आश्चर्य, जिज्ञासा और संशयादि कारण जिनसे दर्शन का प्रादुर्भाव होता है, मुख्यरूप से पाश्च्यात परम्परा का प्रतिनिधित्व करते हैं। अब हम यह देखने का प्रयत्न करेंगे, कि भारतीय परम्परा इस विषय में क्या मानती है?
सामान्य रूप से देखने पर यही प्रतीत होता है, कि भारत के प्रायः सभी दर्शनों ने दर्शन की उत्पत्ति में दुःख को कारण माना है।
दुःख से मुक्ति पाना, यही भारतीय दर्शनशास्त्र (Indian philosophy) का मुख्य प्रयोजन है, और इसी प्रयोजन की सिद्धि के लिए विविध दार्शनिक विचारधाराओं की उत्पत्ति हुई है।
यद्यपि दुःख सब दर्शनों की उत्पत्ति का सामान्य कारण है, किन्तु दुःख क्या है, उसका क्या रूप है, उसके कितने भेद हैं, उससे छुटकारा पाने की क्या विधि है?
इत्यादि प्रश्नो के आधार पर सब दर्शनों ने भिन्न-भिन्न ढंग से अपनी विचारधारा का निर्माण किया। प्रत्येक दर्शनशास्त्र की उत्पत्ति का रहस्य समभने के लिए इन विचार-धाराओ का ज्ञान आवश्यक है।
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Charvaka in Indian philosophy | चार्वाक दर्शन
भारतीय दर्शनों में चार्वाक दर्शन एकान्त रूप से भौतिकवादी दर्शन है। इसने अपनी विचारधारा का आधार भौतिक सुख रखा। यद्यपि चार्वाक दर्शन के मौलिक ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है।
किन्तु अन्य दर्शन ग्रन्थों में पूर्वपक्ष के रूप में इसकी मान्यता का जो उल्लेख मिलता है, उसे देखने से यह मालूम पड़ता है, कि इसकी भित्ति शुद्ध भौतिकवाद है।
सुख दुःख इसी जन्म तक सीमित हैं, ऐसा उसका पक्का विश्वास है। इसी आधार पर चार्वाक दर्शन यह मानता है, कि इसी जन्म में अधिक से अधिक सुख भोगना यही हमारे जीवन का लक्ष्य है।
मृत्यु के बाद फिर पैदा होना पड़ता है। ऐसा कहना मिथ्या है, क्योंकि शरीर के राख हो जाने पर कौन सी चीज बचती है, जो फिर जन्म लेती है ?’
आत्मा की धारणा सर्वथा भ्रान्त है, क्योंकि चार भूतों के अतिरिक्त कोई स्वतन्त्र आत्मा नहीं है। जिस समय चारों भूत (तत्व) अमुक मात्रा में अमुक रूप से मिलते हैं, उस समय शरीर बन जाता है, और उसमें चेतना आ जाती है।
चारों भूतों के वापिस बिखर जाने पर चेतना समाप्त हो जाती है। जो कुछ है, वह या तो भूत है, या भौतिक है। भूतों का अच्छे से अच्छे रूप में उपयोग करना, उनसे खूब -सुख प्राप्त करना, जीवन में खूब आनंद लूटना, यही हमारे जीवन का लक्ष्य है।
इसी लक्ष्य की सिद्धि के लिए दर्शन का प्रादुर्भाव होता है। दर्शनशास्त्र हमारे लिए ऐसी व्यवस्था करता है, जिससे हमें अधिक से अधिक सुख मिल सके।
इस प्रकार चार्वाक मत के अनुसार दैहिक सुख की सिद्धि के लिए ही दार्शनिक विचारधारा का प्रादुर्भाव होता है।
Jainism in Indian philosophy | जैन दर्शन
जैन दर्शन का प्रधान प्रयोजन यह है, कि जीव सांसारिक दुःखों से मुक्त होकर अनंत आध्यात्मिक सुख का उपभोग करें। यह दर्शन छः मौलिक तत्त्वों के आधार पर सारे संसार की व्याख्या करता है।
इन छः तत्त्वों में जीव और पुद्गल ये दो तत्त्व ऐसे हैं, जिनके पारस्पंरिक सम्बन्ध के आधार पर प्राणियों को नाना प्रकार के कष्ट भोगने पड़ते हैं। संसार के अन्दर प्राप्त होने वाला तथाकथित सुख भी इन्हीं के सम्बन्ध का परिणाम है।
ऐसी मान्यता है, कि जब तक ये दोनों तत्त्व एक दूसरे से सर्वथा भिन्न नहीं हो जाते, अनन्त आध्यात्मिक सुख की प्राप्ति असम्भव है।
अनादिकाल से परस्पर सम्बद्ध ये दोनों तत्त्व किस प्रकार अलग हो जाएं, इसका दिग्दर्शन करना, यही जैन दर्शन का मुख्य प्रयोजन है।
जैन दर्शन के अनुसार सम्यक्दर्शन सम्यकज्ञान और सम्यकचारित्र ये तीनों मिल कर उस मार्ग का निर्माण करते हैं, जिस पर चलने से जीव और पुदूगल अन्ततोगत्वा अलग-अलग हो जाते हैं।
पुद्गल से सर्वथा मुक्त जीव ही शुद्ध आत्मा है, सिद्ध है, परमात्मा है। इस प्रकार की आत्मा अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख और अनन्त वीर्य से युक्त होती है। वह फिर कभी भी पुद्गल से सम्बद्ध नहीं होती।
हमेशा स्वतन्त्र रहती है। इस प्रकार जैन दर्शन का उद्देश्य भी यही है, कि प्राणी दुःख से मुक्ति पाकर सुख का उपभोग करे।
Buddhism in Indian philosophy | बौद्ध दर्शन
बुद्ध की शिक्षाओं का ध्येय भी यही है, कि प्राणी संसारी दुःख से मुक्त हो। दुःख प्रथम आर्यसत्य है। संसारावस्था के पाँच स्कन्धों
को छोड़ कर दुःख और कुछ नहीं है।
ये पाँच स्कन्ध हैं, विज्ञान, वेदना, संज्ञा, संस्कार और रूप ( पड्दशनसमुत्यय : बौद्धदर्शन के अनुसार )। जिस समय ये पाँचों स्कन्ध समाप्त हो जाते हैं, दु:ख स्वत्त: समाप्त हो जाता है।
ये स्कन्ध कैसे समाप्त हो सकते हैं? इनकी परम्परा किन कारणों से बराबर चलती रहती है? परम्परा समाप्त होने के बाद क्या अवस्था होती है? इत्यादि प्रश्नो के फलस्वरूप तीन अन्य आर्यसत्य प्रादुर्भूत होते हैं।
इन चारों आर्य सत्यों के आधार पर सम्पूर्ण बौद्धर्शन विकसित होता है। आर्यसत्यों के नाम दुःख, समुदय, मार्ग और निरोध हैं। दुःख का स्वरूप पाँच स्कस्धों के रूप में बता दिया गया है।
समुदय उसे कहते हैं, जिसके कारण रागादि भावनाएं उत्पन्न होती हैं। यह मेरी आत्मा है, ये मेरे पदार्थ हैं, इत्यादि रूप ममत्व ही समुदय है।
मार्ग का स्वरूप बताते हुए कहा गया है, कि ‘सारे संस्कार क्षणिक हैं, कुछ भी नित्य नहीं है’ एक प्रकार से वासना का ही मार्ग है। सब प्रकार के दुःखों से मुक्ति मिलने का नाम ही निरोध है।
निरोधावस्था में आत्मा का एकान्त अभाव हो जाता है। कुछ आधुनिक विचारक इस एकान्त अ्रभाव की परम्परा को चुनौती देते है।
उनका कथन है, कि बौद्धदर्शन प्रतिपादित मोक्षावस्था भावात्मक है। उनकी विचारधारा के अनुसार माध्यमिक का शून्यवाद (Nihilism) अर्थ ठीक नहीं।
अपितु बौद्धदर्शन का मूल आधार भी दुःखमुक्ति ही है। संसार में रहने वाले प्राणी को स्कन्धरूपी दुःख से मुक्त करना। यही बौद्ध विचारधारा का उद्देश्य है।
Samkhya in Indian philosophy | सांख्य दर्शन
सांख्य दर्शन का प्रयोजन भी दुःखनिवृत्ति है। कपिल ने स्वरचित ‘सांख्यसूत्र’ में सबसे पहिले लिखा है, कि जीवन का सर्वश्रेष्ठ पुरुषार्थ तीन प्रकार के ढुःखों की आत्यंतिक निवृत्ति है।
ईश्वरकृष्ण रचित ‘सांख्यकारिका’ का प्रथम श्लोक भी इसी बात का समर्थन करता है, कि संसार में अनेक प्रकार के दुःख होते है। सांख्य दर्शन के अनुसार उनकी तीन राशियाँ आध्यात्मिक, आधिदैविक और अधिभौतिक होती हैं।
आध्यात्मिक दुःख शारीरिक एवं मानसिक दो प्रकार के होते है। पाँच प्रकार के वात, पांच प्रकार के पित्त, पाँच प्रकार के श्लेष्मा, इनके वैषम्य से जो रोग पैदा होते हैं, वह शारीरिक दुःख है।
काम, क्रोध, मोह, मद, मत्सर आदि से जो क्लेश उत्पन्न होता है, वह मानसिक दुःख है। यक्ष, राक्षस, विनायक, ग्रह आदि के आवेश से जो दुःख होते है, वे आधिदेविक दुःख हैं।
अन्य प्राणियों से तथा प्राकृतिक स्थावर पदार्थो से जो दु:ख मिलता है, वह आधिभौतिक दुःख है। आध्यात्म, अधिदेव और अधिभूत सदा अभेद्य रूप से परस्पर बध्द है।
कभी किसी की प्रधानता होती है, तो कभी किसी की। जिस समय जिसकी प्रधानता होती है, उस समय उसी का नाम लिया जाता है। इन तीनों प्रकार के दुःखों का ऐकान्तिक-आत्यन्तिक नाश दृष्ट उपायों से नहीं हो सकता।
इसीलिए ऐसे उपाय की जिज्ञासा होती है, जिससे इनका समूल सर्वदिक विनाश हो जाय। ये हमेशा के लिए जड़ से खत्म हो जाए। यह कँसे हो सकता है ?
सांख्य दर्शन अपनी मान्यता के अनुसार इसका उत्तर देता है, कि यह कार्य सच्चे ज्ञान से ही हो सकता है। यह ज्ञान क्या है ? उसकी प्राप्ति के क्या उपाय हैं ?
आदि प्रश्नों के समाधान के रूप में पुरुष और प्रकृति के आधार पर सांख्य विचारधारा आगे बढ़ती है। यही सांख्यदर्शन की उत्पत्ति और गति का आघार है।
Yog in Indian philosophy | योग दर्शन
सांख्य और योग में ईश्वर-विषयक एकाध विषयों को छोड़ कर विशेष अन्तर नहीं है। सांख्य ज्ञान प्रधान है, जबकि योग क्रिया की प्रधानता स्वीकार करता है।
ऐसी स्थिति में पतंजलि के योगसूत्रों में सांख्य से मिलती जुलती बातें हों, तो कोई आश्चर्य की बात नही। पतंजलि ने स्पष्ट लिखा है, कि संसार आदि से अंत तक दुःखमय ही है।
जिसे हम लोग सुख समभते हैं, वह वास्तव में सुख नहीं है, अपितु दुःख ही है। इस बात को साधारण लोग नहीं समझ सकते। विवेकी यह अच्छी तरह से जानता है, कि सांसारिक सुख परिणाम में दुःख ही देता है।
यह जीवन नाना प्रकार की वृत्तियों एवं वासनाओं से परिपूर्ण है। विविध प्रकार की वृत्तियां एवं वासनाएं चित्त के भीतर परस्पर कलह करती है। एक वृत्ति की पूर्ति से चित्त में सुख होता है, तो दूसरी भंग से चित्त खिन्न हो जाता है।
इन सब दुःखों का मूलकारणा द्रष्टा और ट्वश्य, पुरुष और प्रकृति का संयोग है। उस संयोग का मुख्य हेतु अविद्या अथवा मिथ्याज्ञान है। उसको दूर करने का एक मात्र उपाय हैं, विवेक ख्याति, तत्व ज्ञान, सच्चा ज्ञान।
इस विवेक ख्याति से ही सब कर्म और क्लेशों की निवृत्ति होती है। इस प्रकार सांख्य और योग का उद्देश्य प्रायः एक है। योग ने सांख्यदर्शन के मूल सिद्धात्तों को ज्यों-का-त्यों लेकर क्रियापक्ष पर जोर दिया।
विवेकख्यात्ति के लिए क्रिया पक्ष को आवश्यक माना है। क्रिया के आधार रूप में ईश्वर की सत्ता स्वीकृत की। योग का यह ईश्वर न्यायवैशेषिक के समान जगत कर्ता न होकर प्रेरणा प्राति का साधन मात्र है।
Nyaya in Indian philosophy | न्याय दर्शन
गौतम ने अपने न्यायसूत्र में भी यही लिखा है, कि दर्शन का प्रयोजन अपवर्ग प्राप्ति है।
उन्होंने प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टान्त, सिद्धान्त, अवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, बितण्डा, हेत्वाभास, छल, जाति, निग्रहस्थान, इस प्रकार से सोलह पदार्थो की सत्ता मानी।
और यह भी कहा कि इन सोलह पदार्थो का सच्चा ज्ञान होने से दुख और उसके कारणो की परम्परा का क्रमशः क्षय होता है। इस क्षय के अनन्तर अपवर्ग मोक्ष मिलता है। मोक्षावस्था में आत्मा को न दुःख होता है, न सुख।
दुःख सुखादि जो कि संसारावस्था में आत्मा के साथ समवाय सम्बन्ध से रहते है, अपवर्ग में उससे अत्यन्त विच्छिन्न हो जाते है। आत्मा के बुद्धि आदि गुणों का अत्यन्त उच्छेद ही मोक्ष है।
इस अवस्था में रहने वाली आत्मा अपने असली स्वरुप में होती है, जहाँ उसके साथ बुद्धि आदि गुण नहीं रहते।
Vaisesika sutra in Indian philosophy | वैशेषिक सूत्र
‘वैशेषिक सूत्र’ (Vaisesikasutra) के रचयिता कणाद के शब्दों में भी यही व्यक्त किया है, कि नि:श्रेयस की प्राप्ति के लिए ही धर्म क़ा प्रादुर्भाव होता है। भारतीय परम्परा में धर्म और दर्शन में उतना भेद नहीं है, जितना कि पाछ्यात्य परम्परा में।
धमम शब्द में दर्शन का समावेह्य व दर्शन शब्द में धर्म का समावेश हमारी परम्परा में बहुत साधारण बात है। कणाद ने
अपने सूत्रों में जगह-जगह धर्म शब्द का प्रयोग किया है।
ऐसा होते हुए भी उसका सम्प्रदाय वैशेषिक दर्शन के नाम से प्रसिद्ध है, न कि वैशेषिक धर्म के रूप में धार्मिक मान्यताओं की तर्कयुक्त सिद्धि ही हमारे यहां दर्शन के नाम से प्रसिद्ध है।
कणाद ने लिखा है, धर्म वह पदार्थ है, जिससे सांसारिक अभ्युदय और पारमार्थिक निःश्नेयस दोनों मिलते हैं। वैशेषिक दर्शन का यही प्रयोजन है।
Purva-Mimansa in Indian philosophy | पूर्व मीमांसा दर्शन
‘मीमांसासूत्र’ का सर्व प्रथम सूत्र है, ‘अथातो धर्म जिज्ञासा’।
इसके भाष्य के रूप में शबर ने कहा है, ‘तस्माद् धर्मो जिज्ञासितव्य:। स हि निःश्रेयसेन पुरूषं संयुनक्तीति प्रतिजानीमहे ॥” धर्म पुरुष को निःश्रे यस की प्राप्ति कराता है, कल्याण से जोड़ता है।
अतः धर्म अवश्य जानना चाहिए, यही भाष्यकार का अभिष्राय है। मनुष्य धर्म द्वारा ही कल्याण मार्ग की आराधना कर सकता है, अतः उसे धर्म या ज्ञान होना आवश्यक हैं।
धर्म के स्वरूप को ठीक तरह से समझने के लिए, यह जानना जरूरी है, कि धर्म क्या है, उसके साधन क्या है, धर्माभास और साधनाभास क्या हैं?
धर्म का अन्तिम प्रयोजन कैसे पूर्ण किया जा सकता है, मतभेद और विवाद में पड़े हुए धर्म का उद्धार कैसे किया जा सकता है ? आदि। इन प्रश्नों की मीमांसा युक्ति युक्त परीक्षा का नाम ही दर्शन है।
यद्यपि मीमांसाशास्त्र का साक्षात सम्बन्ध कर्मकांड से है, इतना होते हुए भी उसका अन्तिम लक्ष्य वही है, जो अन्य भारतीय दर्शनों का है।
Vedanta in Indian philosophy | वेदान्त दर्शन
‘मीमांसासूत्र’ में जो पहला सूत्र है, ठीक वही सूत्र ‘ब्रह्मसूत्र’ में भी है। अन्तर केवल इतना ही है कि पहले में धर्म शब्द है, और दूसरे में ब्रह्म शब्द।
वेदान्त का प्रयोजन ब्रह्मज्ञान है। वह ब्रह्म कैसा है ? कोई भी वस्तु जिसके अधिकार के बाहर नहीं है, जो सब कुछ है, सब कुछ जिसमें है।
जिसका स्वरूप चेतना है, जो चित्तशक्ति रूप है, जो आत्मा ही है। ब्रह्म को जानने का अर्थ यह नहीं है, कि वहा एक अलग पदार्थ है, और जानने वाला एक अलग तत्त्व है।
ब्रह्म को जानने वाला स्वयं ही ब्रह्म हो जाता है। वहाँ ज्ञाता और ज्ञेय का कोई भेद नहीं रहता। शांकर वेदान्त का कथन है, कि भेद ही सब दुःखों का मूल है।
जहाँ द्वैत रहता है, वहीं दुःख रहता है। अद्वैत ही सच्चा सुख है। इस विवेचन से स्पष्ट है, कि भारतीय परम्परा की साधना का मुख्य प्रयोजन दुःख मुक्ति है।
चार्वाक की दृष्टि भौतिकवादी है। उसका मुख्य लक्ष्य भौतिक सुख की वृद्धि करना है। इसी जन्म में अधिक से अधिक सुख का भोग करना उसे इष्ट है।
वह इसी सुख को जीवन लक्ष्य समभता है। दर्शनशास्त्र का जन्म इसीलिए होता है, कि वह हमारे इस ध्येय को गति प्रदान करता है।
दर्शन शास्त्र हमारे लिए ऐसी व्यवस्था करता है, जिसके आधार पर हमें अधिक से अधिक सुख मिलता है। जैन दर्शन की धारणा अनन्त सुख की प्राप्ति की है ही।
पुदुगल-तत्त्व को आरत्म-तत्त्व से सर्वथा विच्छिन्न कर देना, यही सबसे बड़ा सुख है । जब तक ये दोनों तत्त्व एंक दूसरे से सर्वथा अलग नहीं हो जाते, अनन्त सुख की प्राप्ति या प्रादुर्भाव असम्भव है।
अनादि काल से एक दूसरे से मिले हुए ये दोनों तत्त्व किस प्रकार अलग-अलग हो सकते हैं, यह दिखाना दर्शन का मुख्य प्रयोजन है। दूसरे शब्दों में आत्मा अपने असली रूप में किस प्रकार आ सकती है, इसका दिग्दर्शन कराना दर्शन का ध्येय है ।
बुद्ध की शिक्षाओं का सार भी यही है, कि दु:ख से कैसे मुक्ति मिले। पांच स्कन्धों की परिसमाप्ति ही दुःख मुक्ति है। इस परिसमाप्ति का मार्ग बताना दर्शन शास्त्र का ध्येय है।
सांख्य की मान्यता के अनुसार आध्यात्मिक, आधिदेविक श्रौर आधिभीतिक इन तीन प्रकार के दु.खों की आत्यन्तिक निवृत्ति कैसे संभव है ?
इस बात की खोज करने के लिए दर्शन का प्रादुर्भाव होता है। योगदर्शन भी इसी बात का समर्थन करता है। वह क्रिया-पक्ष पर विशेष जोर देता है।
न्याय दर्शन का प्रयोजन अपवर्ग प्राप्ति है। दुःख और उसके कारणों की परम्परा का क्षय करना उसका ध्येय है। दुःख के कारणों की परम्परा का क्षय होने पर अपवर्ग अर्थात निःश्रेयस मिलता है।
वैशेषिक लोग भी निःश्रेयस की प्राप्ति को जीवन-लक्ष्य मानते है। सांसारिक अभ्युदय और पारमार्थिक निःश्रेयस इन दोनों की प्राप्ति ही दर्शन का प्रयोजन है।
मीमांसक भी निःश्रेयस की प्राप्ति को महत्त्व देते है। वे कहते है, कि धर्म से पुरुष को निःश्रेयस की प्राप्ति होती है, अतः धर्म अवश्य जानना चाहिए।
धर्म के स्वरूप का ठीक ठीक ज्ञान करना ही दर्शन है। वेदान्त का प्रयोजन ब्रह्मज्ञान है। यही सबसे बड़ा सुख है, यही सबसे बड़ा तत्त्व है। इस तत्त्व का साक्षात्कार करना ब्रह्ममय हो जाना, यही वेदान्त को इष्ट है।
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