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कृष्ण जन्माष्टमी – Krishna janmashtami
Lord Krishna Story in Hindi : भगवान के माता-पिता वसुदेव-देवकी विवाह के तत्काल बाद बड़े प्रेम से विदा होते हैं और ऐश्वर्यशाली कंस रथ के घोड़ों की बागडोर थाम बड़े प्रेम से बहिन को पहुंचाने के लिए चलता है। इतने में ही आकाशवाणी हुई:- ’कंस, तेरी मृत्यु देवकी के आठवें गर्भ से है।’
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कंस का सारा प्रेम उड़ गया, स्वार्थी का प्रेम तभी तक रहता है जब तक उसके स्वार्थ में बाधा न पड़े। कंस देवकी के केश पकड़कर तलवार से उनका गला काटने ही वाला है। माता देवकी मौन है, न कंस से कहती हैं कि मुझे छोड़ दो और न वसुदेव से कहतीं है कि मुझे बचाओ।
ऐसी क्षमा, ऐसी शान्ति, ऐसी समता और ऐसा मौन जो देवकी जी को उस उच्च सिंहासन पर बिठा देता है कि वे वस्तुत: भगवान की माता बनने के योग्य हैं। वसुदेव शुद्ध अंतकरण, सत्त्वगुण का स्वरूप हैं और सूक्ष्म निष्काम एकाग्र बुद्धि देवकी हैं, इन दोनों के ही मिलन होने पर भगवान का जन्म होता है। ऐसे अवसर पर बल काम नहीं देता, बुद्धि काम देती है, वसुदेव जी ने साम, दाम एवं भेद से काम लिया। वसुदेवजी के द्वारा देवकी के बालकों के जन्म लेते ही कंस को देने की प्रतिज्ञा करने पर कंस मान गया, क्योंकि वसुदेवजी के सत्यप्रतिज्ञ होने का लोहा कंस भी मानता था।
पर कंस की बुद्धि स्थिर नहीं रही, कंस ने ही उनके सत्य पर संशय करके अपनी प्रतिज्ञा तोड़ दी और अविश्वास से वसुदेव-देवकी को बंदी बना लिया। अभिमान, यातना और आसुरी वृत्ति का साम्राज्य हो गया। कंस के अधीन रहकर ही देवकी-वसुदेव ने अपने को भगवान के अवतरण के योग्य बना लिया। कंस ने वसुदेव-देवकी को बहुत सताया तो भगवान का प्राकट्य शीघ्र हो गया। भक्तों के दु:ख भगवान से सहे नहीं जाते, दु:ख को सुख मानकर जो भक्ति करते हैं, उन्हें आनन्द मिलता है, आनन्द ही श्रीकृष्ण हैं।
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माता देवकी के गर्भ में छह बालक आए और मारे गए। परमात्मा जगत में आते हैं तो उन्हें भी माया की जरुरत पड़ती है, परमात्मा माया को दासी बनाकर आते हैं। भगवान ने योगमाया को दो काम करने की आज्ञा दी, पहला काम देवकी का जो सातवां गर्भ है, उसे वहां से ले जाकर नन्दबाबा के गोकुल में रह रहीं वसुदेवजी की पत्नी रोहिणीजी के गर्भ में स्थापित कर दो और दूसरे, यशोदाजी के घर कन्या के रूप में जन्म लो।
भगवान के अंशस्वरूप ‘श्रीशेषजी’ सातवें बालक के रूप में माता देवकी के गर्भ में आए, योगमाया ने उन्हें रोहिणी जी के गर्भ में पहुंचा दिया। रोहिणी जी सगर्भा हुईं और भाद्रपद शुक्ल षष्ठी के दिन उसी गर्भ से भगवान अनन्त प्रकट हुए जो ‘बलदेव व संकर्षण’ कहलाए। कारागार के रक्षकों ने कंस को सूचना दी कि देवकी का सातवां गर्भ नष्ट हो गया है। तदनन्तर माता देवकी का आठवां गर्भ प्रकट हुआ।
जैसे प्राची (पूर्व दिशा) जगत को आह्लाद देने वाले चन्द्रमा को धारण करती है, वैसे ही जगदात्मा भगवान को माता देवकी जी ने धारण किया।
अब वसुदेवजी का मन भगवान के चिन्तन से भर गया और वसुदेवजी के मन में भगवान अपनी समस्त कलाओं के साथ प्रकट हो गए। जैसे दीये की लौ से दूसरी लौ प्रज्जवलित हो जाती है, वैसे ही वसुदेवजी के मन से देवकीजी का मन भी भगवच्चिन्तन से चमक उठा। वसुदेव जी के हृदय से भगवान देवकी जी के हृदय में आ गए। जब देवकी जी ने श्रीकृष्ण को धारण किया तो उनके मुख पर मुसकान थी।
बन्दीगृह देवकी जी के शरीर की कान्ति से जगमगा रहा था, वसुदेवजी स्वयं सूर्य के समान तेजस्वी प्रतीत हो रहे थे। जब कंस ने कारागार में इन दोनों को देखा तो मन-ही-मन उसने सोचा कि हो-न-हो यह विष्णु नामक मेरा शत्रु मेरे प्राणों को हरने के लिए जन्म लेने वाला है।
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ऐसा लगता है कि इस गुहा में कहीं मेरा प्राणहर्ता सिंह तो नहीं आ गया, देवकी जी को देखकर उसके क्रूर विचारों में अचानक परिवर्तन आ गया। ऐसा क्यों न हो; आज वह जिस देवकी को देख रहा है, उसके गर्भ में भगवान हैं। जिसके भीतर भगवान हैं, उसके दर्शन से सद्गुणों का उदय होना कोई आश्चर्य नहीं है। फिर भी कंस के मन में श्रीकृष्ण के प्रति दृढ़ वैरभाव था, वैर का भाव भी भक्ति का ही एक अंग है; क्योंकि वह उठते-बैठते, खाते-पीते, सोते-जागते–हर समय श्रीकृष्ण का ही चिन्तन किया करता था।
ईश्वर किसी को नहीं मारते, मनुष्य को उसका पाप ही मारता है। ब्रह्मा जी, शंकर जी तथा सभी देवता, नारदादि मुनियों के साथ वहां आए और गर्भस्थित भगवान की स्तुति करने लगे। यद्यपि गर्भवास को शास्त्रों में महादु:ख कहा गया है पर देवकी के इस गर्भ से न केवल पृथ्वीवासियों बल्कि देवताओं को भी आशा बंधीं थी।
उन्होंने गर्भस्थ ज्योति की वन्दना की:-
सत्यव्रतं सत्यपरं त्रिसत्यं सत्यस्य योनि निहितं च सत्ये।
सत्यस्य सत्यमृतसत्यनेत्रं सत्यात्मकं त्वां शरणं प्रपन्ना:॥ (श्रीमद्भागवत १०।२।२६)
अर्थात्:- ’तुम सत्यव्रती, सत्य परायण, सत्य के कारण, सत्य में आश्रित, सत्य के सत्य, ऋत और सत्य की दृष्टि से देखने वाले, तुम्हीं सत्य को प्रतिष्ठापित करोगे।’
इस प्रकार भगवान की स्तुति कर सभी देवता स्वर्ग में चले गए। जैसे अंत:करण शुद्ध होने पर उसमें भगवान का आविर्भाव होता है, श्रीकृष्णावतार के अवसर पर भी ठीक उसी प्रकार अष्टधा प्रकृति की शुद्धि का वर्णन किया गया है। जिस मंगलमय क्षण में परमानन्दघन श्रीकृष्ण का प्राकट्य हुआ, उस समय मध्यरात्रि थी, चारों ओर अंधकार का साम्राज्य था; परन्तु अकस्मात् सारी प्रकृति उल्लास से भरकर उत्सवमयी बन गई।
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भगवान के आविर्भाव के पूर्व प्रकृति की शुद्धि व श्रृंगार स्वामी के शुभागमन का सूचक है। अपने स्वामी के मंगलमय आगमन की प्रतीक्षा में पृथ्वी नायिका के समान सज-धजकर स्वागत के लिए तैयार हो गयी। श्रीकृष्ण के आगमन के आनन्द में पंचमहाभूत पृथ्वी मंगलमयी, जल कमलाच्छादित, वायु सुगन्धपूर्ण और आकाश निर्मल होकर तारामालाओं से जगमगा उठा। लकड़ी के अंदर से अग्नि प्रकट होकर अपनी शिखाओं को हिला-हिलाकर नाचने लगी।
ऋषि, मुनि और देवता जब अपने सुमनों की वर्षा करने के लिए मथुरा की ओर दौड़े, तब उनका आनन्द भी पीछे छूट गया और उनके पीछे-पीछे दौड़ने लगा।
जय श्रीकृष्णा