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Karnavedha Sanskar – 16 संस्कारों में दसवा कर्णभेद संस्कार

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Karnavedha Sanskar – कर्णवेध संस्कार का महत्व और विधि

हिंदू धर्म में संस्कारों की महत्ता जातक के जन्म लेने की प्रक्रिया के आरंभ से लेकर अंत्येष्टि तक चलती रहती है। विभिन्न शास्त्रों के अनुसार संस्कार भी कई प्रकार के बताये जाते हैं लेकिन मुख्यत: इनकी संख्यां सोलह मानी जाती है। सोलह संस्कारों पर आधारित लेखों की श्रंखला में अब कर्णवेध संस्कार आता है। कर्ण यानि कान जिसे श्रवणेन्द्रि भी कहा जाता है और वेध यानि वेधना, छेदन करना।


कर्ण छेदन संस्कार का महत्व

16 संस्कारों में 9वां संस्कार कर्णभेद संस्कार माना जाता है। मान्यता है कि इससे बौद्धिक विकास के साथ साथ अच्छी सेहत सहित और भी बहुत सारे लाभ होते हैं। माना जाता है कि कान छेदन से रूप सौंदर्य में भी वृद्धि होती है। इस संस्कार को उपनयन संस्कार से पहले ही करवाये जाने की सलाह दी जाती है ताकि जातक की बुद्धि प्रखर हो व वह अच्छे से शिक्षा ग्रहण कर सके। शास्त्रानुसार तो जिस जातक का कर्णभेद संस्कार नहीं हुआ हो वह अपने प्रियजन के अंतिम संस्कार तक का अधिकारी नहीं माना जाता था। आरंभ में यह संस्कार बालक व बालिका दोनों का समान रूप से होता था। कन्या के लिये कर्णभेद के साथ-साथ नाक छेदन भी होता था। वर्तमान में लड़कों के लिये इस संस्कार को बहुत कम किया जाता है लेकिन अपनी इच्छानुसार कुछ लोग फैशन के तौर पर कर्णभेद जरूर करवाते हैं।

कान छेदन संस्कार के लाभ

मान्यताओं के अनुसार तो कान छेदन के बहुत सारे लाभ बताये जाते हैं। इसकी महत्ता इसी बात से देखी जा सकती है कि इसे उपनयन यानि शिक्षा आरंभ करने से पूर्व ही करने की सलाह दी जाती है ताकि जातक की मेधा शक्ति बढ़ सके और वह अच्छे से ज्ञान अर्जित कर सके यानि इसके पिछे मान्यता है कि कर्णभेद से जातक बुद्धिमान बनता है।

वहीं कर्णभेद का एक लाभ यह भी माना जाता है कि इससे रूप सौन्दर्य बढ़ता है व जातक के तेज में वृद्धि होती है। मान्यता तो यह भी है कि लकवा यानि पैरालिसिस नामक रोग से भी बचाव होता है व साथ ही अंडकोष सुरक्षा व शुक्राणु वृद्धि में भी सहायक है।

कर्णवेध संस्कार कब करें

ज्योतिषाचार्यों के अनुसार कर्णवेध संस्कार चतुर्मास (हिंदू पंचाग के अनुसार आषाढ़ शुक्ल एकादशी से कार्तिक शुक्ल एकादशी तक) में करवाया जाने का विधान है। जातक के जन्म के 12वें या 16वें दिन भी यह संस्कार किया जा सकता है। इसके अलावा छठे, सातवें या आठवें मास में भी किया जा सकता है। यदि जातक के जन्म के एक वर्ष पश्चात कर्णवेध संस्कार न किया जाये तो इसके पश्चात इसे विषम वर्ष यानि तीसरे, पांचवे, सातवें इत्यादि में संपन्न करना चाहिये। कर्णछेदन संस्कार के समय वृषभ, तुला, धनु एवं मीन आदि लग्न में बृहस्पति हो तो यह अवसर इस संस्कार के लिये श्रेष्ठ माना जाता है।

कर्णछेद संस्कार की विधि

प्राचीन समय में जब समाज में वर्णव्यवस्था मौजूद थी तो शास्त्रों के अनुसार प्रत्येक वर्ण के लिये कर्णवेध संस्कार अलग तरीके से किया जाता था। शास्त्रों के मतानुसार ब्राह्मण और वैश्य वर्णों का कर्ण छेदन संस्कार चांदी की सुई से एवं क्षत्रिय वर्ण के जातकों का सोने की सुई से करने का विधान है तो शूद्र वर्ण के जातकों का संस्कार लोहे की सुई से होता था द्विज माने जाने वाले ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य वर्ण के जातकों का संस्कार साही के कांटे से किये जाने के विधान भी थे। संस्कार से पहले धार्मिक पवित्र स्थल पर देवपूजा के पश्चात सूर्य के सम्मुख बालक या बालिका के कानों में मंत्र अभिमंत्रित करने पश्चात बालक के दाहिने कान में पहले तो उसके पश्चात बांये कान में छेद किया जाता है तो वहीं बालिका के बायें कान में पहले तो दाहिने कान में बाद में छेद किया जाता है। बालिकाओं के कानों के साथ बांयी नासिका में भी छेदन किया जाता है। जातकों के कर्ण छेदन के पश्चात आभूषण पहनाने का विधान है। जातकों के कान में जो मंत्र अभिमंत्रित किया जाता है वह निम्न है-

भद्रं कर्णेभि: क्षृणयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्रा:।
स्थिरैरंगैस्तुष्टुवां सस्तनूभिर्व्यशेमहि देवहितं यदायु:।।

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