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योग्य गुरु के मागदर्शन मे बढाए ईश्वर प्राप्ति की ओर क़दम

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योग्य गुरु के मागदर्शन मे बढाए ईश्वर प्राप्ति की ओर क़दम

 

जिस प्रकार ईश्वर द्वारा निर्मित मनुष्य, प्राणी आदि को मन एवं बुद्धि होती है, उसी प्रकार ईश्वर द्वारा निर्मित संपूर्ण विश्व के विश्वमन और विश्वबुद्धि होते हैं, जिनमें विश्व के सम्बंध में पूर्णतः विशुद्ध (सत्य) जानकारी संग्रहित होती है । इसे ईश्वरीय मन तथा बुद्धि भी कहा जा सकता है । जैसे ही किसी का आध्यात्मिक विकास आरंभ होने लगता है, उसके सूक्ष्म मन एवं बुद्धि विश्वमन एवं विश्वबुद्धि में विलीन होने लगते हैं । इसी माध्यम से व्यक्ति को ईश्वर की निर्मिती का ज्ञान पता चलने लगता है । हमारी आध्यात्मिक गुरु में भी मार्गदर्शक की आवश्यकता होती है । किसी भी क्षेत्र के मार्गदर्शक को उस क्षेत्र का प्रभुत्व होना आवश्यक है । अध्यात्म शास्त्र के अनुसार जिस व्यक्ति का अध्यात्म शास्त्र में अधिकार (प्रभुत्व) होता है, उसे गुरु कहते हैं ।

एक उक्ति है कि अंधों के राज्य में देख पाने वाले को राजा माना जाता है । आध्यात्मिक दृष्टि से दृष्टिहीन और अज्ञानी समाज में, प्रगत छठवीं ज्ञानेंद्रिय से संपन्न गुरु ही वास्तविक अर्थों से दृष्टि युक्त हैं । गुरु वे हैं, जो अपने मार्गदर्शक की शिक्षा के अनुसार आध्यात्मिक पथ पर चलकर विश्व मन और विश्व बुद्धि से ज्ञान प्राप्त कर चुके हैं । आध्यात्मिक मार्गदर्शक अथवा गुरु किसे कह सकते हैं और उनके लक्षण कौन से हैं, यह इस लेख में हम स्पष्ट करेंगे ।


उन्नत आध्यात्मिक मार्गदर्शक अथवा गुरु की व्याख्या

जिस प्रकार किसी देश की सरकार के अंर्तगत संपूर्ण देश का प्रशासनिक कार्य सुचारू रूप से चलने हेतु विविध विभाग होते हैं, ठीक उसी प्रकार सर्वोच्च ईश्वरीय तत्त्व के विविध अंग होते हैं । ईश्वर के ये विविध अंग ब्रह्मांड में विशिष्ट कार्य करते हैं ।

जिस प्रकार किसी सरकार के अंर्तगत शिक्षा विभाग होता है, जो पूरे देश में आधुनिक विज्ञान सिखाने में सहायता करता है, उसी प्रकार ईश्वर का वह अंग जो विश्व को आध्यात्मिक विकास तथा आध्यात्मिक शिक्षा की ओर ले जाता है, उसे गुरु कहते हैं । इसे अदृश्य अथवा अप्रकट (निर्गुण) गुरु (तत्त्व) अथवा ईश्वर का शिक्षा प्रदान करने वाला तत्त्व कहते हैं । यह अप्रकट गुरु तत्त्व पूरे विश्व में विद्यमान है तथा जीवन में और मृत्यु के पश्चात भी हमारे साथ होता है ।

इस अप्रकट गुरु की विशेषता यह है कि वह संपूर्ण जीवन हमारे साथ रहकर धीरे-धीरे हमें सांसारिक जीवन से साधना पथ की ओर मोडता है । गुरु हमें अपने आध्यात्मिक स्तर के अनुसार अर्थात ज्ञान ग्रहण करने की हमारी क्षमता के अनुसार (चाहे वह हमें ज्ञात हो या ना हो) मार्गदर्शन करते हैं और हममें लगन, समर्पण भाव, जिज्ञासा, दृढता, अनुकंपा (दया) जैसे गुण (कौशल) विकसित करने में जीवन भर सहायता करते हैं । ये सभी गुण विशेष (कौशल) अच्छा साधक बनने के लिए और हमारी आध्यात्मिक यात्रा में टिके रहनेकी दृष्टि से मूलभूत और महत्त्वपूर्ण हैं । जिनमें आध्यात्मिक उन्नति की तीव्र लगन है, उनके लिए गुरुतत्त्व अधिक कार्यरत होता है और उन्हें अप्रकट रूप में उनकी आवश्यकतानुसार मार्गदर्शन करता है ।

विश्व में बहुत ही कम लोग सार्वभौमिक (आध्यात्मिक) साधना करते हैं जो औपचारिक और नियमबद्ध धर्म / पंथ के परे है । इनमें भी बहुत कम लोग साधना कर (जन्मानुसार प्राप्त धर्म के परे जाकर) ७०% से अधिक आध्यात्मिक स्तर प्राप्त करते हैं । अप्रकट गुरुतत्त्व, उन्नत जीवों के माध्यम से कार्य करता है, जिन्हें प्रकट (सगुण) गुरु अथवा देहधारी गुरु कहा जाता है । अन्य शब्दों में कहा जाए, तो आध्यात्मिक मार्गदर्शक अथवा गुरु बननेके लिए व्यक्ति का न्यूनतम आध्यात्मिक स्तर ७०% होना आवश्यक है । देहधारी गुरु मनुष्य जाति के लिए आध्यात्मिक ज्ञान के दीप स्तंभ की भांति कार्य करते हैं और वे ईश्वर के विश्व मन और विश्व बुद्धि से पूर्णतः एकरूप होते हैं ।

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गुरु शब्द का शब्दशः अर्थ (व्युत्पत्ति) :

गुरु शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत भाषा से हुई है और इसका गहन आध्यात्मिक अर्थ है । इसके दो व्यंजन (अक्षर) गु और रु के अर्थ इस प्रकार से हैं :

गु शब्द का अर्थ है अज्ञान, जो कि अधिकांश मनुष्यों में होता है ।

रु शब्द का अर्थ है, आध्यात्मिक ज्ञान का तेज, जो आध्यात्मिक अज्ञान का नाश करता (मिटाता) है ।

संक्षेप में, गुरु वे हैं, जो मानव जाति के आध्यात्मिक अज्ञान रूपी अंधकार को मिटाते हैं और उसे आध्यात्मिक अनुभूतियां और आध्यात्मिक ज्ञान प्रदान करते हैं ।

ईश्वर प्राप्ति के अन्य कदम

भगवान श्री कृष्ण कहते हैं….

मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय।
निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः॥
(गीता १२/८)

भावार्थ : हे अर्जुन! तू अपने मन को मुझमें ही स्थिर कर और मुझमें ही अपनी बुद्धि को लगा, इस प्रकार तू निश्चित रूपसे मुझमें ही सदैव निवास करेगा, इसमें किसी प्रकार का सन्देह नहीं है।

तुलसी दास जी कहते हैं….           

बिनु सत्संग विवेक  होई, राम कृपा बिनु सुलभ  सोई।

१. जब व्यक्ति सच्चे मन से सत्संग की इच्छा करता है, तब कृष्ण कृपा से उस व्यक्ति को सत्संग प्राप्त होता है।

२. सत्संग से व्यक्ति का अज्ञान दूर होता है।

३. अज्ञान दूर होने पर ही lord krishna से राग उत्पन्न होने लगता है।

४. जैसे-जैसे कृष्णा से राग होता है, वैसे-वैसे ही संसार से बैराग होने लगता है।

५. जैसे-जैसे संसार से बैराग होता है, वैसे-वैसे विवेक जागृत होने लगता है।

६. जैसे-जैसे विवेक जागृत होता है वैसे-वैसे व्यक्ति कृष्णा के प्रति समर्पण होने लगता है।

७. जैसे-जैसे कृष्णा के प्रति समर्पण होता है वैसे-वैसे ज्ञान प्रकट होने लगता है।

८. जैसे-जैसे ज्ञान प्रकट होता है, वैसे-वैसे व्यक्ति सभी नये कर्म बन्धन से मुक्त होने लगता है।

९. जैसे-जैसे कर्म-बन्धन से मुक्त होता है, वैसे-वैसे कृष्णा की भक्ति प्राप्त होने लगती है।

१०. जैसे-जैसे भक्ति प्राप्त होती है, वैसे-वैसे व्यक्ति स्थूल-देह स्वरूप को भूलने लगता है।

११. जैसे-जैसे ही व्यक्ति स्थूल-देह स्वरूप को भूलता है, वैसे-वैसे आत्म-स्वरूप में स्थिर होने लगता है।

१२. जब व्यक्ति आत्म-स्वरूप में स्थिर हो जाता है तब कृष्णा आनन्द स्वरूप में प्रकट हो जाता है।

इसी अवस्था पर संत कबीर दास जी कहते हैं…..

प्रेम गली अति सांकरी, उस में दो न समाहिं।
जब मैं था तब हरि नहिं, अब हरि है मैं नाहिं॥

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