लेख सारिणी
कर्म का सिद्धांत – कर्म का अर्थ
कर्म का सिद्धांत अत्यंत कठोर है। जहां अच्छे कर्म व्यक्ति के जीवन को प्रगति की दिशा में ले जाते हैं, वहीं बुरे कर्म उसे पतन की ओर ले जाते हैं। धर्मग्रंथों के अनुसार मनुष्य को किए हुए शुभ या अशुभ कर्मों का फल अवश्य भोगना पड़ता है। इसलिए भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कर्म को प्रधानता देते हुए यहां तक स्पष्ट किया है कि व्यक्ति की यात्रा जहां से छूटती है, अगले जन्म में वह वहीं से प्रारंभ होती है। कर्म के इसी सिद्धांत को सरलता से समझने के लिए जानते है कर्मो के प्रकार और कर्म फलो के बारे में –
कर्म के प्रकार
कर्म तीन तरह के होते हैं- क्रियमाण, सञ्चित और प्रारब्ध | अभी वर्तमान में जो कर्म किये जाते हैं, वे ‘क्रियमाण’ कर्म कहलाते हैं।
कर्म पर संस्कृत श्लोक
कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः ।
स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकमंकृत् ॥ (गीता ४ । १८)
प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः ।
अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ॥ (गीता ३ | २७)
प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः ।
यः पश्यति तथात्मानमकर्तारं स पश्यति ॥ (गीता १३ । २९ )
जो भी नये कर्म और उनके संस्कार बनते हैं, वे सब केवल मनुष्य जन्म में ही बनते हैं (गीता ४ । १२, १५ । २) पशु-पक्षी प्रादि योनियों में नहीं, क्योंकि वे योनियां केवल कर्मफल-मोग के लिये ही मिलती है।
कर्म क्या है
कर्म एक संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ है “क्रिया” या “कार्य”। हिंदी में कर्म का अनुवाद “देवरी” या “काम” भी हो सकता है। विभिन्न धर्मशास्त्रों और फिलॉसफियों में, कर्म के अर्थ और महत्व को अलग-अलग रूपों में समझा जाता है:
हिंदू धर्म में कर्म का अत्यंत महत्व है। यहां कहा जाता है कि जीवात्मा अपने कर्मों के अनुसार भविष्य में फल प्राप्त करता है। यदि किसी व्यक्ति ने अच्छे कर्म किए हैं, तो उसे सुख और समृद्धि का फल मिलता है। वहीं, बुरे कर्म करने वाले को दुख और पीड़ा का फल भुगतना पड़ता है। हिंदू धर्म में कर्म को भगवान के सामाने यज्ञ के रूप में भी प्रस्तुत किया जाता है, जिससे समर्थी और अल्पज्ञ दोनों लोग भाग लेते हैं।
बौद्ध धर्म में कर्म का भी महत्व है। यहां भी कहा जाता है कि व्यक्ति अपने कर्मों के अनुसार अपने भविष्य को निर्माण करता है। यहां बुद्ध ने निष्काम कर्म का बहुत महत्व दिया था।
जैन धर्म में भी कर्म का बड़ा महत्व है। यहां कहा जाता है कि जीवात्मा के कर्मों के फलस्वरूप वह संसार में बंधता है। जैन धर्म में निष्काम कर्म और आत्मानुशासन का जिक्र किया जाता है।
सञ्चित कर्म
वर्तमान से पहले इस जन्म में किये हुए अथवा पहले के अनेक मनुष्य जन्मों में किये हुए जो कर्म संग्रहीत हैं, वे ‘सञ्चित’ कर्म कहलाते हैं।
प्रारब्ध कर्म
सञ्चित में से जो कर्म फल देने के लिये प्रस्तुत (उन्मुख) हो गये हैं अर्थात् जन्म, आयु और सुखदायी- दुःखदायी परिस्थिति के रूप में परिणत होने के लिये सामने आ गये हैं, वे ‘प्रारब्ध’ कर्म कहलाते है ।
क्रियमाण कर्म
क्रियमाण कर्म दो तरह के होते हैं – शुभ और अशुभ | जो कर्म शास्त्रानुसार विधि-विधान से किये जाते हैं, वे शुभ-कर्म कहलाते हैं और काम, क्रोध, लोभ, प्रासक्ति आदि को लेकर जो शास्त्रनिषिद्ध कर्म किये जाते हैं, वे अशुभ कर्म कहलाते हैं। शुभ अथवा अशुभ प्रत्येक क्रियमाण कर्म का एक तो फल अंश बनता है और एक संस्कार अंश। ये दोनों भिन्न-भिन्न हैं।
क्रियमाण कर्म के फल
अंश के दो भेद हैं- दृष्ट और अदृष्ट | इनमें से दृष्टके भी दो भेद होते हैं तात्कालिक और कालान्तरिक | जैसे स्वादिष्ट भोजन करते हुए जो रस आता है, सुख होता है, प्रसन्नता होती है और तृप्ति होती है – यह इष्ट का ‘तात्कालिक’ फल है और भोजन के परिणाम में आयु, बल, आरोग्य आदि का बढ़ना- यह दृष्टका ‘कालान्तरिक’ फल है। ऐसे ही जिसका अधिक मिर्च खाने का स्वभाव है, वह जब अधिक मिर्च वाले पदार्थ खाता है तो उसको प्रसन्नता होती है, सुख होता है और मिर्च की तीक्ष्णता के कारण मुह में, जीभ में जलन होती है, आँखों से और नाक से पानी निकलता है, सिर से पसीना निकलता है यह दृष्ट का ‘तात्कालिक’ फल है। और कुपथ्य के कारण परिणाम में पेट में जलन और रोग, दुःख आदि का होना – यह दृष्टका ‘कालान्तरिक’ फल है ।
इसी प्रकार अदृष्ट के भी दो भेद होते हैं- लौकिक और पारलौकिक । जीते-जी ही फल मिल जाय- इस भाव से यज्ञ, दान, तप, तीर्थ, व्रत, मन्त्र जप आदि शुभ कर्मों को विधि विधान से किया जाय और उसका कोई प्रबल प्रतिबन्ध न हो तो यहाँ ही पुत्र, घन, यश, प्रतिष्ठा आदि अनुकूल की प्राप्ति होना और रोग, निर्धनता आदि प्रतिकूल की निवृत्ति होना यह अदृष्ट का ‘लौकिक’ फल है, और मरने के बाद स्वर्ग आदि की प्राप्ति हो जाय, इस भाव से यथार्थ विधि-विधान और श्रद्धा विश्वासपूर्वक जो यज्ञ, दान, तप आदि शुभकर्म किये जायँ तो मरने के बाद स्वर्ग आदि लोकों की प्राप्ति होना यह अरष्टका ‘पारलौकिक’ फल है। ऐसे ही डाका डालने, चोरी करने, मनुष्य की हत्या करने आदि अशुभ कर्मो का फल यहाँ ही कैद, जुर्माना, फाँसी आदि होना, यह अदृष्ट का ‘लौकिक’ फल है, घोर पापों के कारण मरने के बाद नरकों में जाना और पशु-पक्षी, कीट-पतङ्ग आदि बनना यह अदृष्ट का ‘पारलौकिक’ फल है ।
[ नोट – यहां दृष्टका ‘कालान्तरिक’ फल और अदृष्ट का ‘लौकिक फल’ दोनों फल एक समान ही दीखते हैं, फिर भी दोनों में अन्तर है। जो ‘कालान्तरिक’ फल है, वह सीधे मिलता है, प्रारब्ध बनकर नहीं; परन्तु जो ‘लौकिक’ फल है, वह प्रारब्ध बनकर ही मिलता है ।]
पाप-पुण्य के इस लौकिक और पारलौकिक फल के विषय में एक बात और समझने की है कि जिन पाप कर्मों का फल यहीं कैद, जुर्माना, अपमान, निन्दा आदि के रूप में भोग लिया है, उन पापों का फल मरने के बाद भोगना नहीं पड़ेगा। परन्तु व्यक्ति के पाप कितनी मात्रा के थे और उनका भोग कितनी मात्रा में हुआ अर्थात् उन पाप कर्मों का फल उसने पूरा भोगा या अधूरा भोगा – इसका पूरा पता मनुष्य को नहीं लगता, क्योंकि मनुष्य के पास इसका कोई माप-तौल नहीं है। परन्तु भगवान को इसका पूरा पता है ।
अतः उनके कानून के अनुसार उन पापों का फल यहाँ जितने अंश में कम भोगा गया है, उतना इस जन्म में या मरने के बाद भोगना ही पड़ेगा। इस वास्ते मनुष्य को ऐसी शङ्का नहीं करनी चाहिये कि मेरा पाप तो कम था, पर दण्ड अधिक भोगना पड़ा अथवा मैंने पाप तो किया नहीं पर दण्ड मुझे मिल गया ! कारण कि यह सर्वज्ञ, सर्वसुहृद्, सर्वसमर्थ भगवान का विधान है कि पाप से अधिक दण्ड कोई नहीं भोगता और जो दण्ड मिलता है, वह किसी-न-किसी पाप का ही फल होता है । इस विवेचना को सरल शब्दों में समझने के लिए एक कहानी की और चलते है ।
कर्म का फल
किसी गाँव में एक सज्जन रहते थे । उनके घर के सामने एक सुनार का घर था। सुनार के पास सोना आता रहता था और वह गढ़कर देता रहता था। ऐसे वह पैसे कमाता था। एक दिन उसके पास अधिक सोना जमा हो गया। रात्रि में पहरा लगाने वाले सिपाही को इस बात का पता लग गया। उस पहरेदार ने रात्रि में उस सुनार को मार दिया और जिस बक्से में सोना था, उसे उठाकर चल दिया। इसी बीच सामने रहने वाले सज्जन लघुशंका के लिये उठकर बाहर आये। उन्होंने पहरेदार को पकड़ लिया और कहा कि तू इस बक्से को कैसे ले जा रहा है ? तो पहरेदार ने कहा- तू चुप रह हल्ला मत कर इसमें से कुछ तू ले ले और कुछ मैं ले लूँ ।
सज्जन बोले – मैं कैसे ले लूँ ? मैं चोर थोड़ा ही हूँ ! पहरेदार ने कहा- देख, तू समझ जा मेरी बात मान ले, नहीं तो दुःख पायेगा । पर वे सज्जन माने नहीं। तब पहरेदार ने बक्सा नीचे रख दिया और उस सज्जन को पकड़कर जोर से सीटी बजा दी। सीटी सुनते ही घोर जगह पहरा लगाने वाले सिपाही दौड़कर वहाँ आ गये । उसने सबसे कहा कि यह इस घर से बक्सा लेकर आया है और मैंने इसको पकड़ लिया है। तब सिपाहियों ने घर में घुसकर देखा कि सुनार मरा पड़ा है। उन्होंने उस सज्जन को पकड़ लिया और कानून के हवाले कर दिया। जज के सामने बहस हुई तो उस सज्जन ने कहा कि मैंने नहीं मारा है उस पहरेदार सिपाही ने मारा है । सब सिपाही आपस में मिले हुए थे, उन्होंने कहा कि नहीं, इसी ने मारा है, हमने खुद रात्रि में इसे पकड़ा है, इत्यादि ।
मुकदमा चला। चलते-चलते अन्त में उस सज्जन के लिये फाँसी का हुक्म हुआ | फाँसी का हुक्म होते ही उस सज्जन के मुख से निकला देखो, सरासर अन्याय हो रहा है ! भगवान के दरबार में कोई न्याय नहीं ! मैंने मारा नहीं, मुझे दण्ड हो और जिसने मारा है, वह बेदाग छूट जाय, जुर्माना भी नहीं, यह अन्याय है ! जज पर इसका असर पड़ा कि वास्तव में यह सच्चा बोल रहा है, इसकी किसी तरह से जांच होनी चाहिये। ऐसा विचार करके उस जज ने एक षड्यन्त्र रचा ।
सुबह होते ही एक आदमी रोता चिल्लाता हुआ आता है और कहता है हमारे भाई की हत्या हो गयी, सरकार | इसकी जांच होनी चाहिये। तब जज ने उसी सिपाही को और कैदी सज्जन को मरे हुए व्यक्ति की लाश उठाकर लाने के लिये भेजा। दोनों उस आदमी के साथ वहाँ गये, जहाँ लाश पड़ी थी। खाट पर लाश के ऊपर कपड़ा बिछाया था, खून बिखरा पड़ा था। दोनों ने उस खाट को उठाया और उसे उठाकर ले चले ।
साथ का दूसरा आदमी खबर देने के बहाने आगे दौड़कर चला गया तब चलते-चलते सिपाही ने कैदी से कहा देख उस दिन तू मेरी बात मान लेता तो सोना मिल जाता और फाँसी भी नहीं होती, अब देख लिया सच्चाई का फल ? कैदी ने कहा मैंने तो अपना काम सच्चाई का ही किया था, फाँसी हो गयी तो हो गयी। हत्या की तूने और दण्ड भोगना पड़ा मेरे को। भगवान के यहां न्याय नहीं !
खाट पर झूठ मूठ मरे हुए के समान पड़ा हुआ आदमी उन दोनों की बातें सुन रहा था। उसने खाट पर पड़े-पड़े उन दोनों की बातें लिखली की सिपाही ने यह कहा और कैदी ने यह कहा, जब जज के सामने खाट रखी गयी तो खून-भरे कपड़े को हटाकर वह उठ खड़ा हुआ और उसने सारी बात जज को बता दी कि रास्ते में सिपाही यह बोला और कैदी यह बोला | यह सुनकर जज को बड़ा आश्चर्य हुआ । सिपाही भी हक्का-बक्का रह गया। सिपाही को पकड़कर कैद कर लिया गया । परन्तु जज के मन में सन्तोष नहीं हुआ। उसने कैदी को एकान्त में बुलाकर कहा कि इस मामले में तो मैं तुम्हें निर्दोष मानता हूँ, पर सच-सच बताओ कि इस जन्म में तुमने कोई हत्या की है क्या ? वह बोला बहुत पहले की घटना है। एक दुष्ट था जो छिपकर मेरे घर मेरी स्त्री के पास आया करता था। मैंने अपनी स्त्री को तथा उसको अलग-अलग खूब समझाया। पर वह माना नहीं ।
एक रात वह घर पर था और अचानक मै आ गया। मेरे को गुस्सा आया हुआ था। मैंने तलवार से उसका गला काट दिया और घर के पीछे जो नदी है, उसमें फेंक दिया। इस घटना का किसी को पता नहीं लगा । यह सुनकर जज बोला तुम्हारे को इस समय फाँसी होगी ही मैंने भी सोचा कि मैंने किसी से घूस (रिश्वत) नहीं खायी, कभी बेइमानी नहीं कि, फिर मेरे हाथ से इसके लिये फाँसी का हुक्म लिखा कैसे गया ? अब सन्तोष हुआ । उसी पाप का फल तुम्हें यह भोगना पड़ेगा। सिपाही को अलग फाँसी होगी।
[उस सज्जन ने चोर को पकड़वाकर अपने कर्तव्य का पालन किया था। फिर उसको जो दण्ड मिला है, वह उसके कर्तव्य पालन का फल नहीं है, प्रत्युत उसने बहुत पहले जो हत्या की थी, उस हत्या का फल है। कर्तव्य का पालन करने के कारण उस पाप (हत्या) का फल उसको यही मिल गया, और परलोक के भयंकर दण्ड से छुटकारा हो गया । कारण कि इस लोक में जो दण्ड भोग लिया जाता है, उसका थोड़े में ही छुटकारा हो जाता है, थोड़े में ही शुद्धि हो जाती है, नहीं तो परलोक में बड़ा भयंकर दण्ड भोगना पड़ता है।]
इस कहानी से यह पता लगता है कि मनुष्य के कब किये हुए पाप का फल कब मिलेगा – इसका कुछ पता नहीं । भगवान का विधान विचित्र है। जबतक पुराने पुण्य प्रबल रहते हैं, तब तक उग्र पाप का फल भी तत्काल नहीं मिलता। जब तक पुराने पुण्य खत्म होते हैं, तब उस पाप की बारी आती है। पाप का फल दण्ड तो भोगना पड़ेगा ही, चाहे इस जन्म में भोगना पड़े या जन्मान्तर में ।
भगवत गीता के अनुसार पाप कर्मों से मुक्ति का तरीका
भगवत गीता में पाप और पुण्य के विषय में कई बार बात की गई है। गीता के अनुसार, पाप कर्मों से मुक्ति प्राप्त करने का तरीका निम्नलिखित है:
- कर्म योग (Karma Yoga): भगवत गीता में कहा गया है कि कर्मों को त्याग नहीं करना चाहिए, बल्कि निष्काम भाव से कर्म करना चाहिए। यानी कर्मफल की चिंता किए बिना कर्म करना चाहिए। कर्मयोगी व्यक्ति अपने कर्मों को भगवान को समर्पित करता है और उन्हें फल की चिंता नहीं होती। इस प्रकार कर्मयोगी अपने कर्मों से आसक्ति को त्यागकर मुक्ति को प्राप्त होता है।
- भक्ति योग (Bhakti Yoga): भगवत गीता में भक्ति योग के माध्यम से भगवान के प्रति प्रेम और भक्ति का विकास करने की भी प्रेरणा दी गई है। भक्ति योगी अपने मन, वचन, और कर्म से भगवान की उपासना करता है और उसके प्रति समर्पण भाव रखता है। भक्ति योग के माध्यम से व्यक्ति अपने अंतरंग दुःखों से मुक्त होता है और भगवान के प्रति आत्मीय संबंध का अनुभव करता है।
- ज्ञान योग (Jnana Yoga): भगवत गीता में ज्ञान योग के माध्यम से ज्ञान का महत्व बताया गया है। ज्ञान योगी व्यक्ति आत्मा के अस्तित्व को समझता है और सच्चे ज्ञान के द्वारा भगवान को प्राप्त करता है। ज्ञान योगी को पापों से मुक्ति मिलती है क्योंकि जब वह आत्मा को शुद्ध और अविकारी जानता है, तो उसके सारे पाप ध्वंस हो जाते हैं।
भगवत गीता के अनुसार, ये तीन योग (कर्म योग, भक्ति योग, और ज्ञान योग) एक-दूसरे के साथ मिलकर व्यक्ति को आत्मिक शुद्धि और मुक्ति की प्राप्ति में मदद करते हैं। आत्म-विकास और धार्मिक उन्नति के लिए भगवत गीता के सन्देशों का अनुसरण करना महत्वपूर्ण है।