल हो, जिसमें स्वार्थ नहीं हो उस निःस्वार्थ सेवा द्वारा परमेश्वर से जुड़ने का नाम भक्ति योग है । पराभक्ति ही भक्तियोग के अन्तर्गत आती है जिसमें मुक्ति को छोड़कर अन्य कोई अभिलाषा नहीं होती। गीता के अनुसार पराभक्ति तत्व ज्ञान की वह पराकाष्ठा  है जिसको प्राप्त होकर और कुछ भी जानना बांकी नहीं रह जाता ।

भक्तियोग में ईश्वर के किसी रूप की आराधना भी सम्मिलित है। ईश्वर सब जगह है। ईश्वर हमारे भीतर और हमारे चारों ओर निवास करता है। यह ऐसा है जैसे हम ईश्वर से एक उत्तम धागे से जुड़े हों – प्रेम का धागा। ईश्वर विश्व प्रेम है। प्रेम और दैवी अनुकम्पा हमारे चारों ओर है और हमारे माध्यम से बहती है, किन्तु हम इसके प्रति सचेत नहीं हैं। जिस क्षण यह चेतनता, यह दैवीय प्रेम अनुभव कर लिया जाता है उसी क्षण से व्यक्ति किसी अन्य वस्तु की चाहना ही नहीं करता। तब हम ईश्वर प्रेम का सच्चा अर्थ समझ जाते हैं।

भक्तिहीन व्यक्ति एक जलहीन मछली के समान, बिना पंख के पक्षी, बिना चन्द्रमा और तारों के रात्रि के समान है। सभी को प्रेम चाहिये। इसके माध्यम से हम वैसे ही सुरक्षित और सुखी अनुभव करते हैं जैसे एक बच्चा अपनी माँ की बाहों में या एक यात्री एक लम्बी कष्टदायी यात्रा की समाप्ति पर अनुभव करता है।

भक्ति के प्रकार – Types of Bhakti Yoga

  • अपरा भक्ति– अहम् भावपूर्ण प्रेम
  • परा भक्ति– विश्व प्रेम

भक्त उसके साथ जो भी घटित होता है, उसे वह ईश्वर के उपहार के रूप में स्वीकार करता है। कोई इच्छा या अपेक्षा नहीं होती, ईश्वर की इच्छा के समक्ष केवल पूर्ण समर्पण ही होता है। यह भक्त जीवनभर स्थिति को प्रारब्ध द्वारा उसके समक्ष प्रस्तुत वस्तु के रूप में ही स्वीकार करता है। इसमें कोई ना नुकर नहीं, उसकी एक मेव प्रार्थना है ‘ईश्वर तेरी इच्छा’।

सामान्य जीवन में भी आप जो  कुछ कार्य करते हैं वह अगर इस भावना से किए जाएँ कि वे सब परमेश्वर की प्रसन्नता के लिए हैं एवं उनके फलस्वरूप जो भी प्राप्त होगा वो उनको ही अर्पित करें तो यह भी भक्ति योग ही है ।

यदि कोई व्यक्ति मृत्यु से डरता है तो इसका अर्थ यह हुआ कि उसे अपने जीवन से प्रेम है । यदि कोई व्यक्ति अधिक स्वार्थी है तो इसका तात्पर्य यह है कि उसे स्वार्थ से प्रेम है । किसी व्यक्ति को अपनी पत्नी या पुत्र आदि से विशेष प्रेम हो सकता है । इस प्रकार के प्रेम से भय, घृणा अथवा शोक उत्पन्न होता है ।

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यदि यही प्रेम परमात्मा से हो जाय तो वह मुक्तिदाता बन जाता है । ज्यों-ज्यों ईश्वर से लगाव बढ़ता है, नश्वर सांसारिक वस्तुओं से लगाव कम होने लगता है । जब तक मनुष्य स्वार्थयुक्त उद्देश्य लेकर ईश्वर का ध्यान करता है तब तक वह भक्तियोग की परिधि में नहीं आता । पराभक्ति ही भक्तियोग के अन्तर्गत आती है जिसमें मुक्ति को छोड़कर अन्य कोई अभिलाषा नहीं होती । भक्तियोग शिक्षा देता है कि ईश्वर से, शुभ से प्रेम इसलिए करना चाहिए कि ऐसा करना अच्छी बात है, न कि स्वर्ग पाने के लिए अथवा सन्तति, सम्पत्ति या  अन्य किसी कामना की पूर्ति के लिए । वह यह सिखाता है कि प्रेम का सबसे बढ़ कर पुरस्कार प्रेम ही है, और स्वयं ईश्वर प्रेम स्वरूप है ।

भक्ति योग विष्णु पुराण के अनुसार – Bhakti Yoga as in Vishnu Puran

विष्णु पुराण(1-20-19) में भक्तियोग की सर्वोत्तम परिभाषा दी गयी है :-

या प्रीतिरविवेकानां विषयेष्वनपायिनी

त्वामनुस्मरत: सा मे हृदयान्मापसमर्पतु

‘‘हे ईश्वर! अज्ञानी जनों की जैसी गाढ़ी प्रीति इन्द्रियों के भोग के नाशवान् पदार्थों पर रहती है, उसी प्रकार की प्रीति मेरी तुझमें हो और तेरा स्मरण करते हुए मेरे हृदय से वह कभी दूर न होवे ।’’  भक्तियोग सभी प्रकार के संबोधनों द्वारा ईश्वर को अपने हृदय का भक्ति-अर्घ्य प्रदान करना सिखाता है- जैसे, सृष्टिकर्ता, पालनकर्ता, सर्वशक्तिमान्, सर्वव्यापी आदि । सबसे बढ़कर वाक्यांश जो ईश्वर का वर्णन कर सकता है, सबसे बढ़कर कल्पना जिसे मनुष्य का मन ईश्वर के बारे में ग्रहण कर सकता है,

वह यह है कि ‘ईश्वर प्रेम स्वरूप है’ । जहाँ कहीं प्रेम है, वह परमेश्वर ही है । जब पति पत्नी का चुम्बन करता है, तो वहाँ उस चुम्बन में वह ईश्वर है । जब माता बच्चे को दूध पिलाती है तो इस वात्सल्य में वह ईश्वर ही है । जब दो मित्र हाथ मिलाते हैं, तब वहाँ वह परमात्मा ही प्रेममय ईश्वर के रूप में विद्यमान है । मानव जाति की सहायता करने में भी ईश्वर के प्रति प्रेम प्रकट होता है । यही भक्तियोग की शिक्षा है ।

भक्तियोग भी आत्मसंयम, अहिंसा, ईमानदारी, निश्छलता आदि गुणों की अपेक्षा भक्त से करता है क्योंकि चित्त की निर्मलता के बिना नि:स्वार्थ प्रेम सम्भव ही नहीं है । प्रारम्भिक भक्ति के लिए ईश्वर के किसी स्वरूप की कल्पित प्रतिमा या मूर्ति (जैसे दुर्गा की मूर्ति, शिव की मूर्ति, राम की मूर्ति, कृष्ण की मूर्ति, गणेश की मूर्ति आदि) को श्रद्धा का आधार बनाया जाता है । किन्तु साधारण स्तर के लोगों को ही इसकी आवश्यकता पड़ती है ।

भक्ति योग कैसे करे | Bhakti Yoga Practices 

भक्ति सूत्रों में नारद मुनि (ऋषि) ने भक्तियोग के नौ तत्वों का वर्णन किया है:-

  1. सत्संग-अच्छा आध्यात्मिक साथ
  2. हरि कथा-ईश्वर के बारे में सुनना और पढऩा
  3. श्रद्धा-विश्वास
  4. ईश्वर भजन-ईश्वर के गुणगान करना
  5. मंत्र जप-ईश्वर के नामों का स्मरण
  6. शम दम-सांसारिक वस्तुओं के संबंध में इन्द्रियों पर नियंत्रण
  7. संतों का आदर-ईश्वर को समर्पित जीवन वाले व्यक्तियों के समक्ष सम्मान प्रगट करना।
  8. संतोष-संतुष्टि
  9. ईश्वर प्रणिधान-ईश्वर की शरण

भक्ति के बिना कोई आध्यात्मिक मार्ग नहीं है। यदि विद्यालय का एक छात्र अध्ययन के किसी विषय को नापसंद करता है, तो वह पाठ्यक्रम को मुश्किल से पूरा कर पाता है। इसी प्रकार हमारे अभ्यास के लिए जब प्रेम और निष्ठा है, हमारे मार्ग पर चलते रहने का दृढ़निश्चय और हमारे उद्देश्य के संबंध में सदैव मान्यता हो तभी हम सभी समस्याओं का समाधान करने के योग्य हो सकते हैं। हम सभी जीवधारियों के प्रति प्रेम और ईश्वर के प्रति निष्ठा के बिना ईश्वर का साहचर्य प्राप्त नहीं कर सकते।

भक्ति योग गीता के अनुसार PDf – Bhakti Yoga in Bhagavad Gita

हम सभी में प्रेम और भक्ति है, परन्तु सुप्त अवस्था में। और इस अवस्था से निकल कर परम पुरुषोत्तम भगवन की सेवा में लगने का एक सरल उपाय है। यह उपाय स्वयं भगवान श्री कृष्ण द्वारा ही भगवद-गीता में बताया गया है, इस सुप्तावस्था से पुनः प्रेम जागृत करने की प्रक्रिया न केवल शुद्धिकरण ही करती है अपितु आत्मसंतुष्टि भी प्रदान करती है। जप या कीर्तननृत्य और प्रसाद सेवन ये तीन क्रियाएँ इस प्रक्रिया के मुख्य अंग हैं ।

भगवान के शुद्ध नामों का जप या कीर्तन नित्य – “हरे कृष्ण हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे । हरे  राम हरे राम, राम राम हरे हरे ॥” द्वारा किया जा सकता है । जप – सामान्यतया जपमाला पर निर्धारित संख्या में किया जाता है, जबकि कीर्तन – कुछ लोगों के संग एकसाथ मिलकर वाद्य-यंत्रो को बजाकर किया जाता है। हरिनाम जप एवं कीर्तन से हम, अपने दर्पण रूपी चेतना पर जमी कई जन्मों की धूल को साफ़ कर सकते हैं ।

नृत्य भी हमारे प्रेममयी सेवा को प्राप्त करने एवं शुद्धिकरण का एक प्रमुख अंग है। यह बहुत ही अनुग्रहित भाव में भगवान के समक्ष किया जाता है। नृत्य हमारे सम्पूर्ण शरीर को भगवान के गुणगान में लगाता है।

प्रसाद-सेवन अर्थात भोजन जो सिर्फ भगवान के लिए पकाया और प्रेमपूर्वक अर्पित गया, उसे पाना। ऐसे भोजन को “प्रसाद” कहा जाता है और यह कर्म-रहित होने के कारण हमें जन्म-मृत्यु के पुनरावृत्त चक्र से बाहर निकालता है।

इन सब के अतिरिक्त सामान्य जीवन में भी हम कुछ कार्य करते हैं । परन्तु अगर इस भावना से कार्य किये जाएँ कि वे सब श्री भगवान की प्रसन्नता के लिए हैं एवं उनके फलस्वरूप जो भी प्राप्त होगा वो उनको ही अर्पित करें तो ही भक्ति योग पूर्णतया सम्पूर्ण है |

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