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बृहदारण्यकोपनिषद – प्रलय के बाद ‘सृष्टि की उत्पत्ति’ का वर्णन करता उपनिषद

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बृहदारण्यकोपनिषद – Brihadaranyaka Upanishad

बृहदारण्यक उपनिषद (Brihadaranyaka Upanishad Pdf) शुक्ल यजुर्वेद की काण्व-शाखा के अन्तर्गत आता है। बृहत (बड़ा) और आरण्यक (वन) दो शब्दों के मेल से इसका यह ‘बृहदारण्यक’ नाम पड़ा है। इसमें छह अध्याय हैं और प्रत्येक अध्याय में अनेक ‘ब्राह्मण’ हैं। बृहदारण्यक उपनिषदों पर भर्तु प्रपंच ने भाष्य रचना की थी।

प्रथम अध्याय

इसमें छह ब्राह्मण हैं।

  • प्रथम ब्राह्मण में, सृष्टि-रूप यज्ञ’ को अश्वमेध यज्ञ के विराट अश्व के समान प्रस्तुत किया गया है। यह अत्यन्त प्रतीकात्मक और रहस्यात्मक है। इसमें प्रमुख रूप से विराट प्रकृति की उपासना द्वारा ‘ब्रह्म’ की उपासना की गयी है।
  • दूसरे ब्राह्मण में, प्रलय के बाद ‘सृष्टि की उत्पत्ति’ का वर्णन है।
  • तीसरे ब्राह्मण में, देवताओं और असुरों के ‘प्राण की महिमा’ और उसके भेद स्पष्ट किये गये हैं।
  • चौथे ब्राह्मण में, ‘ब्रह्म को सर्वरूप’ स्वीकार किया गया है और चारों वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) के विकास क्रम को प्रस्तुत किया गया है।
  • पांचवें ब्राह्मण में, सात प्रकार के अन्नों की उत्पत्ति का उल्लेख है और सम्पूर्ण सृष्टि को ‘मन, वाणी और प्राण’ के रूप में विभाजित किया गया है।
  • छठे ब्राह्मण में, ‘नाम, रूप और कर्म’ की चर्चा की गयी है।

प्रथम ब्राह्मण

इस ब्राह्मण में प्रकृति के विराट रूप की तुलना ‘अश्वमेध यज्ञ’ के घोड़े से की गयी है। उसके विविध अंगों में सृष्टि के विविध स्वरूपों की कल्पना की गयी है। ‘अश्व’ शब्द शक्ति और गति का परिचायक हैं। यह सम्पूर्ण ब्राह्मण भी निरन्तर सतत गतिशील है। इस प्रकार वैदिक ऋषि अश्वमेध के अश्व के माध्यम से सम्पूर्ण सृष्टि को उस अज्ञात शक्ति द्वारा सतत गतिशील सिद्ध करते हैं। ‘अश्व’ उस राजा की शक्ति का प्रतीक है, जो चक्रवर्ती कहलाना चाहता हैं इसी भांति यह सम्पूर्ण सृष्टि उस परब्रह्म की शक्ति का प्रतीक है।

जिस प्रकार अश्वमेध यज्ञ में ‘अश्व’ की पूजा की जाती है और बाद में उसकी बलि चढ़ा दी जाती है, उसी प्रकार साधक इस सृष्टि की उपासना करता है, किन्तु अन्त में इस सृष्टि को नश्वर जानकर छोड़ देता है और इससे परे उस ‘ब्रह्म’ को ही अनुभव करता है, जो इस सृष्टि का नियन्ता है। जैसे लोकिक जगत में सभी ‘अश्व’ से परे उस ‘राजा’ को देखते हैं, जिसके यज्ञ का वह घोड़ा है तथा ‘राजा’ ही प्रमुख होता है, वैसे ही अध्यात्मिक जगत में वह ‘ब्रह्म’ है। उदाहरण के रूप में ऋषियों की इस कल्पना का अवलोकन करें- यह यज्ञीय अश्व या विश्वव्यापी शक्ति प्रवाह का सिर ‘उषाकाल’ है।

आदित्य (सूर्य) नेत्र हैं, वायु प्राण है, खुला मुख ‘आत्मा’ है, अन्तरिक्ष उदर है, दिन और रात्रि दोनों पैर हैं, नक्षत्र समूह अस्थियां हैं और आकाश मांस है। मेघों का गर्जन उसकी अंगड़ाई है और जल-वर्षा उसका मूत्र है और शब्द घोष (हिनहिनाना) वाणी है। वास्तव में ये उपमाएं उस विराट सृष्टि का केवल बोध कराती हैं। दूसरे शब्दों में ऋषिगण मूर्त प्रतीकों के द्वारा अमूर्त ब्रह्म की विराट संचेतना का दिग्दर्शन कराते हैं। वही उपासना के योग्य है।

दूसरा ब्राह्मण

इसमें सृष्टि के जन्म की अद्भुत कल्पना की गयी है। कोई नहीं जानता कि सृष्टि का निर्माण और विकास कैसे हुआ, किन्तु वैदिक ऋषियों ने अत्यन्त वैज्ञानिक ढंग से सृष्टि के विकास-क्रम को प्रस्तुत किया है। उनका कहना है कि सृष्टि के प्रारम्भ में कुछ नहीं था। केवल एक ‘सत्’ ही था, जो प्रलय-रूपी मृत्यु से ढका हुआ था। तब उसने संकल्प किया कि उसे पुन: उदित होना है। उस संकल्प के द्वारा आप: (जल) का प्रादुर्भाव हुआ। इस जल के ऊपर स्थूल कण एकत्र हो जाने से पृथ्वी की उत्पत्ति हुई।

उसके उपरान्त सृष्टि के सृजनकर्ता के श्रम-स्वरूप उसका तेज़ अग्नि के रूप में प्रकट हुआ। तदुपरान्त परमेश्वर ने अपने अग्नि-रूप के तृतीयांश को सूर्य, वायु और अग्नि तीन भागों में विभक्त कर दिया। पूर्व दिशा उसका शीर्ष भाग (सिर), उत्तर-दक्षिण दिशाएं उसका पार्श्व भाग औ द्युलोक उसका पृष्ठ भाग, अन्तरिक्ष उदर, पृथ्वी वक्षस्थल और अग्नि तत्त्व उस विराट पुरुष की आत्मा बने। यही प्राणतत्त्व कहलाया।

इसके बाद इस विराट पुरुष की इच्छा हुई कि अन्य शरीर उत्पन्न हों। तब मिथुनात्मक सृष्टि का निर्माण प्रारम्भ हुआ। नर-नारी, पशु और पक्षियों तथा जलचरों में नर-मादा के युग्म बने और उनके मिथुन-संयोग से जीवन का क्रमिक विकास हुआ। फिर इसके पालन के लिए अन्न से मन और मन से वाणी का सृजन हुआ। वाणी से ऋक्, यजु, साम का सृजन हुआ।

तीसरा ब्राह्मण

यहाँ प्रजापति-पुत्रों के दो वर्गों का उल्लेख है। एक देवगण, दूसरे असुर। देवगण संख्या में कम थे और असुरगण अधिक। दोनों में प्रतिस्पर्द्धा होने लगी। देवताओं ने निश्चय किया कि वे यज्ञ में ‘उद्गीथ’ (सामूहिक मन्त्रगान) द्वारा असुरों पर हावी होने का प्रयत्न करें। ऐसा विचार करके उन्होंने, पहले वाक् से, फिर प्राण, चक्षु, कान, मन, मुख प्राण आदि से उद्गीथ पाठ करने का निवेदन किया। सभी ने देवताओं के लिए ‘उद्गीथ’ किया, परन्तु हर बार असुरगणों ने उन्हें पाप से मुक्त कर दिया।

इस कारण वाणी, प्राण-शक्ति, चक्षु, कान या मन दूषित हो गये, किन्तु मुख में निवास करने वाले प्राण को वे दूषित नहीं कर सके। वहां असुरगण पूरी तरह पराजित हो गये। इस मुख में समस्त अंगों का रस होने के कारण इसे ‘आंगिरस’ भी कहा जाता है। इस प्राण-रूप देवता ने इन्द्रियों के समस्त पापों को नष्ट करके उन्हें शरीर की सीमा से बाहर कर दिया। तब उस प्राणदेवता ने वाग्देवता (वाणी), चक्षु, घ्राण-शक्ति, श्रवण-शक्ति, मन-शक्ति आदि से मृत्यु-भय को दूर कर दिया और फिर प्राण-शक्ति को भी मृत्यु-भय से दूर कर दिया। समस्त देवगुण प्राण में प्रवेश कर गये और अभय हो गये।

यह प्राण ही ‘साम’ है। वाक् ही ‘सा’ और प्राण ही ‘अम’ है। दोनों के सहयोग से ‘साम’ बनता है, अर्थात यदि प्राणतत्त्व से गायन किया जाये, तो वह जीवन-साधना को सफल बनाता है। वाणी और हृदयगत भावों का संयोग सामगान को अमर बना देता है। ऐसा गान करने वाला धन-धान्य व ऐश्वर्य से सम्पन्न होता है। उसे प्रतिष्ठा प्राप्त होती है।

चौथा ब्राह्मण

यहाँ ‘ब्रह्म’ की एकांगीता पर प्रकाश डाला गया है। ब्रह्म के सिवा सृष्टि में कोई दूसरा नहीं है। उसके लिए यही कहा जा सकता है- ‘अहस्मि, ‘अर्थात मैं हूं। इसीलिए ब्रह्म को अहम संज्ञक कहा जाता है। एकाकी होने के कारण वह रमा नहीं। तब उसने किसी अन्य की आकांक्षा की। तब उसने अपने को नारी के रूप में विभक्त कर दिया। ‘अर्द्धनारीश्वर’ की कल्पना इसीलिए की गयी है। पुरुष और स्त्री के मिलन से मानव-जीवन का विकास हुआ। प्रथम चरण में प्रकृति संकल्प करके सव्यं को जिस-जिस पशु-पक्षी आदि जीवों के रूप में ढालती गयी, उसका वैसा-वैसा रूप बनता गया और उसी के अनुसार उनके युग्म बने और मैथुनी सृष्टि से जीवन के विविध रूपों का जन्म हुआ।

सबसे पहले ब्रह्म ‘ब्राह्मण’ वर्ण में था। पुन: उसने अपनी रक्षा के लिए क्षत्रिय वर्ण का सृजन किया। फिर उसने वैश्य वर्ण का सृजन किया और अन्त में शूद्र वर्ण का सृजन किया और उन्हीं की प्रवृत्तियों के अनुसार उनके कार्यों का विभाजन किया। कर्म का विस्तार होने के उपरान्त ‘धर्म’ की उत्पत्ति की। धर्म से श्रेष्ठ कुछ भी नहीं हे। धर्म की सत्या है। इसी ने ‘आत्मा’ से परिचय करायां यह ‘आत्मा’ ही समस्त जीवों को आश्रय प्रदाता है। यज्ञ द्वारा इसी ‘आत्माय को प्रसन्न करने से देवलोक की प्राप्ति होती है।

पांचवां ब्राह्मण

परमापिता ने सृष्टि का सृजन करके क्षुधा-तृप्ति के लिए चार प्रकार के अन्नों का सृजन किया। उनमें एक प्रकार का अन्न सभी के लिए, दूसरे प्रकार का अन्न देवताओं के लिए, तीसरे प्रकार का अन्न अपने लिए तथा चौथे प्रकार का पशुओं के लिए वितरित कर दिया। धरती से उत्पन्न अन्न सभी के लिए है। उसे सभी को समान रूप से उपभोग करने का अधिकार है। हवन द्वारा दया जाने अन्न देवताओं के लिए है। पशुओं को दिया जाने वाला खाद्यान्न दूध उत्पन्न करता है। यह दूध सभी के पीने योग्य हे। शीघ्र उत्पन्न हुए बचच् को स्तनपान से दूध ही दिया जाता है।

कहा गया कि एक वर्ष तक दूध से निरन्तर अग्निहोत्र करने पर मृत्यु भी वश में हो जाती हे। उस पुरुष ने तीन अन्नों का चयन अपने लिए किया। ये तीन अन्न-‘मन, ‘वाणी’ और ‘प्राण’ हैं वाणी द्वारा पृथ्वीलोक को, मन द्वारा अन्तरिक्षलोक को और प्राण द्वारा स्वर्गलोक को पाया जा सकता है। वाणी ॠग्वेद, मन यजुर्वेद और प्राण सामवेद है। जो कुछ भी जानने योग्य है, वह मन का स्वरूप है। वाणी ज्ञान-स्वरूप होकर जीवात्मा की रक्षा करती है और जो कुछ अनजाना है, वह प्राण-स्वरूप है। इस विश्व में जो कुछ भी स्वाध्याय या ज्ञान है, वह सब ‘ब्रह्म’ से ही एकीकृत है। वस्तुत: यह सूर्य निश्चित रूप से प्राण से ही उदित होता है और प्राण में ही समा जाता है।

छठा ब्राह्मण

इस संसार में जो कुछ भी है, वह नाम, रूप और कर्म, इन तीनों का ही समुदाय है। इन नामों का उपादान ‘वाणी’ हैं। समस्त नामों की उत्पत्ति इस वाणी द्वारा ही होती है। समस्त रूपों का उपादान ‘चक्षु’ है। समस्त सूर्य इस चक्षु से ही उत्पन्न होते हैं। समस्त रूपों को धारण करने से चक्षु ही इन रूपों का प्राण है, ‘ब्रह्म’ है। समस्त कर्मों का उपादान यह ‘आत्मा’ है। समस्त कर्म शरीर से ही होते हैं और उसकी प्रेरणा शरीर में स्थित यह आत्मा ही देती है। यह ‘आत्मा’ ही सब कर्मों का ‘ब्रह्म’ है। आत्मा द्वारा ही नाम, रूप और कर्म उत्पन्न हुए हैं। अत: ये तीनों अलग होते हुए भी एक आत्मा ही हैं। यह आत्मा सत्य से आच्छादित है। यही अमृत है। प्राण ही अमृत-स्वरूप है। नाम और रूप ही सत्य हैं। अमृत और सत्य से ही प्राण आच्छन्न है, ढका हुआ है, अज्ञात है।

दूसरा अध्याय

दूसरे अध्याय में भी छह ब्राह्मण हैं। प्रथम ब्राह्मण में डींग हांकने वाले, अर्थात बहुत बढ़-चढ़कर बोलने वाले गार्ग्य बालाकि ऋषि एवं विद्वान राजा अजातशत्रु के संवादों द्वारा ‘ब्रह्म’ व ‘आत्मतत्त्व’ को स्पष्ट किया गया है। दूसरे और तीसरे ब्राह्मण में ‘प्राणोपासना’ तथा ब्रह्म के दो मूर्त्त-अमूर्त्त रूपों का वर्णन किया गया है। इन्हें ‘साकार’ और ‘निराकार’ ब्रह्म भी कहा गया है। चौथे ब्राह्मण में याज्ञवल्क्य-मैत्रेयी संवाद हैं। पांचवें और छठे ब्राह्मण में ‘मधुविद्या’ औ उसकी परम्परा का वर्णन है।

प्रथम ब्राह्मण

इस ब्राह्मण में ‘ब्रह्मज्ञान’ का उपदेश देने एक बार गर्ग गोत्रीय बालाकि नामक ऋषि वेद प्रवक्ता काशी नरेश अजातशत्रु के दरबार में पहुंचते हैं। वहां वे अहंकारपूर्ण वाणी में ‘ब्रह्मज्ञान’ का उपदेश देने की बात करते हैं इस पर विद्वान् अजातशत्रु बदले में उन्हें एक सहस्त्र गौएं प्रदान करने की बात करते हैं, परन्तु बालाकि मुनि अजातशत्रु को सन्तुष्ट नहीं कर पाते।

दूसरा ब्राह्मण

यहाँ विराट ‘ब्रह्माण्ड’ और ‘मानव’ की समानता का बोध कराया गया है। जो ब्राह्मण में है, वही मानव-शरीर में विद्यमान है। कहा भी है- यद् पिण्डे तत्त्ब्रह्माण्डे, अर्थात जो कुछ भी स्थूल और सूक्ष्म रूप से इस शरीर में विद्यमान है, वही इस विराट ब्रह्माण्ड में स्थित है। वास्तव में इस विशाल सृष्टि का अतिसूक्ष्म रूप परमात्मा ने इस मानव-शरीर में स्थापित किया है और वह स्वयं भी इस शरीर में प्राण-शक्ति के रूप में विराजमान है।

इस ब्राह्मण के प्रारम्भ में ही कहा गया है कि जिसने आधान (आधार), प्रत्याधान (शीर्ष), स्थूणा (खूंटा, अर्थात अन्न और जल से प्राप्त होने वाली जीवनी-शक्ति) और दाम (बांधने की रस्सी, अर्थात वह नाल जिससे शिशु माता के साथ जुड़ा रहता है) को समझ लिया, वह परमज्ञान को प्राप्त कर लेता है। यहाँ शिशु के रूपक द्वारा ‘प्राण’ को शिशु का रूप बताया गया है। यह शिशु अथवा ‘प्राण’ मानव-शरीर का आधार हैं ‘शीर्ष’, अर्थात पांचों ज्ञानेन्द्रियों- आंख, कान, नाक, जिह्वा और मन-प्रत्याधान हैं। श्वास की स्थूणा है और दाम ‘अन्न’ है।

प्राणतत्त्व का इस शरीर से गहरा सम्बन्ध है। इसके बिना शरीर की सक्रियता अथवा गतिशीलता की कल्पना ही नहीं की जा सकतीं इसीलिए इसे शरीर का आधार माना गया है। ‘शीर्ष’ ही समस्त ज्ञानेन्द्रियों का नियन्त्रण करता है और ‘श्वास’ ही प्राण की स्थूणा शक्ति है। प्राण का आधार ‘अन्न’ है। शिशु की ऊपरी पलक ‘द्युलोक’ है और निचली पलक ‘पृथ्वीलोक’ है। पलकों का झपकना रात और दिन है।

आंखों के लाल डोरे रुद्र अथवा अग्नितत्त्व है। नेत्रों का गीलापन जलतत्त्व है, सफ़ेद भाग आकाश है, काली पुतली पृथ्वी-तत्त्व है और पुतली के मध्य स्थित तारा सूर्य है, आंखों के छिद्र वायुतत्त्व हैं। इस रहस्य को समझने वाला साधक जीवन में कभी अभावग्रस्त नहीं होता। हृदय-रूपी आकाश या प्राण-रूपी तट पर ‘सप्त ऋषि’ विद्यमान हैं दो कान, दो नेत्र, दो नासिका छिद्र और एक रसना, ये सात ऋषि हैं। इनके साथ संवाद करने वाली आठवीं ‘वाणी’ है। ये दोनों कान गौतम और भारद्वाज ऋषि हैं ये दोनों नेत्र ही विश्वामित्र और जमदग्नि ऋषि हैं, दोनों नासिका छिद्र वसिष्ठ और कश्यप हैं और वाक् ही सातवें अत्रि ऋषि हैं। जो ऐसा जानता है, वह समस्त अन्न भोगों का स्वामी होता है।

तीसरा ब्राह्मण

इस ब्राह्मण में ‘ब्रह्म’ कें दो रूपों-‘मूर्तय और ‘अमूर्त,’ अर्थात ‘व्यक्त’ और ‘अव्यक्त’ स्वरूपों का वर्णन किया गया है। जो मूर्त या व्यक्त है, वह स्थिर, जड़ और नाशवान है, मारणधर्मा है, किन्तु जो अमूर्त या अव्यक्त है, वह सूक्ष्म, अविनाशी और सतत गतिशील है। आदित्य मण्डल में जो विशिष्ट तेजस्-स्वरूप पुरुष है, वह अमर्त्य और अव्यक्त भूतों का सार-रूप है। वायु और अन्तरिक्ष भी अव्यक्त और अमर्त्य हैं।

वे निरन्तर गतिशील हैं। मानव-शरीर में आकाश और प्राणतत्त्व से भिन्न जो पृथ्वी, जल, अग्नि का अंश विद्यमान है, वह मूर्त और मरणधर्मा है। नेत्र इस सत् का सार-रूप है। ‘ब्रह्म’ के लिए सर्वोत्तम उपदेश ‘नेति-नेति’ है, अर्थात उस परब्रह्म के यथार्थ रूप को पूर्ण रूप से कोई भी आज तक नहीं जान सका। उसे ‘सत्य’ नाम से जाना जाता हैं यह प्राण ही निश्चय रूप से ‘सत्य’ है और वही ‘ब्रह्म’ का सूक्ष्म रूप हैं इसी में समस्त ब्रह्माण्ड समाया हुआ है।

चौथा ब्राह्मण

इस ब्राह्मण में, महर्षि याज्ञवल्क्य व उनकी धर्मपत्नी मैत्रेयी में ‘आत्मतत्त्व’ को लेकर संवाद है। एक बार महर्षि याज्ञवल्क्य ने गृहस्थ आश्रम छोड़कर वानप्रस्थ आश्रम में जाने की इच्छा व्यक्त करते हुए अपनी पत्नी से कहा कि वे अपना सब कुछ उसमें और अपनी दूसरी पत्नी कात्यायनी में बांट देना चाहते हैं। इस पर मैत्रेयी ने उनसे पूछा कि क्या इस धन-सम्पत्ति से अमृत्व की आशा की जा सकत है? क्या वे उसे अमृत्व-प्राप्ति का उपाय बतायेंगे?

इस पर महर्षि याज्ञवल्क्य ने कहा-‘हे देवी! धन-सम्पत्ति से अमृत्व प्राप्त नहीं किया जा सकता। अमृत्व के लिए आत्मज्ञान होना अनिवार्य है; क्योंकि आत्मा द्वारा ही आत्मा को ग्रहण किया जा सकता है।’उन्होंने कहा-‘हे मैत्रेयी! पति की आकांक्षा-पूर्ति के लिए, पति को पत्नी प्रिय होती है। इसी प्रकार पिता की आकांक्षा के लिए पुत्रों की, अपने स्वार्थ के लिए धन की, ज्ञान की, शक्ति की, देवताओं की, लोकों, की और परिजनों की आवश्यकता होती है। इसी प्रकार, ‘आत्म-दर्शन’ के लिए श्रवण, मनन और ज्ञान की आवश्यकता होती है। कोई किसी को आत्म-दर्शन नहीं करा सकता। इसका अनुभव स्वयं ही अपनी आत्मा में करना होता है।’

उन्होंने अनेक दृष्टान्त देकर इसे समझाया-‘हे देवी! जिस प्रकार ‘जल’ का आश्रय समुद्र है, ‘स्पर्श’ का आश्रय त्वचा है, ‘गन्ध’ का आश्रय नासिका है, ‘रस’ का आश्रय जिह्वा है, ‘रूपों’ का आश्रय चक्षु हैं, ‘शब्द’ का आश्रय श्रोत्र (कान) हैं, सभी ‘संकल्पों’ का आश्रय मन है, ‘विद्याओं का आश्रय हृदय है, ‘कर्मों’ का आश्रय हाथ हैं, समस्त ‘आनन्द’ का आश्रय उपस्थ (इन्द्री) है, ‘विसर्जन’ का आश्रय पायु (गुदा) है, समस्त ‘मार्गो’ का आश्रय चरण हैं और समस्त ‘वेदों’ काक आश्रय वाणी है, उसी प्रकार सभी ‘आत्माओं’ का आश्रय ‘परमात्मा’ है।’

उन्होंने आगे बताया-‘हे मैत्रेयी! जिस प्रकार जल में घुले हुए नमक को नहीं निकाला जा सकता, उसी प्रकार उस महाभूत, अन्तहीन, विज्ञानघन परमात्मा में सभी आत्मांए समाकर विलुप्त हो जाती हैं। जब तक ‘द्वैत’ का भाव बना रहता है, तब तक वह परमात्मा दूरी बनाये रखता है, किन्तु ‘अद्वैत’ भाव के आते ही आत्मा, परमात्मा में लीन हो जाता है, अर्थात उसे अपनी आत्मा से ही जानने का प्रयत्न करो।’

पांचवां ब्राह्मण

इस ब्राह्मण में ‘मधुविद्या, ‘अर्थात’ आत्मविद्या’ का वर्णन है। इस मधुविद्या का उपदेश ऋषि आथर्वण दध्यंग ने सर्वप्रथम अश्विनीकुमारों को दिया था। मन्त्र दृष्ट ने कहा कि परब्रह्म ने सर्वप्रथम दो पैर वाले और चार पैर वाले शरीरों का निर्माण किया था। उसके पश्चात वह विराट पुरुष उन शरीरों में प्रविष्ट हो गया। उसने कहा कि शरीरधारी को उसके यथार्थ रूप में प्रकट करने के लिए वह पुरुष शरीरधारी के प्रतिरूप जल, वायु, आकाश आदि की भांति हो जाता है। वह परमात्मा एक होते हुए भी माया के कारण अनेक रूपों वाला प्रतिभासित होता है।

वस्तुत: समस्त विषयों का अनुभव करने वाला ‘आत्मा’ ही ‘ब्रह्मरूप’ है। यह समस्त पृथ्वी, समस्त प्राणी, समस्त जल, समस्त अग्नि, समस्त वायु, आदित्य, दिशाएं, चन्द्रमा, विद्युत, मेघ, आकाश, धर्म, सत्य और मनुष्य मधु-रूप हैं, अर्थात आत्मरूप है। सभी में वह विनाशरहित, तेजस्वी ‘आत्मा’ विद्यमान है। वही सर्वव्यापी परमात्मा का सूक्ष्म अंश है। यह ‘आत्मा’ समस्त जीवों का मधु है और जीव इस आत्मा के मधु हैं। इसी में वह तेजस्वी वर अविनाशी पुरुष ‘परब्रह्म’ के रूप में स्थित है। वह ‘ब्रह्म’ कारणविहीन, कार्यविहीन, अन्तर और बाहर से विहीन, अमूर्त रूप है। इसी ब्रह्म स्वरूप ‘आत्मा’ को जानने अथवा इसके साथ साक्षात्कार करने का उपदेश सभी वेदान्त देते हैं अत: मधु’प उस आत्मा का चिन्तन करके ही, परमात्मा तक पहुंचना चाहिए।

छठा ब्राह्मण

इस ब्राह्मण में ‘मधुकाण्ड’ की गुरु-शिष्य परम्परा का वर्णन किया गया है। यहाँ केवल ज्ञान प्राप्त करने वाले ऋषियों की परम्परा का उल्लेख किया गया है। उस सर्वशक्तिमान परमात्मा की जिस-जिस ने अनुभूति की, उसे उसने उसी प्रकार अपने शिष्य को दे दिया। किसी ने भी उस पर एकाधिकार करने का प्रयत्न नहीं किया। इस परम्परा में कतिपय प्रसिद्ध ऋषि गौपवन, कौशिक, गौतम, शाण्डिल्य, पराशर, भारद्वाज, आंगिरस, आथर्वण, अश्विनीकुमार आदि का उल्लेख है।

तीसरा अध्याय

तीसरे अध्याय में नौ ब्राह्मण हैं। इनके अन्तर्गत राजा जनक के यज्ञ में याज्ञवल्क्य ऋषि से विभिन्न तत्त्ववेत्ताओं द्वारा प्रश्न पूछे गये हैं और उनके उत्तर प्राप्त किये गये हैं। गार्गी द्वारा बार-बार प्रश्न पूछ जाने पर याज्ञवल्क्य उसे अपमानित करके रोक देते हैं। पुन: सभा की अनुमति से उसके द्वारा प्रश्न पूछे जाते हैं। वह उनसे अपनी पराजय स्वीकार कर लेती है। इसी प्रकार शाकल्य ऋषि अतिप्रश्न करने के कारण अपमानित होते हैं। इसी का उल्लेख प्रश्नोत्तर रूप में यहाँ किया गया है। इनमें भारतीय ‘तत्त्व-दर्शन’ का निचोड़ प्राप्त होता है।

प्रथम ब्राह्मण

एक बार विदेहराज जनक ने एक महान यज्ञ किया। उस यज्ञ में कुरु औ पांचाल प्रदेशों के बहुत से विद्वान पधारे। राजा ने यह जानने के लिए कि इनमें सर्वोत्कृष्ट विद्वान कौन है, अपनी गौशाला से एक सहस्त्र स्वस्थ गौओं के सीगों में लगभग 100 ग्राम स्वर्ण बंधवा दिया और सभी को सम्बोधित करके कहा कि जो भी सर्वाधिक ब्रह्मनिष्ठ है, वह इन गौओं को ले जाये। उन ब्राह्मणों में से किसी का भी साहस नहीं हुआ, तो महर्षि याज्ञवल्क्य ने अपने एक शिष्य सामश्रवा से उन गौओं को हांक ले जाने के लिए कहा। इससे अन्य ब्राह्मण क्रोधित हो उठे और चीखने-चिल्लाने लगे कि यह हमसे सर्वश्रेष्ठ कैसे हे? तब उनके मध्य शास्त्रार्थ हुआ। सबसे पहले यज्ञ के होता अश्वल ने प्रश्न किया और याज्ञवल्क्य ने उसके प्रश्नों का उत्तर दिया-

अश्वल-‘हे मुनिवर! जब यह सारा विश्व मृत्यु के अधीन है, तब केवल यजमान ही किस प्रकार मृत्यु के बन्धन का अतिक्रमण कर सकता है?’

याज्ञवल्क्य— होता नामक ऋत्विक वाक् (वाणी) और अग्नि है। वह इन दोनों शक्तियों के द्वारा मृत्यु को पार कर सकता है। वही मुक्ति और अतिमुक्ति है। इसका भाव यही है कि जो ‘होता’ वाणी द्वारा उद्भूत मन्त्रों और यज्ञ की अग्नि के द्वारा परम ‘ब्रह्म’ का ध्यान करते हुए ‘नाद-ध्वनि’ उत्पन्न करता है, वह उस ‘नाद-ध्वनि’ (नाद-ब्रह्म) द्वारा मृत्यु को भी जीत लता है। ‘होता’ यज्ञ का पुरोहित होता है, वह यज्ञ में वाणी द्वासरा अक्षर-ब्रह्म की ही साधना करता है।

उसकी साधना करने वाला सिद्ध पुरोहित मृत्यु को भी अपने वश में करने वाला होता है। ऋषि का संकेत उसी ओर है। अश्वल—’हे मुनिवर! समस्त दृश्य जगत दिन और रात्रि के अधीन है। इसका अतिक्रमण कैसे किया जा सकता है, अर्थात इस पर विजय का उपाय क्या है?’

याज्ञवल्क्य—’ऋत्विक नेत्र और सूर्य के माध्यम से मुक्त हो सकता है, अर्थात रात और दिन पर विजय पा सकता है। अध्वर्यु ही यज्ञ का चक्षु है। अत: नेत्र ही आदित्य है और वही अध्वर्यु है। मुक्ति और अतिमुक्ति भी वही है।’ इसका अर्थ यह है कि अध्वर्यु ऋत्विक का कार्य विधिवत मन्त्रोच्चार करते हुए यज्ञ में आहुति देना होता है।

दूसरे, ‘चक्षु’ का तात्पर्य भौतिक चक्षुओं से न होकर मन की आंखों से है। एक योगी मन की इन्हीं आंखों से ‘इड़ा’ (चन्द्र) और पिंगला (सूर्य) नाड़ियों का भेदन करके सुषुम्ना में लीन होकर जीवन्मुक्त हो जाता है। उसे रात का अन्धकार और दिन का प्रकाश एक समान ही प्रतीत होता है। यह एक योगिक प्रक्रिया है।

अश्वल—’हे मुनिवर! सब कुछ ‘कृष्ण पक्ष’ और ‘शुक्ल पक्ष’ के अधीन है। फिर यजमान किस प्रकार इनसे मुक्त हो सकता है?’

याज्ञवल्क्य—’ऋत्विज्, उद्गाता, वायु और प्राण के माध्यम से मुक्त हो सकता है। उद्गाता को यज्ञ का प्राण कहा गया है तथा यह प्राण ही वायु और उद्गाता है। यही मुक्त और अतिमुक्ति का स्वरूप हैं।’ यहाँ इन दोनों पक्षों का तात्पर्य स्वर-विज्ञान पर आधारित है। प्राणायाम में प्राणवायु की गति को सिद्ध करके मन को शान्त किया जाता है। उसके द्वारा मृत्यु की गति भी रोकी जा सकती है। जो योगी प्राणायाम के अभ्यास से श्वास को जीत लेता है, उसके समस्त भौतिक विकार नष्ट हो जाते हैं। इन विकारों का नष्ट होना ही मृत्यु पर विजय पाना है।

अश्वल—’हे ऋषिवर! यह जो अन्तरिक्ष है, निरालम्ब, अर्थात आधारहीन प्रतीत होता है। फिर यजमान कैसे स्वर्गरोहण करता है?’

याज्ञवल्क्य—’ऋत्विज, ब्रह्मा और चन्द्रमा के द्वारा स्वर्गारोहण करता है। मन ही चन्द्रमा है। मन ही यज्ञ का ब्रह्मा है। मृक्ति, अतिमुक्ति भी वही है।’यहाँ मन और मन में उठे विचारों की अत्यन्त तीव्र और अनन्त गति की ओर संकेत है। मन और मन के विचारों को घनीभूत करके कुछ भी प्राप्त किया जा सकता है। उसे किसी आधार की आवश्यकता नहीं होती। अश्वल—’होता ऋत्विक आज यज्ञ में कितनी ऋचाओं का उपयोग करेगा?’

याज्ञवल्क्य-‘तीन ऋचाओं का।’

अश्वल-‘उन ऋचाओं के नाम क्या है?’

याज्ञवल्क्य-‘पहली पुरोनुवाक्या (यज्ञ से पहले), दूसरी याज्मा (यज्ञ के समय उच्चरित) और तीसरी शस्या (यज्ञ के बाद की स्तुतियां) है।’

अश्वल-‘इनसे किसे जीता जाता है?’

याज्ञवल्क्य-‘समस्त प्राणि समुदाय को।’

अश्वल-‘आज यज्ञ में कितनी आहुतियां डाली जायेगी?’

याज्ञवल्क्य-‘तीन।’

अश्वल-‘तीन कौन-कौन सी?’

याज्ञवल्क्य-‘पहली वह, जो होम करने पर प्रज्ज्वलित होती है। दूसरी वह, जो होम करने पर शब्द करती है और तीसरी वह, जो होम करने पर पृथ्वी में समा जाती है। इनसे यज्ञमान ‘देवलोक’, ‘पितृलोक’ और ‘मृत्युलोक’ को जीत लेता है।

अश्वल-‘हे मुनिवर! आज उद्गाता इस यज्ञ में कितने स्तोत्रों का गायन करेगा?’

याज्ञवल्क्य-‘तीन स्तोत्रों का। वे तीन स्तोत्र हैं- पुरोनुवाक्या, याज्या और शस्या।’

अश्वल-‘इनमें से कौन मनुष्य के शरीर में रहने वाले हैं?’

याज्ञवल्क्य-‘पुरोनुवाक्या से पृथ्वी लोक पर, याज्या से अन्तरिक्ष लोक पर और शस्या से द्युलोक पर विजय प्राप्त की जा सकती है।’

याज्ञवल्क्य के उत्तर सुनकर अश्वल चुप हो गये और ब्रह्मऋषि की श्रेष्ठता स्वीकार करके पीछे हट गये। तब ऋषि ने दूसरे ब्राह्मणों की ओर दृष्टिपात किया कि अब वे प्रश्न पूछ सकते हैं।

दूसरा ब्राह्मण

इस ब्राह्मण में जरत्कारू के पुत्र आर्तभाग और ऋषि याज्ञवल्क्य के मध्य हुए शास्त्रार्थ का वर्णन है।

आर्तभाग—’ऋषिवर! ग्रहों और अतिग्रहों की संख्या कितनी है? वे ग्रह और अतिग्रह कौन-कौन से हैं?’

याज्ञवल्क्य—’ग्रह आठ हैं और आठ ही अतिग्रह भी हैं। ‘प्राण’ ग्रह है और ‘अपान’ अतिग्रह है, ‘वाक्शक्ति’ ग्रह है और ‘नाम’ अतिग्रह है, ‘रसना’ ग्रह है और ‘रस’ अतिग्रह है, ‘नेत्र’ ग्रह है और ‘कामना’ अतिग्रह है, ‘हाथ’ ग्रह है और ‘कर्म’ अतिग्रह है, ‘त्वचा’ ग्रह है और ‘स्पर्श’ अतिग्रह है। ये आठों ग्रह और आठों अतिग्रह एक-दूसरे के पूरक हैं; क्योंकि ‘अपान’ से सूंघने का, ‘नाम’ से उच्चारण का, ‘रस’ से स्वाद का कार्य होता है और ‘रूप’ दोनों द्वारा ही देखा जाता है, ‘शब्द’ कान द्वारा सुना जाता है, ‘कामनाएं’ मन में ही उदित होती हैं, ‘कर्म’ हाथों से ही किये जाते हैं, ‘स्पर्श’ का अनुभव त्वचा ही करती है।’

आर्तभाग—’हे याज्ञवल्क्य! इस सृष्टि में जो कुछ भी है, सभी मृत्यु का ग्रास है। अत: वह कौन-सा देवता है, मृत्यु जिसका भोजन है?’

याज्ञवल्क्य—’अग्नि ही मृत्यु है और वह जल का भोजन है। इस तथ्य को जानने वाला मृत्यु पर विजय प्राप्त कर लेता है।’

आर्तभाग—’मृत्यु के समय क्या प्राण शरीर छोड़ जाते हैं?’

याज्ञवल्क्य—’प्राण शरीर नहीं छोड़ता। ‘आत्मतत्त्व’ शरीर छोड़ जाता है। शेष प्राण शरीर में रहकर वायु को शरीर में खींचता है। इसी से शरीर फूल जाता है।’

आर्तभाग—’मरने के बाद भी पुरुष को क्या नहीं छोड़ता?’

याज्ञवल्क्य—’नाम पुरुष को नहीं छोड़ता। उसका नाम उसके शुभ-अशुभ कर्मों से जुड़ा रहता है।’

आर्तभाग—’जिस समय इस पुरुष की वाणी अग्नि में विलीन हो जाती है और प्राण वायु में, चक्षु आदित्य में, मन चन्द्रमा में, श्रोत्र दिशाओं में, शरीर पृथ्वी में, आत्मा आकाश में, लोभ समूह औषधियों में, केश वनस्पतियों में तथा रक्त व रेतस (वीर्य) जल में विलीन हो जाता है, उस समय वह पुरुष कहां निवास करता है?’

याज्ञवल्क्य—’सौम्य आर्तभाग! तुम मुझे अपना हाथ पकड़ाओं। हम दोनों को ही इस प्रश्न का उत्तर समझना होगा, किन्तु इस जनसभा के मध्य नहीं।’

कुछ देर के लिए दोनों ने सभा से बाहर एकान्त में जाकर चिन्तन किया और लौटकर दोनों कर्म के विषय में प्रशंसा करने लगे। याज्ञवल्क्य ने कहा-‘निश्चित ही पुण्यकृत्यों से पुण्य और पापकृत्यों से पाप कमाया जाता है। मृत्यु के उपरान्त मनुष्य अपने इन्हीं कर्मों में रहता है।’

तीसरा ब्राह्मण

इस ब्राह्मण में लाह्य के पुत्र भुज्यु ऋषि याज्ञवल्क्य से प्रश्न करते हैं। इन प्रश्नों में कोई विशेष चिन्तन योग्य प्रश्न नहीं है। इसमें परिक्षितों की चर्चा है।

चौथा ब्राह्मण

इस ब्राह्मण में चक्र-पुत्र उषस्त ऋषि याज्ञवल्क्य से प्रश्न करते हैं।

उषस्त—’हे ऋषिवर! जो प्रत्यक्ष और साक्षात् ‘ब्रह्मा’ है और समस्त जीवों में स्थित ‘आत्मा’ है, उसके विषय में बताइये?’

याज्ञवल्क्य—’तुम्हारी आत्मा ही सभी जीवों के अन्तर में विराजमान है। जो प्राण के द्वारा जीवन-प्रक्रिया है, वही प्रत्यक्ष ब्रह्म का स्वरूप’ आत्मा’ है।’

उषस्त—’आप हमें साक्षात प्रत्यक्ष ‘ब्रह्म’ को और सर्वान्तर ‘आत्मा’ को स्पष्ट करके बतायें।’

याज्ञवल्क्य—’तुम्हारी आत्मा ही सर्वान्तर में प्रतिष्ठित है। दृष्टि देने वाले दृष्टा को देख सकना, श्रुति के श्रोता को सुन सकना, मति के मन्ता को मनन करना, विज्ञाति के विज्ञाता को जान सकना तुम्हारे लिए असम्भव है। तुम्हारी ‘आत्मा’ ही सर्वान्तर ब्रह्म है और शेष सब कुछ नाशवान है।’ यह सुनने के बाद उषस्त मौन हो गये।

पांचवां ब्राह्मण

इस ब्राह्मण में कहोल और याज्ञवल्क्य के मध्य शास्त्रार्थ का विवरण है। इसमें पुन: ‘ब्रह्म’ के अपरोक्ष रूप और ‘आत्मा’ के सर्वान्तर रूप के विषय में प्रश्न हैं। इसका उत्तर देते हुए याज्ञवल्क्य कहते हैं कि तुम्हारा आत्मा ही सर्वान्तर में प्रतिष्ठित है। आत्मा भूख, प्यास, जरा, मृत्यु, शोक और मोह से परे है। इसे जानने के उपरान्त कोई इच्छा शेष नहीं रहती।

छठा ब्राह्मण

इस ब्राह्मण में वचक्रुसुता गार्गी और ऋषि याज्ञवल्क्य के मध्य प्रश्नोत्तर है।

गार्गी—’जब सभी कुछ जल में ओत-प्रोत है, तब जल किसमें ओत-प्रोत है?’ इसी क्रम में उसने एक में से एक प्रश्न निकालकर पूछे। याज्ञवल्क्य—’जल वायु में, वायु अन्तरिक्षलोक में, अन्तरिक्ष गन्धर्वलोक में, गन्धर्वलोक आदित्यलोकों में, आदित्यलोक चन्द्रलोकों में, चन्द्रलोक नक्षत्र लोकों में, नक्षत्रलोक देवलोकों में, देवलोक इन्द्रलोक में, इन्द्रलोक प्रजापतिलोक में तथा प्रजापतिलोक ब्रह्मलोक में ओत-प्रोत है।’

किन्तु जब गार्गी ने पूछा कि ब्रह्मलोक किस में ओत-प्रोत है, तो याज्ञवल्क्य ने उसे रोक दिया और कहा-‘गार्गी! जिसे वाणी से व्यक्त नहीं किया जा सकता, उसके विषय में अहंकारपूर्ण तर्क करना उचित नहीं है। कहीं ऐसा न हो कि अनर्गल प्रश्नों के कारण तुम्हें अपना मस्तक गिराना पड़े, अर्थात अपमानित होना पड़े। याज्ञवल्क्य के द्वारा लताड़ने पर गार्गी चुप हो गयी।

सातवां ब्राह्मण

इस ब्राह्मण में आरुणि-पुत्र उद्दालक और महर्षि याज्ञवल्क्य के बीच शास्त्रार्थ है। इसमें उद्दालक काप्य पतंजल की पत्नी पर आये गन्धर्व से ‘लोक-परलोक’ के विषय में पूछ गये प्रश्नों के सन्दर्भ में पूछते हैं कि क्या वे उस सूत्र को जानते हैं, जो गन्धर्व ने काप्य पतंजल मुनि को बताया था? इस पर याज्ञवल्क्य कहते हैं कि वे उस सूत्र को जानते हैं वह सूत्र ‘वायु सूत्र’ है; क्योंकि इहलोक, परलोक और समस्त प्राणी इस वायु के द्वारा ही गुंथे हुए हैं।

इसके अतिरिक्त, जो इस पृथ्वी में संव्याप्त है, पृथ्वी ही जिसका शरीर है, पर पृथ्वी उसे नहीं जानती, जो उसके भीतर बैठा हुआ सभी कुछ नियन्त्रण कर रहा है। वस्तुत: यह तुम्हारा ‘आत्मा’ है, जो अविनाशी है और अन्तर्यामी है। वह जल में, अग्नि में, अन्तरिक्ष में, वायु में, द्युलोक में, आदित्य में, समस्त दिशाओं में, चन्द्र में, तारों में, आकाश में, अन्धकार में, प्रकाश में, समस्त भूतों (जीवों) में, प्राण में, वाणी में, नेत्रों में, कानों में, मन में, त्वचा में, विज्ञान में और वीर्य के सूक्ष्म रूप में निवास करता है। वह अनश्वर है, ‘नेति नेति’ है। केवल ‘आत्मा’ द्वारा ही उस अन्तर्यामी और अविनाशी ‘ब्रह्म’ को जाना जा सकता है। ऐसा सुनकर उद्दालक मुनि मौन हो गये।

आठवां ब्राह्मण

सभा की अनुमति लेकर वाचक्रवी गार्गी ने दो प्रश्न याज्ञवल्क्य से पुन: पूछे। यहाँ उन्हीं का वर्णन है।

गार्गी—’हे ऋषिवर! जो द्युलोक से ऊपर है और पृथ्वी लोक से नीचे है तथा ‘द्यु’ और ‘पृथ्वी’ के मध्य भाग में स्थित है और जो स्वयं ‘द्यु’ और ‘पृथ्वी’ है तथा जो स्वयं भूत, भविष्य और वर्तमान है, वह किसमें ओत-प्रोत है?’

याज्ञवल्क्य—’हे गार्गी! द्युलोक से ऊपर, पृथ्वी से नीचे तथा ‘द्यु’ औ पृथ्वी के मध्य भाग में जो स्थित है और जो स्वयं भी ‘द्यु’ और ‘पृथ्वी’ है और जो भूत, भविष्य और वर्तमान कहलाता है, वह आकाश में ओत-प्रोत है।’ गार्गी—’हे ऋषिवर! तो फिर यह आकाश किसमें ओतप्रोत है?’

याज्ञवल्क्य—’हे गार्गी! उस तत्त्व को ब्रह्मवेत्ता ‘अक्षर’ कहते हैं। वह न स्थूल है, न सूक्ष्म है, न छोटा है, न लम्बा है, न लाल है, न चिकना है, न छाया है, न अन्धकार है, न वायु है और न आकाश है। वह गन्ध और रस से हीन है। वह बिना नेत्रों के, बिना कानों के, बिना वाणी के, बिना मन के, बिना तेज़ के, बिना प्राण है और उसका न कोई मुख है, न उसका कोई माप है और उसका आदि-अन्त भी नहीं है।

वह न भीतर है, न बाहर है, न कुछ खाता है और न कोई उसे भक्षण कर सकता है। हे गार्गी! इस ‘अक्षरब्रह्म’ के अनुशासन में सूर्य, चन्द्र, द्युलोक, पृथ्वी, निमेष, मुहूर्त, रात-दिन, अर्धमास, मास, ऋतु संवत्सर आदि स्थित हैं। इसी अक्षर के अनुशासन में विभिन्न नदियां पर्वतों से निकलकर पूर्व-पश्चिम दिशाओं में बहती हैं। इस अक्षरब्रह्म के अनुशासन में ही उस ‘परब्रह्म’ की- मानव ही नहीं- देवता भी प्रशंसा करते हैं।’

याज्ञवल्क्य ने पुन: कहा-‘हे गार्गी! इस ‘अक्षरब्रह्म’ को न जानकर, जो इस लोक में यज्ञादि कर्मकाण्ड करता है, हज़ारों वर्षों तक तप करके पुण्य अर्जित करते हैं, वे सभी नाशवान हैं। इस ‘अक्षरब्रह्म’ (अविनाशी) को जाने बिना, जो इस लोक से जाते हैं, वे ‘कृपण’ हैं, किन्तु जो इसे जानकर इस लोक से प्रयाण करते हैं, वे ‘ब्राह्मण’ हैं। हे गार्गी! यह ‘अक्षरब्रह्म’ स्वयं दृष्टि का विषय नहीं है, किन्तु सभी को देखने वाला है। वह सबकी सुनता है, सबका ज्ञाता है। इसी ‘अक्षरब्रह्म’ में यह आकाश तत्त्व ओत-प्रोत है।’

तब गार्गी ने सभासदों से कहा कि आप में से किसी में इतनी सामर्थ्य नहीं है, जो इस ब्रह्मज्ञानी को जीत सके। ऐसा कहकर वह मौन हो गयी। गार्गी के कथन को सभी ने स्वीकार किया, किन्तु शाकल्य विदग्ध नहीं माने।

नौवां ब्राह्मण

शाकल्य विदग्ध अत्यन्त अभिमानी थे। उन्होंने अंहकार में भरकर याज्ञवल्क्य से प्रश्न पर प्रश्न करने प्रारम्भ कर दिये?’

शाकल्य—’देवगण कितने हैं?’

याज्ञ.—’तीन और तीन सौ, तीन और तीन सहस्त्र, अर्थात तीन हज़ार तीन सौ छह (3,306)।’

शाकल्य—’देवता कितने हैं?’

याज्ञ.—’तेंतीस (33)।’

शाकल्य ने इसी प्रश्न को बार-बार पांच बार और दोहराया। इस पर याज्ञवल्क्य ने हर बार संख्या घटाते हुए देवताओं की संख्या क्रमश: छह, तीन, दो, डेढ़ और अन्त में एक बतायी। शाकल्य—’फिर वे तीन हज़ार तीन सौ छह देवगण कौन हैं?’

याज्ञ.-‘ये देवताओं की विभूतियां हैं। देवगण तो तेंतीस ही हैं।’

शाकल्य-‘वे कौन से हैं?’

याज्ञ.-‘आठ वसु, ग्यारह रुद्र, बारह आदित्य, इन्द्र और प्रजापति।’

शाकल्य-‘आठ वसु कौन से है?’

याज्ञ.-‘अग्नि, पृथ्वी, वायु, अन्तरिक्ष, आदित्य, द्युलोक, चन्द्र और नक्षत्र। जगत के सम्पूर्ण पदार्थ इनमें समाये हुए हैं। अत: ये वसुगण हैं।’ शाकल्य—’ग्यारह रुद्र कौन से हैं?’

याज्ञ.-‘पुरुष में स्थित दस इन्द्रियां, एक आत्मा। मृत्यु के समय ये शरीर छोड़ जाते हैं और प्रियजन को रूलाते हैं। अत: ये रुद्र हैं।’

शाकल्य-‘बारह आदित्य कौन से है?’

याज्ञ.-‘वर्ष के बारह मास ही बारह आदित्य हैं।’

शाकल्य—’इन्द्र और प्रजापति कौन हैं?’

याज्ञ.-‘गर्जन करने वाले मेघ ‘इन्द्र’ हैं और ‘यज्ञ’ ही ‘प्रजापति’ है। गर्जनशील मेघ ‘विद्युत’ है और ‘पशु’ ही यज्ञ है।’

शाकल्य—’छह देवगण कौन से हैं?’

याज्ञ.-‘पृथ्वी, अग्नि, वायु, अन्तरिक्ष, द्यौ और आदित्य।’

शाकल्य—’तीन देव कौन से हैं?’

याज्ञ.-‘तीन लोक- पृथ्वीलोक, स्वर्गलोक, पाताललोक। ये तीनों देवता हैं। इन्हीं में सब देवगण वास करते हैं।’

शाकल्य-‘दो देवता कौन से हैं?’

याज्ञ.-‘अन्न और प्राण ही वे दो देवता हैं।’

शाकल्य-‘वह डेढ़ देवता कौन है?’

याज्ञ.-‘वायु डेढ़ देवता है; क्योंकि यह बहता है और इसी में सब की वृद्धि है।’

शाकल्य-‘एक देव कौन सा है?’

याज्ञ-‘प्राण ही एकल देवता है। वही ‘ब्रह्म’ है, वही तत् (वह) है।’

शाकल्य-‘पृथ्वी जिसका शरीर है, अग्नि जिसका लोक है, मन जिसकी ज्योति है और जो समस्त जीवों का आत्मा है, आश्रय-रूप है, ब्रह्मज्ञ है, उस पुरुष को जानते हो?’

याज्ञ.-‘जानता हूं। वही इस शरीर में व्याप्त है।’

शाकल्य-‘उसका देवता कौन है?’

याज्ञ.-‘उसका देवता ‘अमृत’ है।’

शाकल्य-‘काम जिसका शरीर है, हृदय जिसका लोक है, मन ही जिसकी ज्योति है, जो समस्त जीवों का आत्मा है, उसे जानने वाला ब्रह्मज्ञानी कहलाता है। उसे जानते हो?’

याज्ञ-‘जानता हूं। वह ‘काममय’ पुरुष है और उसका देवता ‘स्त्रियां’ हैं।’

शाकल्य-‘रूप ही जिसका शरीर है, नेत्र ही लोक हैं, मन ही ज्योति है, जो सभी का आश्रय-रूप है, उसे जानने वाला सर्वज्ञाता होता है। क्या तुम उसे जानते हो? याज्ञ.-‘जानता हूं। वह पुरुष ‘आदित्य’ है और ‘सत्य’ ही उसका देवता है।’

शाकल्य-‘आकाश जिसका शरीर है, श्रोत्र जिसका लोक, है, मन जिसकी ज्योति है, उस सर्वभूतात्मा को जानने वाला ब्रह्मज्ञानी होता है। उसे जानते हो?’

याज्ञ.-‘जानता हूं। वह ‘प्रातिश्रुत्क’ पुरुष है और ‘दिशाएं’ उसकी देवता है।’

शाकल्य-‘अन्धकार जिसका शरीर है, हृदय जिसका लोक है, मन जिसकी ज्योति है, उस सर्वभूतात्मा को जानने वाला ब्रह्मज्ञानी होता है। उसे जानते हो?’

याज्ञ.-‘जानता हूं। वह ‘छायामय’ पुरुष है और ‘मृत्यु’ उसका देवता है।’

शाकल्य-‘रूप जिसका शरीर है, चक्षु देखने की शक्ति है, मन ज्योति है, सर्वभूतों में स्थित आत्मा है, उसे जानने पर ‘सर्वज्ञ’ की संज्ञा प्राप्त होती है। उसे जानते हो?’

याज्ञ.-‘जानता हूं। वह वही पुरुष है, जो दर्पण में दिखाई देता है। उसका देवता ‘प्राण’ है।’

शाकल्य-‘वीर्य जिसका शरीर है, हृदय लोक है और मन ज्योति है। उस सर्वभूताश्रय पुरुष को जानने वाला सर्वज्ञाता होता है। उसे जानते हो?’

याज्ञ.-‘जानता हूं। वह ‘पुत्र’ रूप में पुरुष है। ‘प्रजापति’ उसका देवता है।’

शाकल्य-‘आप कुरु और पांचालप्रदेश के ब्राह्मणों का तिरस्कार करके स्वयं को ब्रह्मवेत्ता कहते हैं। क्या यह उचित है?’

याज्ञ.-‘मुझे देवताओं की प्रतिष्ठा के अनुसार दिशाओं का ज्ञान है।’

शाकल्य-‘फिर बताइये कि पूर्व में आप किस देवता से युक्त हैं और वह किसमें स्थित है?’

याज्ञ.-‘वहां मैं आदित्य देवता के साथ युक्त हूं और वह आदित्य ‘चक्षु’ में तथा चक्षु ‘रूप’ में स्थित है। वह रूप ‘हृदय’ में स्थित है; क्योंकि हृदय के द्वारा ही पुरुष को रूपों का ज्ञान होता है।’

शाकल्य-‘हे याज्ञवल्क्य! आप सत्य कहते हैं। दक्षिण दिशा में आप किस देवता से युक्त हैं और वह देवता किसमें स्थित है?’

याज्ञ.-‘यम देवता से और यम ‘श्रद्धा’ में स्थित है और श्रद्धा ‘हृदय’ में स्थित है; क्योंकि हृदय के द्वारा ही पुरुष श्रद्धा को जानता है।’

शाकल्य-‘सत्य है। पश्चिम दिशा में आप किस देवता से युक्त हैं और वह देवता किसमें स्थित है?’

याज्ञ.-‘वरुण देवता से युक्त हूं और वरुण देवता ‘जल’ में तथा जल ‘वीर्य’ में स्थित है। यह वीर्य ‘हृदय’ में स्थित है; क्योंकि पिता की इच्छानुसार ही पुत्र का जन्म होता है।’

शाकल्य-‘ठीक है। उत्तर दिशा में आप किस देवता से संयुक्त हैं और वह देवता किसमें स्थित है?’

याज्ञ.-‘सोम देवता से और सोम ‘दीक्षा’ में, दीक्षा ‘सत्य’ में और सत्य ‘हृदय’ में स्थित है; क्योंकि व्यक्ति हृदय से ही सत्य को जान पाता है।’

शाकल्य-‘आप ध्रुव दिशा में किस देवता से युक्त हैं और वह किसमें स्थित है?’

याज्ञ.-‘अग्निदेव से और अग्निदेव ‘वाक्’ (वाणी) में, वाक् ‘हृदय’ में स्थित है; क्योंकि हृदय से ही वाणी उत्पन्न होती है।’

शाकल्य-‘यह हृदय किसमें स्थित है?’

याज्ञ.-‘अरे प्रेत! तू हृदय को हमसे पृथक् मानता है? मूर्ख! हृदयहीन शरीर को तो कुत्ते और पक्षी नोंच-नोंचकर खा जाते हैं।’

शाकल्य-‘आप क्रोधित न हों। यह बतायें कि यह शरीर और हृदय (आत्मा) किसमें प्रतिष्ठित हैं?’

याज्ञ.-‘ये प्राण में स्थित हैं। प्राण ‘अपान’ में, अपान ‘व्यान’ में, व्यान ‘उदान’ में, उदान ‘समान’ में स्थित है। यह ‘आत्मा’ नेति-नेति कहा जाता है। इसे न तो ग्रहण किया जा सकता है, न विनष्ट किया जा सकता हैं यह संग-रहित, अव्यवव्थित और अहिंसित है। इसके आठ शरीर, आठ देवता और आठ पुरुष हैं। यह व्यष्टि-रूप होकर, इन पुरुषों को अपने हृदय में रखकर सभी उपाधि-रूप धर्मों का अतिक्रमण किये रहता है। उपनिषद द्वारा ज्ञात उस पुरुष के बारे में आप मुझे बतायें, अन्यथा आपका मस्तक गिर जायेगा।’

शाकल्य उस पुरुष के विषय में कुछ नहीं बता सकां इसलिए उसका मस्तक गिर गया, अर्थात वह भरी सभा में अपमानित हो गया। फिर किसी का भी साहस याज्ञवल्क्य से प्रश्न करने का नहीं हुआ।

चौथा अध्याय

इस अध्याय में महर्षि याज्ञवल्क्य और राजा जनक के मध्य हुए संवादों का उल्लेख किया गया है। साथ ही याज्ञवल्क्य और मैत्रेयी के संवाद भी इसमें हैं। अन्त में इस काण्ड की परम्परा को दोहराया गया है। इस अध्याय में छह ब्राह्मण हैं।

प्रथम ब्राह्मण

इस ब्राह्मण में ‘ब्रह्म’ के विशिष्ट स्वरूपों की व्याख्या विदेहराज जनक याज्ञवल्क्य को सुनाते हैं। उन्होंने बताया कि शिलिक ऋषि के पुत्र जित्वा ब्रह्म को ‘वाक्’ (वाणी) रूप में मानते हैं। इसी प्रकार शुल्व ऋषि के पुत्र उदंक ने ‘प्राण’ को ब्रह्म माना है। इसी प्रकार वृष्णा के पुत्र वर्कु ने ‘चक्षु’ को ब्रह्म स्वीकार किया है। याज्ञवल्क्य ने ब्रह्म के तीनों रूपों का समर्थन करते हुए उसे सत्य माना।

दूसरा ब्राह्मण

इस ब्राह्मण में विदेहराज जनक याज्ञवल्क्य के पास जाकर उपदेश की कामना करते हैं। याज्ञवल्क्य पहले राजा से उसका गन्तव्य पूछते हैं, पर जब राजा अपने गन्तव्य के विषय में न जानने की बात कहता है, तो वे गूढ अर्थ में योगिक क्रियाओं द्वारा उसे ‘ब्रह्मरन्ध्र’ में पहुंचने के लिए कहते हैं। उनका भाव यही है कि दोनों आंखों के बीच में ‘आज्ञाचक्र’ का स्थान है। उसका ध्यान करने से रोम-रोम में व्याप्त ‘प्राण’ की वास्तविक अनुभूति होने लगती है, तो उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। ‘ब्रह्मरन्ध्र’ में काशी का वास बताया गया है। इसी मार्ग से आत्मा शरीर में प्रवेश करती है और इस मार्ग से प्राण छोड़ने पर सीधे मोक्ष प्राप्त होता है।

तीसरा ब्राह्मण

यहाँ राजा जनक और याज्ञवल्क्य ऋषि के मध्य ‘आत्मा’ के स्वरूप को लेकर चर्चा की गयी है। राजा जनक ऋषि याज्ञवल्क्य से पूछते हैं कि यह पुरुष सभी कुछ प्रकाश के माध्यम से इस दृश्य जगत को देखता है और सोचता है कि यह ज्योति किसकी है? यह कहां से आती है और कहां चली जाती है?’ इस पर याज्ञवल्क्य राजा जनक को बताते हैं कि यह ज्योति ‘आदित्य’, अर्थात सूर्य से ही आती है।

उसी से यह मनुष्य इस दृश्य जगत को देख पाता है। उसके अस्त होने पर ‘चन्द्रमा’ के प्रकाश से देखता है। जब चन्द्रमा अस्त हो जाता है (कृष्ण पक्ष में), तो यह ‘अग्नि’ का सहारा लेता है। जब अग्नि भी शान्त पड़ जाती है, तब यह वाणी का सहारा लेता है। लेकिन जब सूर्य, चन्द्र, अग्नि तथा वाणी, ये चारों भी न हों, तो वह ‘योग-साधना’ के द्वारा सबको देखता है और चैतन्य रहता हैं उस समय उसके पास आत्म-ज्योति होती है, जिससे वह देखता-सुनता है।

याज्ञवल्क्य उसे ‘आत्मा’ के विषय में बताते हुए कहते हैं कि मन और बुद्धि की वृत्तियों के अनुरूप शरीर के भीतर स्थित विज्ञानमय, आनन्दस्वरूप ज्योति, प्राणों के द्वारा घनीभूत होकर सूक्ष्म रूप में हृदय में स्थित हो जाती है। यही ‘आत्मा’ है। यही शरीर की जीवनी-शक्ति है। यह शरीर में रहते हुए भी उससे निर्लिप्त रहता है। यह विचारों की सृजन करता है, इन्द्रियों की शक्ति बनता है।

गहन निद्रा के काल में यह शरीर में रहकर भी लोक-लोकान्तरों की यात्रा करता है। उस समय ‘आत्मा’ स्वयं अपने मन से अपने लिए सूक्ष्म शरीर धारण् कर लेता है और भौतिक शरीर को स्वप्नों के संसार की सैर कराता है। यह ‘आत्मा’ दुष्कर्मों की मार से शरीर छोड़ने में किंचित भी विलम्ब नहीं करता। वह देह से पूर्णत: निर्लिप्त रहता है।

चौथा ब्राह्मण

इस ब्राह्मण में शरीर त्यागने से पूर्व ‘आत्मा’ और ‘शरीर’ की जो स्थिति होती है, उसका विवेचन किया गया है। याज्ञवल्क्य ऋषि बताते हैं कि जब आत्मा शरीर छोड़ने लगता है, तब वह इन्द्रियों में व्याप्त अपनी समस्त शक्ति को समेट लेता है और हृदय क्षेत्र में समाहित होकर एक ‘लिंग शरीर’ का सृजन कर लेता है। यह लिंग शरीर ही आत्मा को अपने साथ लेकर शरीर छोड़ता है। यह जिस मार्ग से निकलता है, वह अंग तीव्र आवेग से खुला रह जाता है।

उस समय आत्मा पूरी तरह चेतनामय होता है। उसमें जीव की प्रबलतम वासनाओं और संस्कारों का आवेग रहता है। उन्हीं कामनाओं के आधार पर वह नया शरीर धारण करता है। जैसे स्वर्णकार स्वर्ण को पिघलाकर एक रूप की रचना करता है, उसी प्रकार ‘आत्मा’ पंचभूतों के मिश्रण से एक नये शरीर की रचना कर लेता है। जो पुरुष निष्काम भाव से शरीर छोड़ते हैं, वे जीवन-मरण के चक्र से छूटकर मुक्त हो जाते हैं और सदैव के लिए ब्रह्म की दिव्य ज्योति में विलीन हो जाते हैं।

पांचवां ब्राह्मण

यहाँ याज्ञवल्क्य और मैत्रेयी संवाद में ‘आत्मतत्त्व’ की चर्चा की गयी है।

छठा ब्राह्मण

इसमें याज्ञवल्कीय काण्ड की गुरु-शिष्य परम्परा का वर्णन है। उसमें कौशिक, शाण्डिल्य, गौतम, उद्दालक, जाबालि , पराशर, आत्रेय, गालव, अश्विनीकुमार और दधीचि आदि का विशेष वर्णन है।

पांचवां अध्याय

इस अध्याय में ‘ब्रह्म’ की विविध रूपों में उपासना की गयी है। साथ ही मनोमय ‘पुरुष’ और ‘वाणी’ की उपासना भी की गयी है। मृत्यु के उपरान्त ऊर्ध्वगति तथा ‘अन्न’ और ‘प्राण’ के विविध रूपों की उपासना-विधि समझाई गयी है। इसके अतिरिक्त ‘गायत्री उपासना’ में जप करने योग्य तीन चरणों के साथ चौथे ‘दर्शन’ पद का भी उल्लेख किया गया है। इसमें पन्द्रह ब्राह्मणों की चर्चा है।

प्रथम ब्राह्मण

इस ब्राह्मण में ‘ब्रह्म’ के सम्पूर्ण रूप का विवेचन किया गया है। कहा है-‘ॐ पूर्णमद: पूर्णमिदं पूणात्पूर्णमुदच्यते। पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥ ॐ3 खं ब्रह्म खं पुराणं वायुरं खमिति ह स्माह कौर व्यायणीपुत्रों वेदो यें ब्राह्मण विदुर्वेदैनेन यद्वेदितव्यम्॥1॥’ अर्थात वह ब्रह्मण पूर्ण है, यह जगती पूर्ण है। उस पूर्व ब्रह्म से ही यह पूर्ण विश्व प्रादुर्भूत हुआ है। उस पूर्ण ब्रह्म में से इस पूर्ण जगत को निकाल लेने पर पूर्ण ब्रह्म ही शेष रहता है।

ॐ अक्षर से सम्बोधित अनन्त आकाश या परम व्योम ब्रह्म ही है। यह आकाश सनातन परमात्म-रूप है। जिस आकाश में वायु विचरण करता है, वह आकाश ही ब्रह्म है। ऐसा कौरव्यायणी पुत्र का कथन है। यह ओंकार-स्वरूप ब्रह्म ही वेद है। इस प्रकार सभी ज्ञानी ब्राह्मण जानते हैं; क्योंकि जो जानने योग्य है, वह सब इस ओंकार-रूप वेद से ही जाना जा सकता है।

दूसरा ब्राह्मण

इस ब्राह्मण में प्रजापति के पुत्र देवगण, असुर और मनुष्य ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने के उपरान्त प्रजापति से उपदेश लेने जाते हैं। वहां वे उनके सम्मुख ‘द’ अक्षर का उपदेश देते हैं और उनसे पूछते हैं कि वे इससे क्या समझे। देवताओं ने कहा कि उन्होंने इसका अर् ‘दमन’ समझा है। वे अपनी चित्तवृत्तियों और इन्द्रियों का दमन करके सात्विक भावनाओं को जन्म दें। असुरों ने कहा कि उन्होंने इसका अर्थ ‘दया’ समझा है।

वे अपनी हिंसात्मक वृत्तियों को छोड़कर जीवों पर दया करना सीखें और अपनी तामसिक वृत्तियों पर अंकुश लगायें। मनुष्यों ने कहा कि उन्होंने इसका अर्थ ‘दान’ समझा है। वे अपनी संग्रह करने की प्रवृत्ति से ऋषियों और ब्राह्मणों को दान दें और अपनी राजसिक प्रवृत्तियों के साथ न्याय करें। प्रजापति तीनों का उत्तर सुनकर सन्तुष्ट हुए और उन्हें आशीर्वाद दिया।

तीसरा और चौथा ब्राह्मण

इन दोनों ब्राह्मणों में ‘हृदय’ और ‘सत्य’ का विश्लेषण संक्षिप्त रूप से किया है। यह हृदय प्रजापति है। इसके तीन अक्षरों का अर्थ- ‘हृ’ से हरणशील है, अर्थात यह कहीं से भी अभीष्ट पदार्थ का हरण करता है। ‘द’ अक्षर का अर्थ दान से है और ‘यम्’ अक्षर का अर्थ गाति से हैं यह जानने वाला स्वर्ग को प्राप्त करता है। यह हृदय ही सत्य-स्वरूप ‘ब्रह्म’ है। जो इस प्रकार जानता है, वह समस्त लोकों को जीत लेता है।

पांचवे से बारहवें ब्राह्मण तक

पांचवें से आठवें ब्राह्मण तक ‘सत्य’ को आदित्य-रूप ब्रह्म के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है। तदुपरान्त उसे मनोमय पुरुष, विद्युत वाक्, गाय, अग्नि, मरणोत्तर ऊर्ध्व गति, अन्न व प्राण-रूप में ‘ब्रह्म’ को स्वीकार कर उसकी उपासना की बात कही गयी है।

तेरहवां ब्राह्मण

यहाँ ‘उक्थ,’ अर्थात ‘स्तोत्र’ की प्राण-रूप में उपासना करने की बात कही गयी है; क्योंकि प्राण ही सभी प्राणियों को ऊपर उठाता है। प्राण की उपासना योग (यजु:) के रूप में करें। प्राण ही ‘यजु’:’ है, प्राण ही ‘साम’ है, प्राण ही बल है।

चौदहवां ब्राह्मण

इस ब्राह्मण में ‘गायत्री’ के तत्त्वज्ञान एवं माहात्म्य का वर्णन किया गया है। उपनिषद गायत्री के तीन चरणों की ही उपासना की बात कहते हैं चौथा चरण ‘दर्शन’ चरण है, अर्थात देखा जाने वाला। उसे अनुभूतिगम्य कहा गया है। यह पद सत्य में स्थित है। गायत्री प्राण में स्थित है। इस गायत्री ने गयों, अर्थात प्राणों का त्राण किया है। इसीलिए इसे ‘गायत्री’ कहते हैं। गायत्री महाशक्ति का मुख ‘अग्नि’ है। गायत्री विद्या में निष्णात व्यक्ति के समस्त पाप भस्म हो जाते हैं। वह शुद्ध, पवित्र व अजर-अमर हो जाता है।

पन्द्रहवां ब्राह्मण

इस ब्राह्मण में बताया गया है कि सत्य-रूपी ‘ब्रह्म’ का मुख ज्योतिर्मय स्वर्णपात्र से आच्छादित है। हे विश्वदेव! हे विश्व के पोषक सूर्यदेव! सत्य-धर्म के दर्शन के लिए मैं उसे देख सकूं, इसलिए आप उस पर पड़े आवरण को हटा दीजिये। यहाँ इसी भाव की उपासना की गयी है। हे अग्निदेव! आप हमें कर्मफल की प्राप्ति हेतु सुन्दर पथ पर ले चलें। हे देव! हमारे कुटिल पापों को नष्ट करें। हम बार-बार आपका नमन करते हैं।

छठा अध्याय

इस अध्याय में ‘प्राण’ की श्रेष्ठता, ‘पंचाग्नि विद्या’ का विवरण, ‘मन्थ-विद्या’ का उपदेश तथा ‘सन्तानोत्पत्ति-विज्ञान’ का सुन्दर वर्णन किया गया है। सबसे अन्त में समस्त प्रकरण की आचार्य-परम्परा का उल्लेख किया गया है। इस अध्याय में पांच ब्राह्मण हैं।

पहला ब्राह्मण

यहाँ ‘प्राण’ की सर्वश्रेष्ठता का प्रतिपादन किया गया है। छान्दोग्य उपनिषद में भी इसी भांति ‘प्राणतत्त्व’ की श्रेष्ठता दर्शायी गयी है। अन्य सभी इन्द्रियों से ‘प्राण’ ही सर्वश्रेष्ठ ह॥ छान्दोग्य उपनिषद के पांचवे अध्याय में भी इसका वर्नन है।

दूसरा ब्राह्मण

इस ब्राह्मण में ‘पंचाग्नि विद्या’ को जानने और उसके प्रतिफल पर प्रकाश डाला गया है। इसमें श्वेतकेतु और प्रवाहण के संवादों से ‘पंचाग्नि विद्या’ की गति बतायी गयी है। छान्दोग्य उपनिषद के चौथे अध्याय में दसवें से सत्रहवें खण्ड तक इस पर विस्तार से प्रकाश डाला गया हैं।

तीसरा ब्राह्मण

इस ब्राह्मण में मन्थ विद्या का वर्णन हैं। इसका ज्ञान होने पर मनोकामना अवश्य पूरी होती है। पुत्र-लाभ, रोग-लाभ, जीवन में श्रीवृद्धि, मृत्यु-भय-निवारण आदि में इस विद्या से लाभ होता है। छान्दोग्य उपनिषद में पांचवें अध्याय के दूसरे खण्ड में इसका विवेचन किया गया है। इस विधि का उपयोग किसी ज्ञानी व्यक्ति द्वारा ही कराना चाहिए, अन्यथा अर्थ का अनर्थ भी हो सकता है। मन्त्रों का पाठ शुद्ध होना अनिवार्य है।

चौथा ब्राह्मण

इस ब्राह्मण में मनोवांछित सन्तान की प्राप्ति के लिए किये गये मन्त्रों का विवेचन है। मन्त्र द्वारा गर्भाधान करना, गर्भनिरोध करना तथा स्त्री प्रसंग को भी यज्ञ-प्रक्रिया के रूप में वर्णित किया गया है। इसमें कहीं भी अश्लीलता-जैसी कोई बात नहीं है। सृष्टि का सृजन और उसके विकास की प्रक्रियायों को शुद्ध और पवित्र तथा नैसर्गिक माना गया है। पंचभूतों का रस पृथ्वी है, पृथ्वी का रस जल है, जल का रस औषधियां हैं, औषधियों का रस पुष्प हैं, पुष्पों का रस फल हैं, फलों का रस पुरुष है और पुरुष का सारतत्त्व वीर्य है।

नारी की योनि यज्ञ वेदी है। जो व्यक्ति प्रजनन की इच्छा से, उसकी समस्त मर्यादाओं को भली प्रकार समझते हुए रति-क्रिया में प्रवृत्त होता है, उसे प्रजनन यज्ञ का पुण्य अवश्य प्राप्त होता है। भारतीय संस्कृति में इस प्रजनन यज्ञ को सर्वाधिक श्रेष्ठ यज्ञ का स्थान प्राप्त है। यहाँ ‘काम’ का अमर्यादित आवेग नहीं है। ऐसी अमर्यादित रति-क्रिया करने से पुण्यों को क्षय होना माना गया है। ऐसे लोग सुकृतहीन होकर परलोक से पतित हो जाते हैं। यशस्वी पुत्र-पुत्री के लिए प्रजनन यज्ञ-ऋतु धर्म के उपरान्त यशस्वी पुत्र की प्राप्ति के लिए रति-कर्म करने से पूर्व यह मन्त्र पढ़ें-

‘इन्द्रियेण ते यशसा यश आदधामि।’इस मन्त्र का आस्थापूर्वक मनन करने से निश्चय ही यशस्वी पुत्र की प्राप्ति होगी। यदि पुरुष गौरवर्ण पुत्र की इच्छा रखता हो, तो उसे ऋतु धर्म के उपरान्त सम्भोग तक अपनी पत्नी को घी मिलाकर दूध-चावल की खीर खिलानी चाहिए और स्वयं भी खानी चाहिए। इससे पुत्र गौरवर्ण, विद्वान और दीर्घायु होगा। इसके अलावा दही में चावल पकाकर खाने से व जल में चावल पकाकर व घी में मिलाकर खाने से भी पुत्र-रत्न की ही प्राप्ति होगी। यदि पति-पत्नी विदुषी कन्या की कामना करते हों, तो तिल के चावल की खिचड़ी बनाकर खानी चाहिए।

गर्भ निरोध का उपाय

यदि पति-पत्नी दोनों सन्तान नहीं चाहते या कुछ काल तक ‘गर्भनिरोध’ चाहते हैं, तो रति-क्रिया में परस्पर मुख से मुख लगाकर इस मन्त्र का उच्चारण करें-

‘इन्द्रियेण ते रेतसा रेत आददे।’ इससे कभी गर्भ स्थापित नहीं होगा। रजस्वला स्त्री को तीन दिन तक कांसे के पात्र में खाने का भी निषेध है। अधिक शीत और उष्णता से भी बचना चाहिए। माता को अपनी सन्तान को स्तनपान कराने से भी नहीं बचना चाहिए। यह धर्म-विरुद्ध है और स्वास्थ्य के लिए भी हानिकारक है।

पांचवां ब्राह्मण इस ब्राह्मण में गुरु-शिष्य परम्परा का वर्णन मात्र है।

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