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श्री श्री 1008 रामऋषि महाराज – जोधपुर के दिव्य संतो में से एक

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श्री राम ऋषि महाराज का जन्म मध्यम वर्गीय पुष्करणा ब्राह्मण परिवार चताणी व्यास श्री आसूलाल जी के घर भादवा कृष्ण पक्ष तृतीय संवत् 1970 में बडी चताणियों की गली, गांछाबाजार स्थित उनके पैतृक मकान में हुआ । आपका बचपन का नाम रामचन्द्र था और मित्र इन्हे राम के नाम से सम्बोधित करते थे। बचपन में ही राम की माता जी का देहान्त हो गया था । अतः पिता एंव बंधु बांधवों का स्नेह ही उनके जीवन मंे व्याप्त इस अभाव की पूर्ति में सहायक रहा। उनके मित्र कहते है कि आपका रूझान बचपन से ही अन्तर्मुखी था। घंटो अकेले चिंतन मनन में अन्तः लीन रहते थे। मौन रहना उनका स्वभाव ही था । आपका यज्ञोपवित संस्कार उस समय के प्रसिद्ध विद्वान व गुरू पद प्राप्त श्री विष्णुदत्त जी अग्निहौत्र यसेवग जी महाराजद्ध के हाथों सम्पन्न हुआ और वे द्विज हुए ।


प्रथम सोपान प्रारम्भिक जीवन

बचपन से ही अपनी माता के अभाव में पिता के संरक्षण में रहे और आपको उनके साथ आबू जाना पडा । अरावली पर्वत श्रंखलाओं में मध्य अर्बुदा देवी के निवास पर कई तपस्वियों ने तपोभूमि में रहकर बालक राम का मन अनन्त खोज का मार्ग ढूंढने लगा। श्री राम नित्य कर्म से निवृत हो कर नक्की झील के पास स्थित रघुनाथ जी के मंदिर की गुफा मे तप एंव साधाना को लीन रहने लगे। प्राकृतिक सुषमा से आच्छांदित इस पर्वतमाला के गोद में राम उस विराट स्वरूप का दिग्दर्शन करते, उस निराकार परम तेजोमयी आद्यशक्ति की क्रीडा का अनुभव करते और अपनी अन्तर्मुखी जिज्ञासुवृति का सहारा पाकर वे चिदानन्द घन प्रभू की माया में लीन हो जाते । आध्यात्म की भूमि तैयार थी और केवल सद.गुरू कृपा रूपी हल चलाने की देर थी ।

श्री राम की साधनावस्था

जोधपुर लौटने पर भी आपकी साधना क्रम पूर्वव्रत चलता रहा, अधिकतर समय वे एकान्त में एक पैर पर खडे रह कर रात्रि में गायत्री जाप करते थे । वे शहर से दूर स्थित जोगी तीर्थ स्थान पर कई दिनों तक अज्ञातवास कर जप एंव साधन भजन करते थे । राम की इस वीतरागी अवस्था को देख उनके पिताजी थोडा चिंतित हुए और उनकेा विवाह बंधन में बांध कर गृहस्थ आश्रम में प्रवेश कराने की युक्ति ढूंढने लगे, परन्तु विधी का लेख तो कुछ और ही था। राम अपने विवाह की तैयारी को देख एक दिन चुपके से घर छोड कर गंगलाव के उपर पहाड पर स्थित गणेशगढ जा कर रहने लगे । गणेशगढ कई साधु महात्माओं की तपश्चर्य का केन्द्र रहा है । यहां की पर्वत श्रृंखला नाडी आश्रम की परम्परा के कई महात्मा और संतो के तप से जागृत रही है। अतः श्री राम का यहां निवास कर साधन भजन करना किसी विशेष दैविक शक्ति के आकर्षण को ही इंगित करता है। उनके मित्रों व बंधु बांधवों के अथक प्रयत्न भी राम के निश्चय को डिगा नही सके । वे अब अनवरत गायत्री जप एंव ध्यान मग्न रहने लगे।  उनके मित्र एंव परिजन बार-बार राम को वापिस घर लौटने के लिए अनुरोध करते रहे परन्तु राम थे कि अपनी धुन के पक्के और इच्छा शक्ति के धनी, वे तो परम् तत्व की खोज में निकले थे जिससे उन्हे कोई डिगा नही सका ।

साधना का चरमोत्कर्ष

गंगलाव तालाब के पास ही श्री विष्णुदत्त जी अग्निहौत्र यसेवग की माहराजद्ध का आश्रम था जहां वे अपने शिष्यों के साथ अपने साधना और भजन में लीन रहते थे। श्री राम ने गुरू के चरणों में बैठ नेष्टिक ब्रह्मचारी दीक्षा प्राप्त की और दुर्गा सप्तषतीए रूद्रारूष्टाध्यायी, त्रिकाल-संध्याए यज्ञ आदि के विधि विधान का आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त कर अपने जीवन को सात्विक करने लगे। 12 वर्ष तक कठोर तपस्या एंव साधना से उन्होने अपने जीवन को कुंदन बना दिया । मौन का आश्रय लेए आप गायत्री का अनवरत जाप करते रहे । यह अवधि राम के आध्यात्मिक जीव का चरमोकर्ष रही । अनके तपोबल की उनके मित्रों ने कई परीक्षाएं ली और उसके प्रतिफल को देखकर वे आश्चर्य चकित रहे ।

ऐसा प्रसंग है कि एक बार उनके मित्रों को सूझी कि श्री राम ने अन्न का पूर्ण त्याग कर दिया है तो क्या हुआ घ् हम तो उन्हें दूध की मिठाई अवश्य खिलाएंगे। ऐसा विचार कर वे राम को दूध की बनी मिठाई खाने के लिए अनुरोध करने लगे । मित्रों के बार-बार अनुरोध करने पर राम ने अपने मित्रों से कहा ‘अच्छा ठीक है कल दूध से बनी मिठाई रसगुल्ला लेकर गणेशगढ आ जाना लेकिन ध्यान रहे कि उसे रास्ते में कहीं मत रखना और न ही कहीं रूकना‘ मित्रों ने कहा कि ‘ऐसा ही होगा‘।  दूसरे दिन सभी मित्र उत्साहित हो सवेरे बाजार खुलते ही रसगुल्ला लाने के लिए बाजार चले गए परन्तु अथक प्रयासों के बाद भी उस दिन पूरे जोधपुर शहर में कहीं भी रसगुलले नही मिले । अन्ततः वे दूध से बनी मावे की मिठाई लेकर गणेशगढ के लिए रवाना हो गए । अभी पहाड का आधा रास्ता भी पार नही कर पाये थे कि मिठाई का वजन इतना बढ गया कि उसे उठा कर ले जाना भी असम्भव लगने लगा । अतः वे हांफते, पसीने से सरोबार हो बीच ही एक चैकी पर बैठ गये और राम का स्मरण करने लगे । कुछ देर बाद ही मुस्कराते हुए राम उनकी और आते दिखाई दिये । उनके पास आने पर मित्रों ने उनसे क्षमा याचना की । श्री राम ने उन्हे मौन संकेत से मिठाई फैंकने का आदेश दिया और फिर कभी उन्हे तंग न करने का वचन ले मित्रों को विदा किया।

गणेशगढ में श्री राम के चमत्कार स्वतः ही प्रकट हो जाते थे । उनके गणेशगढ  के प्रवास के दौरान ही एक घटना श्री श्याम किशन जी व्यास की पत्नी के मुख से सुनीए जो स्वंय उनके साथ घटी थी । एक बार वे रात्री में कुछ महिलाओं के साथ गणेशगढ के नीचे की सडक से शहर की ओर जा रही थी एक तो अंधेरा और फिर सूनसान । उन्हे लगा कि उनके पीछे कुछ शरारती लोग पड गये जो यह अवसर पा कर उनके गहनों पर हाथ साफ करना चाहते है । महिलाएं डरी डरी सी धीरे धीरे चल रही थी । तभी गणेशगढ की पहाडी से श्री राम उतरते दिखाई दिये । कुछ क्षणों बाद ही उन महिलाओं को अपने पीछे आग की तीव्र लपटे आकाश की ओर लपकती दिखाई दी । कुछ क्षणों के पश्चात फिर एक लपट एक स्त्री स्वरूप् में उठती हुई आकाश में विलीन हो गई। यह देख शरारती लोग डर से कांपने लगे और फिर उल्टे पांव दौड पडे । महिलाओं को कुछ हिम्मत बंधीए थोडा आश्वस्त होने पर उन्होने पीछे की ओर देखा तो श्री राम गणेशगढ की ओर लौट रहे थे । उन महिलाओं ने दूर से उन्हे प्रणाम किया और नीचे के रास्ते से शहर की ओर चल पडी ।

धीरे धीरे श्री राम की ख्याती फैलने लगी। श्रद्धालु उनकी और आकर्षित होने लगे। राम को अब बैचेनी होने लगी । अपनी साधना में पडते व्यवधान को देख गणेशगढ से सिद्धनाथ बैरी गंगा आदि कई पहाडी स्थानों पर निवास किया लेकिन अपनी तपस्या के लिए अधिक उपयुक्त स्थान न होने के कारण राम बिजलाई के निर्जन वन में स्थित हनुमान जी की गुफा में रह कर तपस्या करने लगे। वहां आपने मां भगवती के चित्र के सम्मुख अखण्ड ज्योति प्रज्जवलित की जिसकी वे आजीवन सेवा करते रहे ।

एक अन्य घटना के अनुसार एक दिन श्री राम के मित्रगण गोट करने बिजलाई आये। गोट में जो भी भोजन बना उसको थाली में सजा कर हनुमान गुफा में साधनारत श्री राम के पास मा भगवती के सामने रख दी । कुछ देर बाद श्री राम ने आंख खोली तो देखा कि एक शेर उस थाली में पडे भोजन को ग्रहण कर रहा है । उस शेर के एक पैर में सोने का कडा पहना हुआ था । शेर के लौटने पर श्री राम उसके पीछे दौडे लेकिन वह कहीं भी दिखाई नही दिया । बाद में जब श्री राम गढी में विराजते थे और कभी कभार बिजलाई जब पधारते थे तो उनके साथ कई श्रद्धालुओं को वह शेर अक्सर दिखलाई देता था और श्रीराम के पास पहुंचने पर वह गायब हो जाता था । कहते है कि दुर्घटना में मृत्यु के कारण एक राजपूत शरीर से शेर की योनी में आ गया था । श्री राम ने फिर उस जीव को उस योनी से मुक्ति दिलाई उसके बाद फिर वह कभी दिखाई नही दिया ।

युवाओ के आदर्श गुरु

श्री राम ऋषि का युवावर्ग पर अत्यधिक स्नेह रहा । वे उन्हे अपने हाथों से मिष्ठानए दूध व भोजन बना कर खिलाते । उनका स्नेह एंव प्रेम से सभी बन्ध गये थे । सभी की उन पर अटूट श्रद्धा थी । एक योगी एंव ब्रह्मचारी का आत्मबल एंव शारीरिक बल कैसा होता है यह भी सभी ने जाना। जंगली व सूखे पेडों को उखाडते समय कई लोगे मिल कर एक सूखे वृक्ष को नही उखाड सके उसे श्री राम ऋषि ने अकेले उखाड फेंकाए बडे बडे पत्थर वे अकेले उठा कर एक स्थान से दूसरे स्थान पर रख देते थे और सवा मण हलवे की कढाई वे अकेले उठा कर रख देते थे।

वही आश्रम में उन्होने अखाडे का निर्माण करवाया तथा बालकों व युवाओं को शारीरिक श्रम, पहलवानी, योगाभ्यास के लिए प्रोत्साहित करते थे। शारीरिक श्रम के पश्चात वे उन्हे केसर युक्त दूध व अन्य मिष्ठान स्वंय अपने हाथों से तैयार कर देते थे। ये सब इस बात की ओर इंगित करता था है की श्री रामऋषि एक योगी, तपस्वी, सन्यासी होने के साथ-साथ युवा प्रेमी और एक सुसंस्कृत समाज के निर्माण के प्रति अपनी अलग सोच रखने वाले कर्मयोगी भी थे ।

संवत् 2016 वैसाख माह कृष्ण पक्ष अष्ठमी गुरूवार दिनांक 30 अप्रेल 1959 को उसी कमरे में जहां देवी का चित्र स्थापित था वहीं पर श्री रामेश्वरी देवी की उत्तराभिमुख एक बडी भव्य एंव सुन्दर संगमरमर की प्रतिमा प्रतिष्ठित की गई । देवी के आस पास काले-गोरे भैरूजी मूर्तियां भी स्थापित हुई । संवत् 2020 में वैषाख माह में देवी के दाहिनी और पश्चिमाभिमुख माॅ गायत्री की प्रतिमा भी प्रतिष्ठित की गई ।

समाज सेवक शिरोमणि

श्री रामऋषि महाराज का रूझान बालक-बलिकाओं के विद्याध्ययन पर बहुत अधिक था। वे कई जरूरतमंद विद्यार्थियों को आश्रम में पढने की सुविधा देते, आर्थिक मदद करते और पढकर उच्च पद प्राप्त करने की प्रेरणा देते थे।

समाज में नारी की दुर्दशा और उनके उत्थान के प्रति गहरी संवेदना उनके हृदय में घर किये हुए थी और नारी शिक्षा को सर्वोपरि मान उन्होंने अपनी इच्छा शक्ति की प्रबलता से सिवांची गेट के बाहर की जमीन पर बालिकाओ के लिए माध्यमिक शिक्षालय हेतु भवन निर्माण की प्रक्रिया प्रारम्भ करवाई । इसके अलावा विधवाओं व परित्याग्यताओं में स्वरोजगार को बढावा देने उनमें सिलाई मशीनों का वितरण भी किया।

उन्होने आश्रम में विभिन्न प्रकार के पेड पौधे व फलदार वृक्ष लगाए । जिन्हे अधिकांशतः उम्मेद अस्पताल में रोगियों के निशुल्क उपयोग हेतु भिजवा दिया जाता था । श्री रामऋषि स्वयं तो निराहरी थे केवल एक विषेष गाय का दूध का ही सेवन दिन में एक बार किया करते थे । लेकिन आश्रम में नित्य आने वाले श्रद्धालुओं को भोजन प्रसादी बडे प्रेम से करा संतुष्ट करते । गुरू पूर्णिमा व रामेश्वरी देवी के पाटोत्सव में हजारो लोग प्रसादी लेते। वे उन्हे भोजन करता देख प्रसन्न होते । वे कहते जिस प्रकार अग्नि में आहुति देने से अग्नि देवता प्रसन्न होते है वैसे ही भोजन भी जठराग्नि की आहुति है। ब्रह्मभोज से मेरी भूख शान्त होती है । वे इसे यज्ञ के रूप में लेते थे । ऐसे कोई बिरले ही संत हुए है जो स्वंय निराहारी रह कर हजारों लोगों को स्वादिष्ट भोजन से तृप्त होकर स्वंय तृप्ति का अनुभव करते हो ।

निशुल्क नेत्र चिकित्सा शिविर

श्री राम ऋषि महाराज का एक विशेष अनुष्ठान था तीन दिवसीय नेत्र चिकित्सा शिविर का आयोजन ।  शिविर में सैकडों नेत्र रोगियों के आॅपरेशन होते एंव उनके ठहरने एंव भोजन इत्यादि की समस्त व्यवस्था आश्रम की तरफ से की जाती थी । यहां तक कि रोगियों के परिजनों के भी ठहरने व उनके भोजन की व्यवस्था आश्रम की ओर से की जाती और आश्रम में आने वाले श्रद्धालुओं द्वारा भी गुरूवर की प्रेरणा से रोगियों की सेवा की जाती थी । परम पूजनीय गुरूदेव की असीम कृपा से रामऋषि आश्रम ट्रस्ट व आश्रम में आने वाले श्रद्धालुओं के सहयोग से आज भी प्रतिवर्ष नेत्र चिकित्सा शिविर का महायज्ञ आयोजित किया जाता रहा है । उक्त शिविर अब केवल नेत्र चिकित्सा तक सिमित नहीं होकर सम्पूर्ण चिकित्सा शिविर में परिवर्तित हो गया है ।

महर्षि की अंतिम यात्रा

श्री रामऋषि महाराज जीवनपर्यन्त एक तपस्वीए संत और समाज के प्रति संवेदनषील रहते हुए एक कर्मयोगी की प्रतिमूर्ति बने रहे । अंतिम दिनों में उनका स्वास्थ्य कमजोर हो गया था । जीवात्मा अपने निज स्वरूप में लय होने को आतुर थी । श्री रामेश्वरी देवी के श्री चरणों में श्री रामऋषि की सम्पूर्ण इन्द्रिया धीरे धीरे लीन होने जा रही थी । एक महान योगी एंव तपस्वी अपनी माया समेट रहा था। संघ्या का समय था आश्रम में सूनापन सिमट आने को थाए हवा जैसे ठहर गई थीए आज रोज की तरह वृक्षों की डालिया हिल नही रही थी । सूर्य का तेज क्षीण होता जा रहा था । संवत् 2052 चैत्र की पूर्णिमा को योगनिष्ठ ब्रह्मचारी श्री राम ऋषि जी अपने नष्वर शरीर का त्याग कर ब्रह्मलीन हो गए ।

श्री रामऋषि जी महाराज न केवल एक योगीए तपस्वीए सन्यासी थे न केवल एक कर्म योगी थे बल्कि एक समाज सेवक भी थे । एक योगी, तपस्वी व सन्यासी के तौर पर समाज के प्रति जितना योगदान श्री रामऋषि का रहा है शायद ही किसी और का रहा हो ।

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