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भारत हजारों वर्षों से आध्यात्मिक जगद्गुरु क्यों रहा हैं ?

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हमारा देश भारत हजारों वर्षों से आध्यात्मिक जगद्गुरु क्यों रहा है? चार धामों की अवधारणा भारत में ही क्यों है? क्यों नौ बार इस भूमि पर भगवान ने जन्म लिया? सैकड़ों ऋषि-मुनियों ने क्यों वेद-पुराणों की रचना यहीं पर की? और क्यों हजारों साधु-संतों ने अपनी वाणी से इस देश की धरती को गुंजायमान किया? यह सबकुछ क्या मात्र एक संयोग हैं या फिर इनके पीछे कोई वैज्ञानिक कारण हैं? यह एक विचारणीय विषय है।


अध्ययन करने से पता चलता है कि यह कोई संयोग नहीं है, बल्कि इसके पीछे कई वैज्ञानिक कारण हैं। सबसे मुख्य कारण भारत की भौगोलिक स्थिति है। भारत पृथ्वी के उस विशिष्ट भू-भाग पर स्थित है जहाँ सूर्य और बृहस्पति ग्रह का विशेष प्रभाव पड़ता है। खगोल व ज्योतिष शास्त्र के अनुसार सूर्य और बृहस्पति मनुष्य की आध्यात्मिकता के कारक माने जाते हैं। सूर्य व बृहस्पति से आनेवाली विशेष तरंगों का विकिरण भारत के भूभाग को गहन रूप से प्रभावित करता है। इस कारण भारत में आध्यात्मिकता का वातावरण बना रहता है। ऐसे में प्रेम, दया, सहिष्णुता यदि भारत की भूमि में कूट-कूटकर भरी है तो आश्चर्य कैसा?

विश्व के अधिकतर देशों में तीन या चार ऋतुएँ होती हैं, पर भारत एक ऐसा देश है जहाँ छह ऋतुएँ हैं-ग्रीष्म, वर्षा, शरद, शीत, वसंत व पतझड़। संभवतः इतनी ऋतुएँ अन्य किसी देश में नहीं होतीं। (पाकिस्तान, बंगलादेश भी कभी इसी भूभाग के अंग थे।) ऋतुओं का सीधा संबंध सूर्य और पृथ्वी की भौगोलिक स्थिति से होता है। यह तथ्य वैज्ञानिक भी मानते हैं। ऋतु परिवर्तन का प्रभाव मनुष्य के मन, मस्तिष्क व शरीर तीनों पर पड़ता है। ऋतु परिवर्तन के साथ प्रकृति अपनी लय बदलती है और हमारे ऋषि-मुनियों ने प्रकृति की परिवर्तित लय से कैसे अपने तन-मन की लय को जोड़कर रखना है, यह विज्ञान जान लिया था।

वे जानते थे कि ऋतु बदलने के साथ मनुष्य के शरीर का रसायन भी बदल जाता है। इसलिए उन्होंने ऋतु परिवर्तन के साथ कई पर्व और त्योहार जोड़ दिए, जिनके दौरान मनुष्य उपवास रखकर अपने शरीर के रसायन पर नियंत्रण रखता था। यही नहीं, उपवास के बाद क्या खाना चाहिए, इसका भी उन्होंने प्रावधान किया। इन सबके पीछे वैज्ञानिक तथ्य यह था कि मनुष्य अपने शरीर की लय को प्रकृति की लय से जोड़कर रखे ध्यान देनेवाली बात है कि हिंदू पर्व और त्योहार प्रायः विशेष दिनों पूर्णिमा, अमावस्या या शुक्ल पक्ष के दौरान ही मनाए जाते हैं।

हमारे ऋषि-मुनियों ने एकादशी के दिन उपवास रखने पर बहुत जोर दिया है। इसके पीछे एक बड़ा वैज्ञानिक कारण है। मनुष्य के शरीर में एक महीने के दौरान लगभग दो बार उसका रसायन प्रभावित होता है। दस दिन भोजन करने से जो पौष्टिक रस शरीर में बनता है, एकादशी के दिन मानव शरीर उसे अपने अलग-अलग अंगों को बाँटता है। शरीर उस रस को सुचारू रूप से बाँट सके, इसलिए एकादशी के दिन उपवास की मान्यता है। शरीर का इतना बारीक अध्ययन अभी तक आधुनिक वैज्ञानिकों ने नहीं किया है, इसलिए वे उपवास के पीछे जो वैज्ञानिक गहराई है, उसे नहीं समझते और इस प्रकार की बातों को ‘व्यर्थ’ की संज्ञा दे देते हैं।

प्राचीन काल में ऋतु-फल के सेवन पर सनातन पद्धति में बहुत बल दिया जाता था। इसके पीछे का विज्ञान यह था कि प्रकृति ऋतु परिवर्तन के समय जो फल देती है, उसमें पैदा होनेवाले फल व सब्जियों में विशेष प्रकार का रसायन होता है, जो वे सूर्य से लेते हैं, वह रसायन मनुष्य के शरीर और स्वास्थ्य के लिए बहुत लाभदायक एवं महत्त्वपूर्ण होता है ऋतु काल में यदि कोई मनुष्य पंद्रह दिन लगातार १०-१२ जामुन का सेवन करे तो उसके अग्न्याशय को शक्ति मिलती है और वह डायबिटीज का रोगी नहीं बनेगा। इसी प्रकार ऋतुकाल में यदि कोई व्यक्ति तीस दिन पीपल के वृक्ष के ५ फल नित्य खाए तो उसकी स्मरण शक्ति तीव्र हो जाती है।

ये सब बातें अंधविश्वास नहीं अपितु वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित हैं। आयुर्वेद यह परीक्षण हजारों वर्ष पूर्व कर चुका था। खेद की बात तो यह है कि आजकल तो ऋतु-फल का कोई अर्थ ही नहीं रह गया है, क्योंकि कृत्रिम खाद व इंजेक्शनों द्वारा पूरे साल मौसम-बेमौसम की सब प्रकार की फल-सब्जियाँ उपलब्ध रहती हैं। पहले प्राकृतिक खाद का इस्तेमाल होता था और ऋऋतु व प्रकृति दोनों का स्वाभाविक प्रभाव फल-सब्जियों पर पड़ता था। इसलिए उनके सेवन से ही लाभ होता था। यह एक वैज्ञानिक सत्य है, कोई अंधविश्वास नहीं। यही कारण है कि फिर से आर्गेनिक फल-सब्जियाँ उगाई जाने लगी हैं, पर वे इतनी महंगी हैं कि आम आदमी की पहुँच से दूर हैं।

ऋतु परिवर्तन के समय मनुष्य के शरीर के रसायन बदलते हैं, साथ ही उसके शरीर में स्थित विशेष सूक्ष्म शरीर के चक्रों पर भी असर होता है। इसलिए ऋषि-मुनि उन दिनों उसी चक्र पर अधिक ध्यान देते थे जिस पर ऋतु विशेष का प्रभाव पड़ता था और वे इस प्रकार अपना आध्यात्मिक विकास करते थे। इस प्रकार भारत की छह ऋतुएँ हमारे आध्यात्मिक विकास में सहयोगी रही हैं।


भारत की आध्यात्मिकता के पीछे एक और बड़ा कारण यह है कि यहाँ दो महत्त्वपूर्ण पर्वत श्रृंखलाएँ हैं-एक अरावली और दूसरी हिमालय यह एक अनुमोदित सत्य है कि अरावली विश्व की प्राचीनतम पर्वत शृंखला है और हिमालय विश्व की सबसे तरुण। यह कोई मात्र संयोग नहीं है कि दुनिया की प्राचीनतम व तरुण दोनों शृंखलाएँ भारत में ही हैं। इसके पीछे भी प्रकृति का अपना प्रयोजन है।

अरावली संसार की सबसे परिपक्व पर्वत श्रृंखला होने के कारण प्रकृति के अग्नि तत्त्व’ का प्रतिनिधित्व करती है, जबकि ‘हिमालय’ प्रकृति के जल-तत्त्व का द्योतक है। मनुष्य के शरीर के लिए ये दोनों तत्त्व अति आवश्यक हैं। दोनों पर्वत श्रृंखलाओं ने भारत की संस्कृति को पनपने में अपना विशेष योगदान दिया है। जिन लोगों ने अपने आध्यात्मिक विकास के लिए जल तत्त्व को प्रधानता दो, वे जीवन के रहस्यों की खोज में हिमालय की गोद में चले गए और वहाँ प्रकृति के रहस्यों को खोजा व जाना। जिन जिज्ञासुओं ने अग्नि तत्त्व को प्रधानता दो, वे अरावली के आँचल में चले गए और तपस्या की हिमालय के मनीषी ऋषि कहलाए और अरावली के मुनि पर दोनों ने ही जीवन के रहस्यों का विज्ञान खोजा और जाना।

अरावली और हिमालय के अतिरिक्त भारत की सप्त नदियों ने यहाँ के जनमानस को बड़ा प्रभावित किया है। इन सप्त नदियों में अलग-अलग देवताओं के तत्त्व प्रधान हैं, जैसे- गंगा में शिव-तत्त्व, गोदावरी में राम, यमुना में कृष्ण, सिंधु में हनुमान, सरस्वती में गणेश, कावेरी में दत्तात्रय और नर्मदा में माँ दुर्गा के तत्त्व विद्यमान हैं। सप्त नदियों में गंगा सबसे विशिष्ट है, जिसकी महत्ता विस्तार से पुस्तक में आगे वर्णन की गई है। एक और ध्यान देने योग्य बात यह है कि सूर्य और चंद्र ग्रहण के समय इन नदियों में स्नान करना आध्यात्मिक दृष्टि से उत्तम माना गया है, क्योंकि उस समय सूर्य व चंद्रमा का पृथ्वी पर विशेष गुरुत्व आकर्षण होता है हिंदू मनीषियों ने उस समय विशेष मंत्रों का जाप भी बताया है।

भारत के कुछ पेड़-पौधों ने भी भारत की आध्यात्मिकता में बड़ा योगदान दिया है। तुलसी का पौधा भारत के घर आँगन का एक अभिन्न अंग रहा है। वैज्ञानिक भी अब इस तथ्य को स्वीकारते हैं कि तुलसी एक बहुत ही संवेदनशील पौधा है। यदि तुलसी के आस-पास थोड़ी सी भी नकारात्मक या तीव्र गंध हो तो यह पौधा मुरझा जाता है। जिन घरों में तुलसी का पौधा नहीं लगता या पनपता या मुरझा जाता है तो समझ लीजिए कि उस घर का वातावरण दूषित है। इस दृष्टि से तुलसी का पौधा घर की आध्यात्मिकता का मापदंड भी है।

नीम का वृक्ष भी घर के आस-पास की नकारात्मकता को दूर करने में सहायक होता है। पीपल के वृक्ष की तो बात ही निराली है। यह वृक्ष भारतीय संस्कृति और इतिहास दोनों का अभिन्न अंग है। संभवतः इसीलिए भारत के सर्वोत्तम पुरस्कार ‘भारत रत्न’ को काँस्य से बने पीपल के पत्ते के रूप में प्रदान किया जाता है। यह एक वैज्ञानिक सत्य है कि वातावरण की शुद्धि के लिए ऑक्सीजन बहुत आवश्यक है, पर शायद हममें से कई यह नहीं जानते कि पीपल एक ऐसा वृक्ष है जो चौबीसों घंटे प्राणदायी ऑक्सीजन छोड़ता है। संसार की समस्त वनस्पतियों की बात करें तो वृक्षों में पीपल और पौधों में केवल तुलसी ही ऐसे हैं जो रात-दिन ऑक्सीजन देते हैं।

भारत के प्राचीन मनीषियों ने इसीलिए इन दोनों को चुनकर समाज का अंग बनाया। यह चयन कोई संयोग नहीं था, अपितु वैज्ञानिक कारणों से उन्होंने ऐसा किया। यह बात अलग है कि आज हम इनके महत्त्व को केवल अंधविश्वास व दकियानूसी धारणा कहते हैं। इन दोनों वनस्पतियों का आध्यात्मिक दृष्टि से भी काफी महत्त्व है। तुलसी के सतत उपयोग और पीपल के आस-पास सतत रहने तथा उसके स्पर्श से मनुष्य के सात्त्विक गुणों का विकास होता है और शारीरिक व मानसिक क्षमता भी बढ़ती है। पीपल व तुलसी दोनों के महत्त्व को पुस्तक में अलग से आगे वर्णित किया गया है।

इस प्रकार भारत की आध्यात्मिकता के पीछे उसकी भौगोलिक विशिष्ट स्थिति अरावली व हिमालय पर्वत शृंखलाओं, सप्त नदियों, छह ऋतुओं तथा विशेष वनस्पतियों का बहुत बड़ा हाथ है। इन्हीं कारणों से भारत में आध्यात्मिकता सदा से बनी रही है। वर्तमान समय में भी अन्य देशों की अपेक्षा भारत में आध्यात्मिकता अधिक है। ऐसे में यदि अमेरिका, इंग्लैंड, जर्मनी, जापान आदि से लोग शांति की खोज में भारत आ रहे है तो आश्चर्य कसा?

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