लेख सारिणी
गायत्री मंत्र – Gayatri Mantra
गायत्री मंत्र सर्वप्रथम ऋग्वेद में उद्धृत हुआ है। इसके ऋषि विश्वामित्र हैं और देवता सविता हैं। यह मन्त्र विश्वामित्र के इस सूक्त के 18 मन्त्रों में केवल एक है, किन्तु अर्थ की दृष्टि से इसकी महिमा का अनुभव आरम्भ में ही ऋषियों ने कर लिया था और सम्पूर्ण ऋग्वेद के 10 सहस्र मन्त्रों में इस मन्त्र के अर्थ की गम्भीर व्यंजना सबसे अधिक की गई। गायत्री मंत्र में 24 अक्षर हैं। उनमें आठ आठ अक्षरों के तीन चरण हैं। किन्तु ब्राह्मण ग्रन्थों में और कालान्तर के समस्त साहित्य में इन अक्षरों से पहले तीन व्याहृतियाँ और उनसे पूर्व प्रणव या ओंकार को जोड़कर मन्त्र का पूरा स्वरूप इस प्रकार स्थिर हुआ:
(१) ॐ
(२) भूर्भव: स्व:
(३) तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।
गायत्री महामंत्र वेदों का एक महत्त्वपूर्ण मंत्र है जिसकी महत्ता ॐ के बराबर मानी जाती है। यह यजुर्वेद के मन्त्र ‘ॐ भूर्भुवः स्वः’ और ऋग्वेद के छन्द 3.62.10 के मेल से बना है। इस मंत्र में सवितृ देव की उपासना है इसलिए इसे सावित्री भी कहा जाता है। ऐसा माना जाता है कि इस मंत्र के उच्चारण और इसे समझने से ईश्वर की प्राप्ति होती है। इसे श्री गायत्री देवी के स्त्री रूप में भी पूजा जाता है।
‘गायत्री’ एक छन्द भी है जो 24 मात्राओं 8+8+8 के योग से बना है । गायत्री ऋग्वेद के सात प्रसिद्ध छंदों में एक है। इन सात छंदों के नाम हैं- गायत्री, उष्णिक्, अनुष्टुप्, बृहती, विराट, त्रिष्टुप् और जगती। गायत्री छन्द में आठ-आठ अक्षरों के तीन चरण होते हैं। ऋग्वेद के मंत्रों में त्रिष्टुप् को छोड़कर सबसे अधिक संख्या गायत्री छंदों की है। गायत्री के तीन पद होते हैं (त्रिपदा वै गायत्री)। अतएव जब छंद या वाक के रूप में सृष्टि के प्रतीक की कल्पना की जाने लगी तब इस विश्व को त्रिपदा गायत्री का स्वरूप माना गया। जब गायत्री के रूप में जीवन की प्रतीकात्मक व्याख्या होने लगी तब गायत्री छंद की बढ़ती हुई महिता के अनुरूप विशेष मंत्र की रचना हुई, जो इस प्रकार है:
तत् सवितुर्वरेण्यं। भर्गोदेवस्य धीमहि। धियो यो न: प्रचोदयात्। (ऋग्वेद ३,६२,१०)
गायत्री ध्यानम्
मुक्ता-विद्रुम-हेम-नील धवलच्छायैर्मुखस्त्रीक्षणै-
र्युक्तामिन्दु-निबद्ध-रत्नमुकुटां तत्त्वार्थवर्णात्मिकाम्।
गायत्रीं वरदा-ऽभयः-ड्कुश-कशाः शुभ्रं कपालं गुण।
शंख, चक्रमथारविन्दुयुगलं हस्तैर्वहन्तीं भजे॥
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गायत्री उपासना विधि
तीन माला गायत्री मंत्र का जप आवश्यक माना गया है। शौच-स्नान से निवृत्त होकर नियत स्थान, नियत समय पर, सुखासन में बैठकर नित्य गायत्री उपासना की जाती है।
उपासना का विधि-विधान इस प्रकार है –
(1) ब्रह्म सन्ध्या – जो शरीर व मन को पवित्र बनाने के लिए की जाती है। इसके अन्तर्गत पाँच कृत्य करने होते हैं।
(अ) पवित्रीकरण – बाएँ हाथ में जल लेकर उसे दाहिने हाथ से ढँक लें एवं मन्त्रोच्चारण के बाद जल को सिर तथा शरीर पर छिड़क लें।
ॐ अपवित्रः पवित्रो वा, सर्वावस्थांगतोऽपि वा।
यः स्मरेत्पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः॥
ॐ पुनातु पुण्डरीकाक्षः पुनातु पुण्डरीकाक्षः पुनातु।
(ब) आचमन – वाणी, मन व अन्तःकरण की शुद्धि के लिए चम्मच से तीन बार जल का आचमन करें। प्रत्येक मन्त्र के साथ एक आचमन किया जाए।
ॐ अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा।
ॐ अमृतापिधानमसि स्वाहा।
ॐ सत्यं यशः श्रीर्मयि श्रीः श्रयतां स्वाहा।
(स) शिखा स्पर्श एवं वन्दन – शिखा के स्थान को स्पर्श करते हुए भावना करें कि गायत्री के इस प्रतीक के माध्यम से सदा सद्विचार ही यहाँ स्थापित रहेंगे। निम्न मन्त्र का उच्चारण करें।
ॐ चिद्रूपिणि महामाये, दिव्यतेजः समन्विते।
तिष्ठ देवि शिखामध्ये, तेजोवृद्धिं कुरुष्व मे॥
(द) प्राणायाम – श्वास को धीमी गति से गहरी खींचकर रोकना व बाहर निकालना प्राणायाम के क्रम में आता है। श्वास खींचने के साथ भावना करें कि प्राण शक्ति, श्रेष्ठता श्वास के द्वारा अन्दर खींची जा रही है, छोड़ते समय यह भावना करें कि हमारे दुर्गुण, दुष्प्रवृत्तियाँ, बुरे विचार प्रश्वास के साथ बाहर निकल रहे हैं। प्राणायाम निम्न मन्त्र के उच्चारण के साथ किया जाए।
ॐ भूः ॐ भुवः ॐ स्वः ॐ महः, ॐ जनः ॐ तपः ॐ सत्यम्। ॐ तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्। ॐ आपोज्योतीरसोऽमृतं, ब्रह्म भूर्भुवः स्वः ॐ।
(य) न्यास – इसका प्रयोजन है-शरीर के सभी महत्त्वपूर्ण अंगों में पवित्रता का समावेश तथा अन्तः की चेतना को जगाना ताकि देव-पूजन जैसा श्रेष्ठ कृत्य किया जा सके। बाएँ हाथ की हथेली में जल लेकर दाहिने हाथ की पाँचों उँगलियों को उनमें भिगोकर बताए गए स्थान को मन्त्रोच्चार के साथ स्पर्श करें।
ॐ वाँ मे आस्येऽस्तु। (मुख को)
ॐ नसोर्मे प्राणोऽस्तु। (नासिका के दोनों छिद्रों को)
ॐ अक्ष्णोर्मे चक्षुरस्तु। (दोनों नेत्रों को)
ॐ कर्णयोर्मे श्रोत्रमस्तु। (दोनों कानों को)
ॐ बाह्वोर्मे बलमस्तु। (दोनों भुजाओं को)
ॐ ऊर्वोमे ओजोऽस्तु। (दोनों जंघाओं को)
ॐ अरिष्टानि मेऽंगानि, तनूस्तन्वा मे सह सन्तु। (समस्त शरीर पर)
आत्मशोधन की ब्रह्म संध्या के उपरोक्त पाँचों कृत्यों का भाव यह है कि सााधक में पवित्रता एवं प्रखरता की अभिवृद्धि हो तथा मलिनता-अवांछनीयता की निवृत्ति हो। पवित्र-प्रखर व्यक्ति ही भगवान के दरबार में प्रवेश के अधिकारी होते हैं।
(2) देवपूजन – गायत्री उपासना का आधार केन्द्र महाप्रज्ञा-ऋतम्भरा गायत्री है। उनका प्रतीक चित्र सुसज्जित पूजा की वेदी पर स्थापित कर उनका निम्न मन्त्र के माध्यम से आवाहन करें। भावना करें कि साधक की प्रार्थना के अनुरूप माँ गायत्री की शक्ति वहाँ अवतरित हो, स्थापित हो रही है।
ॐ आयातु वरदे देवि त्र्यक्षरे ब्रह्मवादिनि।
गायत्रिच्छन्दसां मातः! ब्रह्मयोने नमोऽस्तु ते॥
ॐ श्री गायत्र्यै नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि, ततो नमस्कारं करोमि।
(ख) गुरु – गुरु परमात्मा की दिव्य चेतना का अंश है, जो साधक का मार्गदर्शन करता है। सद्गुरु के रूप में पूज्य गुरुदेव एवं वंदनीया माताजी का अभिवन्दन करते हुए उपासना की सफलता हेतु गुरु आवाहन निम्न मंत्रोच्चारण के साथ करें।
ॐ गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः, गुरुरेव महेश्वरः।
गुरुरेव परब्रह्म, तस्मै श्रीगुरवे नमः॥
अखण्डमंडलाकारं, व्याप्तं येन चराचरम्।
तत्पदं दर्शितं येन, तस्मै श्रीगुरवे नमः॥
ॐ श्रीगुरवे नमः, आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि।
(ग) माँ गायत्री व गुरु सत्ता के आवाहन व नमन के पश्चात् देवपूजन में घनिष्ठता स्थापित करने हेतु पंचोपचार द्वारा पूजन किया जाता है। इन्हें विधिवत् सम्पन्न करें। जल, अक्षत, पुष्प, धूप-दीप तथा नैवेद्य प्रतीक के रूप में आराध्य के समक्ष प्रस्तुत किये जाते हैं। एक-एक करके छोटी तश्तरी में इन पाँचों को समर्पित करते चलें। जल का अर्थ है – नम्रता-सहृदयता। अक्षत का अर्थ है – समयदान अंशदान। पुष्प का अर्थ है – प्रसन्नता-आन्तरिक उल्लास। धूप-दीप का अर्थ है – सुगन्ध व प्रकाश का वितरण, पुण्य-परमार्थ तथा नैवेद्य का अर्थ है – स्वभाव व व्यवहार में मधुरता-शालीनता का समावेश।
ये पाँचों उपचार व्यक्तित्व को सत्प्रवृत्तियों से सम्पन्न करने के लिए किये जाते हैं। कर्मकाण्ड के पीछे भावना महत्त्वपूर्ण है।
(3) जप – गायत्री मन्त्र का जप न्यूनतम तीन माला अर्थात् घड़ी से प्रायः पंद्रह मिनट नियमित रूप से किया जाए। अधिक बन पड़े, तो अधिक उत्तम। होठ हिलते रहें, किन्तु आवाज इतनी मन्द हो कि पास बैठे व्यक्ति भी सुन न सकें। जप प्रक्रिया कषाय-कल्मषों-कुसंस्कारों को धोने के लिए की जाती है।
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
इस प्रकार मन्त्र का उच्चारण करते हुए माला की जाय एवं भावना की जाय कि हम निरन्तर पवित्र हो रहे हैं। दुर्बुद्धि की जगह सद्बुद्धि की स्थापना हो रही है।
(4) ध्यान – जप तो अंग-अवयव करते हैं, मन को ध्यान में नियोजित करना होता है। साकार ध्यान में गायत्री माता के अंचल की छाया में बैठने तथा उनका दुलार भरा प्यार अनवरत रूप से प्राप्त होने की भावना की जाती है। निराकार ध्यान में गायत्री के देवता सविता की प्रभातकालीन स्वर्णिम किरणों को शरीर पर बरसने व शरीर में श्रद्धा-प्रज्ञा-निष्ठा रूपी अनुदान उतरने की भावना की जाती है, जप और ध्यान के समन्वय से ही चित्त एकाग्र होता है और आत्मसत्ता पर उस क्रिया का महत्त्वपूर्ण प्रभाव भी पड़ता है।
(५) सूर्यार्घ्यदान – विसर्जन-जप समाप्ति के पश्चात् पूजा वेदी पर रखे छोटे कलश का जल सूर्य की दिशा में र्अघ्य रूप में निम्न मंत्र के उच्चारण के साथ चढ़ाया जाता है।
ॐ सूर्यदेव! सहस्रांशो, तेजोराशे जगत्पते।
अनुकम्पय मां भक्त्या गृहाणार्घ्यं दिवाकर॥
ॐ सूर्याय नमः, आदित्याय नमः, भास्कराय नमः॥
भावना यह करें कि जल आत्म सत्ता का प्रतीक है एवं सूर्य विराट् ब्रह्म का तथा हमारी सत्ता-सम्पदा समष्टि के लिए समर्पित-विसर्जित हो रही है।
इतना सब करने के बाद पूजा स्थल पर देवताओं को करबद्ध नतमस्तक हो नमस्कार किया जाए व सब वस्तुओं को समेटकर यथास्थान रख दिया जाए। जप के लिए माला तुलसी या चन्दन की ही लेनी चाहिए। सूर्योदय से दो घण्टे पूर्व से सूर्यास्त के एक घण्टे बाद तक कभी भी गायत्री उपासना की जा सकती है।[2] मौन-मानसिक जप चौबीस घण्टे किया जा सकता है। माला जपते समय तर्जनी उंगली का उपयोग न करें तथा सुमेरु का उल्लंघन न करें।
गायत्री मंत्र FAQ
गायत्री मंत्र का 108 बार जाप क्यों करते हैं ?
क्योंकि 9 ग्रह और 12 नक्षत्र हैं। जब 9 ग्रह इन 12 नक्षत्रों के चारों ओर घूमते हैं, तो 108 प्रकार के प्रभाव डालते हैं। यदि इन प्रभावों में कुछ भी नकारात्मक होता है, तो वह इन मंत्रों की सकारात्मक ऊर्जा से सुधर जाता है।
क्या महिलाएं गायत्री मंत्र का जाप कर सकती हैं ?
हाँ, ऐसा कहीं भी नहीं लिखा है, कि महिलाएं इसका जाप नहीं कर सकतीं। यह बहुत दुर्भाग्य की बात है कि मध्य युग में महिलाओं से यह सभी अधिकार छीन लिए गए थे। पहले पुरुष-प्रधान समाज था। पुरुषों को लगता था कि यदि महिलाएं भी गायत्री मंत्र का जाप करेंगी, तो उनमें बहुत शक्ति आ जायेगी, जो भी वे चाहेंगी, वह फलीभूत होने लगेगा। तब पुरुषों ने कहा, कि ‘नहीं, हमारी पत्नियां पहले से ही बहुत शक्तिशाली हैं, हम इन्हें और शक्तिशाली नहीं बनने देंगे। इसलिए हम इन्हें गायत्री मन्त्र का जाप नहीं करने देंगे’ इसलिए समाज के कुछ लोगों ने इस बात का रहस्य छुपा कर रखा।