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संत पुंडलिक की मातृ-पितृ भक्ति | Saint Pundlik Ki Bhakti
संत पुंडलिक माता-पिता के परम भक्त थे। एक दिन पुंडलिक अपने माता-पिता के पैर दबा रहे थे कि श्रीकृष्ण रुक्मिणी के साथ वहां प्रकट हो गए, लेकिन पुंडलिक पैर दबाने में इतने लीन थे कि उनका अपने इष्टदेव की ओर ध्यान ही नहीं गया।
तब प्रभु ने ही स्नेह से पुकारा, ‘पुंडलिक, हम तुम्हारा आतिथ्य ग्रहण करने आए हैं।’
पुंडलिक ने जब उस तरफ दृष्टि फेरी, तो रुक्मिणी समेत सुदर्शन चक्रधारी को मुस्कुराता पाया।
उन्होंने पास ही पड़ी ईंटें फेंककर कहा, ‘भगवन! कृपया इन पर खड़े रहकर प्रतीक्षा कीजिए। पिताजी शयन कर रहे हैं, उनकी निद्रा में मैं बाधा नहीं लाना चाहता। कुछ ही देर में मैं आपके पास आ रहा हूं।’ वे पुनः पैर दबाने में लीन हो गए।
पुंडलिक की सेवा और शुद्ध भाव देख भगवान इतने प्रसन्न हो गए कि कमर पर दोनों हाथ धरे तथा पांवों को जोड़कर वे ईंटों पर खड़े हो गए। किंतु उनके माता-पिता को निद्रा आ ही नहीं रही थी। उन्होंने तुरंत आंखें खोल दीं। पुंडलिक ने जब यह देखा तो भगवान से कह दिया, ‘आप दोनों ऐसे ही खड़े रहे’ और वे पुनः पैर दबाने में मग्न हो गए।
भगवान ने सोचा कि जब पुंडलिक ने बड़े प्रेम से उनकी इस प्रकार व्यवस्था की है, तो इस स्थान को क्यों त्यागा जाए? और उन्होंने वहां से न हटने का निश्चय किया।
पुंडलिक माता-पिता के साथ उसी दिन भगवत्धाम चले गए, किंतु श्रीविग्रह के रूप में ईंट पर खड़े होने के कारण भगवान ‘विट्ठल’ कहलाए और जिस स्थान पर उन्होंने अपने भक्त को दर्शन दिए थे, वह ‘पुंडलिकपुर’ कहलाया। इसी का अपभ्रंश वर्तमान में प्रचलित ‘पंढरपुर’ है।
महाराष्ट्र में विट्ठल को विठोबा भी कहा जाता और पंढरी, पंढरीनाथ, पाण्डुरंग, विट्ठल, विट्ठलनाथ आदि नामों से भी बुलाया जाता है।