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महात्मा महर्षि भृगु
भार्गववंश के मूलपुरुष महर्षि भृगु जिनको जनसामान्य ॠचाओं के रचिता, भृगुसंहिता के रचनाकार, यज्ञों मे ब्रह्मा बनने वाले ब्राह्मण और त्रिदेवों की परीक्षा में भगवान विष्णु की छाती पर लात मारने वाले मुनि के नाते जानता है। महर्षि भृगु का जन्म प्रचेता ब्रह्मा की पत्नी वीरणी के गर्भ से हुआ था। अपनी माता से सहोदर ये दो भाई थे। इनके बडे भाई का नाम अंगिरा था। इनके पिता प्रचेता ब्रह्मा की दो पत्नियां थी। पहली भृगु की माता वीरणी दूसरी स्वर्ग की अप्सरा उर्वशी जिनके पुत्र वशिष्ठ जी हुए।
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महर्षि भृगु के भी दो विवाह हुए,इनकी पहली पत्नी दैत्यराज हिरण्यकश्यप की पुत्री दिव्या थी और दूसरी पत्नी दानवराज पुलोम की पुत्री पौलमी थी। पहली पत्नी दिव्या से भृगु मुनि के दो पुत्र हुए,जिनके नाम शुक्र और त्वष्टा रखे गए। भार्गवों में आगे चलकर आचार्य बनने के बाद शुक्र को शुक्राचार्य के नाम से और त्वष्टा को शिल्पकार बनने के बाद विश्वकर्मा के नाम से जाना गया। इन्ही भृगु मुनि के पुत्रों को उनके मातृवंश अर्थात दैत्यकुल में शुक्र को काव्य एवं त्वष्टा को मय के नाम से जाना गया है। भृगु मुनि की दूसरी पत्नी पौलमी की तीन संताने हुई. दो पुत्र च्यवन और ॠचीक तथा एक पुत्री हुई जिसका नाम रेणुका था।
च्यवन ॠषि का विवाह शर्याति की पुत्री सुकन्या के साथ हुआ। ॠचीक का विवाह महर्षि भृगु ने राजा गाधि की पुत्री सत्यवती के साथ एक हजार श्यामकर्ण घोडे दहेज मे देकर किया। पुत्री रेणुका का विवाह भृगु मुनि उस समय विष्णु पद पर आसीन विवस्वान (सूर्य) के साथ किया। भृगु मुनि की पहली पत्नी दिव्या देवी के पिता दैत्यराज हिरण्यकश्यप और उनकी पुत्री रेणूका के पति भगवान विष्णु मे वर्चस्व की जंग छिड गई. इस लडाई मे महर्षि भृगु ने पत्न्नी के पिता दैत्यराज हिरण्यकश्यप का साथ दिया। क्रोधित विष्णु जी ने सौतेली सास दिव्या देवी को मार डाला. इस पारिवारिक झगडे को आगे नही बढ्ने देने से रोकने के लिए महर्षि भृगु के पितामह ॠषि मरीचि ने भृगु मुनि को नगर से बाहर चले जाने की सलाह दिया और वह धर्मारण्य मे आ गए।
मन्दराचल पर्वत पर हो रहे यज्ञ में महर्षि भृगु को त्रिदेवों की परीक्षा लेने के लिए निर्णायक चुना गया। भगवान शंकर की परीक्षा के लिए भृगु जी जब कैलाश पहुँचे तो उस समय शंकर जी अपनी पत्नी पार्वती के साथ विहार कर रहे थे. शिवगणों ने महर्षि को उनसे मिलने नही दिया, उल्टे अपमानित करके कैलाश से भगा दिया। महर्षि भृगु ने भगवान शिव को तमोगुणी मानते हुए शाप दे दिया कि आज से आपके लिंग की ही पूजा होगी।
यहॉ से महर्षि भृगु अपने पिता ब्रह्मा जी के ब्रह्मलोक पहुँचे वहाँ इनके माता-पिता दोनों साथ बैठे थे जिन्होंने सोचा पुत्र ही तो है,मिलने के लिए आया होगा। महर्षि का सत्कार नही हुआ,तब नाराज होकर इन्होने ब्रह्माजी को रजोगुणी घोषित करते हुए शाप दिया कि आपकी कही पूजा ही नही होगी।
क्रोध मे तमतमाए महर्षि भगवान विष्णु के श्रीनार पहुचे. वहाँ भी विष्णु जी क्षीरसागर मे विश्राम कर रहे थे और उनकी पत्नी उनका पैर दबा रही थी। क्रोधित महर्षि ने उनकी छाती पर पैर से प्रहार किया। भगवान विष्णु ने महर्षि का पैर पकड लिया और कहा कि मेरे कठोर वक्ष से आपके पैर मे चोट तो नही लगी। महर्षि प्रसन्न हो गए और उनको देवताओ मे सर्वश्रेष्ठ घोषित किया।
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महर्षि के परीक्षा के इस ढग से नाराज मरीचि ॠषि ने इनको प्रायश्चित करने के लिए धर्मारण्य मे तपस्या करके दोषमुक्त होने के लिए गंगातट पर जाने का आदेश दिया। इस प्रकार से भृगु मुनि अपनी दूसरी पत्नी पौलमी को लेकर वहाँ आ गए। यहाँ पर उन्होने गुरुकुल खोला. उस समय यहां के लोग खेती करना नही जानते थे. महर्षि भृगु ने उनको खेती करने के लिए जंगल साफ़ कराकर खेती करना सिखाया। यही रहकर उन्होने ज्योतिष के महान ग्रन्थ भृगुसंहिता की रचना की। कालान्तर मे अपनी ज्योतिष गणना से जब उन्हे यह ज्ञात हुआ कि इस समय यहां प्रवाहित हो रही गंगा नदी का पानी कुछ समय बाद सूख जाएगा तब उन्होने अपने शिष्य दर्दर को भेज कर उस समय अयोध्या तक ही प्रवाहित हो रही सरयू नदी की धारा को यहाँ मंगाकर गंगा-सरयू का संगम कराया।