साधारणत: स्त्री के रजस्वला होने के चौथे दिन से लेकर सोलहवें दिन तक गर्भाधान स्वर योग से मनचाही संतान के लिए उत्तम समझा जाता है।
इसमें उत्तरोत्तर दिन ठीक हैं। प्रथम तीन रातें, अष्टम, एकादशी, त्रयोदशी, अमावस्या और पूर्णिमा वर्जित हैं।
शास्त्रकारों का मत है कि रजस्वला होने से चौथी रात्रि में गर्भ रहने से अल्पायु तथा दरिद्वी, छठी रात्रि में साधारण आयु वाला, आठवी रात्रि में ऐश्वर्यशाली, दशमी रात्रि में चतुर, बारहवीं रात्रि में उत्तर, चौदहर्वी रात्रि में उत्तम गुण संपन्न और सोलहवीं रात्रि में सर्वगुण संपन्न पुत्र उत्पन्न होता है।
पौंचर्वी रात्रि में संतान सुख वाली, सातवीं रात्रि में बंध्या, नौर्वी रात्रि में ऐश्वर्यवती, ग्यारहवीं रात्रि में दुश्चरित्रा, तेरहर्वी रात्रि में वर्णशंकर संत्तान उत्पन्न करने वाली, पंद्रहवी रात्रि में सौभाग्यवती अथवा राजपत्नी कन्या उत्पन्न होती है।
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स्वर योग से मनचाही संतान
जब पुरुष का दाहिना स्वर और स्त्री का बायाँ स्वर चल रहा हो, उस समय संयोग करने से पुत्र उत्पन्न होता है और जब स्त्री का दाहिना तथा पुरुष का बायाँ स्वर चल रहा हो, उस समय गर्भाघान करने से कन्या का जन्म होता है।
इसलिए पुत्र की इच्छा करने वाले पुरुष को बाएँ करवट और कन्या की इच्छा करने वाले पुरुष को दाहिने करवट लेटने के उपरांत रति-कर्म करना चाहिए, जिससे इच्छित स्वर चलने लगें।
जो भौतिक विज्ञानी स्वर-शास्त्र के संबंध में अभी संदेहमय हैं, वे भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि काम-क्रीडा के समय यदि पुरुष ब्वाएँ करवट लेटे तो उसका दाहिना अंडकोष विशेष शक्तिमय हो जाता है।
कामोत्तेजना होने पर अंडकोषों की नाडियों द्वारा ही शरीर की धातुओं में से वीर्य निकलने की क्रिया होती है। दही से घी निकलने में जो कार्य रई करती है, वही वीर्य बनाने में अंडकोषों की नाडियाँ करती हैं।
शरीर के दाहिने भाग में पुरुषत्व के लक्षण विशेष मात्रा में पाये जाते हैं। दाहिने अंडकोष की नाडियाँ भी दाहिने हो अंक का मंथन अधिक करती हैं, तदूनुसार वीर्य में भी पुरुषत्व की मात्रा अधिक होती है।
इस प्रकार बाएँ करवट लेटने पर जो संभोग किया जाता है, इससे पुत्र की उत्पत्ति होती है। इस अभिमत से भी स्वर-शास्त्र के इस सिद्धांत की पुष्टि होती है।
सम्भोग के समय स्वर और तत्वों का महत्त्व
यदि पुरुष सूर्य-स्वर में स्त्री-संग करे और संग होते ही सुषुम्ना स्वर बहने लगे तो उस समय के गर्भाधान से अंगहीन, कुरूप, नपुंसक पुत्र होता है, अथवा गर्भ गिर जाता है।
यदि ऋतु के आरंम में पुरुष का सूर्य-स्वर और जल तत्त्व हो तथा स्त्री का चंद्र-स्वर तथा पृथ्वीतत्त्व हो एवं भोग के समय स्वर बदले नहीं तो बॉँझ के भी पुत्र होता है।
यदि भोग काल में पुरुष का सूर्य-स्वर चले और वीर्य स्खलित होते ही चंद्र-स्वर हो जाये, इस क्रेम से स्त्री गर्भ धारण नहीं करेगी। अगर करेगी तो पुत्री होगी, पुत्र नहीं।
यदि पुरुष के सूर्य-स्वर में जल अथवा पृथ्वी तत्त्व मिला हो, तब गर्भाधान करने से घनवान् तथा सुखी पुत्र उत्पन्न होता है, साथ ही स्त्री के चंद्र-स्वर में पृथ्वी और वायुतत्त्व हो अन्यथा नहीं।
आकाशतत्त्व में भोग करने पर गर्म नष्ट हो जाता है। यदि स्त्री के सूर्य-स्वर में पृथ्वी, अग्नि या आकाशतत्त्व हों तो भी गर्भ की हानि होती है।
यदि पुरुष का चंद्र-स्वर और स्त्री का दक्षिण स्वर चल रहा हों तथा जलतत्त्व एवं पृथ्वी जल का संयोग हो, तब गर्भाधान से कन्या उत्पन्न होती है।
यदि सुधुम्ना नाडी चलने लगे अथवा सूर्य-स्वर चल रहा हो और अग्नितत्व का उदय हुआ हो तो गर्भाधान करने से बंध्या भी संतानवती होती है। स्त्री-पुरुष का यंदि एक ही नाक से श्वास चलता हो तो गर्भ नहीं रहता।
वायुतत्त्व में गर्भाधान हो तो दुःखी, जलतत्त्व में गर्भाधान हो तो दिशाओं में विख्यात और सुखी, अग्नितत्त्व में गर्भाधान हो तो गर्भपात अथवा अल्पजीवी और पृथ्वीतत्त्व में गर्भाधान हो तो भोगी, सुंदर और धनवान् पुत्र उत्पन्न होता है।
आकाशतत्त्व का गर्भाधान व्यर्थ जाता है। पृथ्वीतत्त्व में गर्भाधान हो तो पुत्र और जलतत्त्व में गर्भाधान हो तो कन्या उत्पन्न होती है। शेष तत्त्वों में गर्म रहे तो गर्भ की हानि अथवा पैदा होते ही बालक की मृत्यु हो जाती है।
स्वर योग से संतान को पहचानना
अमुक स्त्री के गर्म रहा है या नहीं ? ऐसा प्रश्न बंद स्वर की ओर से किया जाय तो गर्भ है, ऐसा समझना चाहिए अन्यथा नहीं।
गर्म में लड़का है या लड़की ? इस प्रश्न के जबाव में प्रश्नकर्ता का यदि बायाँ स्वर चल रहा हो और अपना दाहिना, तो लड़का होकर मर जाएगा, ऐसा जानना चाहिए।
यदि दोनों ही के दक्षिण स्वर हों तो लड़का होगा और आनंद मंगल होगा। प्रश्नकर्ता का स्वर दाहिना हो और उत्तरदाता का बायाँ, तो लड़की होकर मर जाएगी। यदि सुषुम्ना में प्रश्न किया जाए तो गर्भपात होगा या माता कष्ट भोगेगी।
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