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आत्मा का रहस्य – आत्मा क्या है, आत्मा का अर्थ ?

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आत्मा क्या है और आत्मा का अर्थ क्या है जैसे प्रश्न सदैव से सभी के लिए एक रहस्य का विषय है। आधुनिक वैज्ञानिक भी लम्बे समय से आत्मा के रहस्य को समझने का प्रयास कर रहे हैं। हिन्दू धर्म में आत्मा, जिसे जीवात्मा भी कहते हैं, का अत्यधिक महत्त्व बताया गया है। कई ग्रंथों में इसके विषय में विस्तार से बताया गया है, विशेषकर नचिकेता और यमराज के संवाद में। आइये आत्मा के विषय में कुछ रोचक तथ्य जानते हैं।

लेख सारिणी

आत्मा का आकार क्या है

आत्मा अति सूक्ष्म है, परमाणुओं से भी सूक्ष्म। जो भी इकाइयां उपलब्ध है, चाहे नैनो मीटर, पिको मीटर आदि, उनसे भी सूक्ष्म। एक सुई की नोक से भी कम जगह पर विश्व की सभी आत्माएं रखी जा सकती हैं। उसे देखा ही नही जा सकता। आत्मा के रहने के स्थान के विषय में ऋषियों ने तीन स्थान बताये हैं – हृदय, मस्तिष्क एवं कंठ।

जीवात्मा किसे कहते है

एक ऐसी वस्तु जो अत्यंत सूक्ष्म है, अत्यंत छोटी है, एक जगह रहने वाली है, जिसमें ज्ञान अर्थात् अनुभूति का गुण है, जिस में रंग रूप गंध भार (वजन) नहीं है, जिसका कभी नाश नहीं होता, जो सदा से है और सदा रहेगी, जो मनुष्य-पक्षी-पशु आदि का शरीर धारण करती है तथा कर्म करने में स्वतंत्र है उसे जीवात्मा कहते हैं।

जीवात्मा के दुःखों का कारण क्या है

जीवात्मा के दुःखों का कारण मिथ्याज्ञान है।

क्या जीवात्मा स्थान घेर सकती है

नहीं, जीवात्मा स्थान नहीं घेरती। एक सुई की नोक पर विश्व की सभी जीवात्माएँ आ सकती हैं।

जीवात्मा की प्रलय मे क्या स्थिति होती है क्या उस समय उसमें ज्ञान होता है

प्रलय अवस्था मे बद्ध जीवात्माएँ मूर्च्छित अवस्था में रही है। उसमें ज्ञान होता है परंतु शरीर, मन आदि साधनो के अभाव से प्रकट नहीं होता।

प्रलय काल मे मुक्त आत्माएं किस अवस्था में रहती है

प्रलय काल में मुक्त आत्माएँ चेतन अवस्था मे रहती है और ईश्वर के आनन्द में मग्न रहती है।

जीवात्मा के पर्यायवाची शब्द क्या क्या है

आत्मा, जीव, इन्द्र, पुरुष, देही, उपेन्द्र, वेश्वानर आदि अनेक नाम वेद आदि शास्त्र में आये हैं।

क्या जीवात्मा अपनी इच्छा से दुसरे शरीर मे प्रवेश कर सकती है

सामान्यता नहीं कर सकती, अपवाद रुप में मुक्त वा योगी आत्मायें कर सकती हैं।

मुक्ति का समय कितना है

ऋग्वेद के १ मंडल, २४ सूक्त, २ मन्त्र के अनुसार मुक्ति का समय १ महाकल्प (३१ नील, १० खरब, ४० अरब वर्ष) है।

जीवात्मा स्त्री है या पुरुष है या नपुंसक है

जीवात्मा तीनो भी नहीं, ये लिंग तो शरीरों के हैं। आत्मा इससे परे होती है।

क्या जीवात्मा ईश्वर का अंश है

नहीं, जीवात्मा ईश्वर का अंश नहीं है। ईश्वर अखण्ड है, उसके अंश (टुकडे) नहीं होते है।

क्या जीवात्मा का कोई भार, रुप, आकार आदि है

नहीं, आत्मा इनसे परे है।

जीवात्मा की मुक्ति एक जन्म में होती है या अनेक जन्म मे होती है

जीवात्मा की मुक्ति एक जन्म मे नहीं अपितु अनेक जन्मो मे होती है।

क्या जीवात्मा मुक्ति मे जाने के बाद पुनः संसार में वापस आती है

हाँ, जीवात्मा मुक्ति में जाने का बाद पुनः शरीर धारण करने के लिए वापस आती है।

जीवात्मा के लक्षण क्या है

जीवात्मा के लक्षण इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, ज्ञान, सुख, दुःख की अनुभूति करना है।

क्या जीवात्मा कर्मो का फल स्वयं भी ले सकती है

हाँ, जीवात्मा कुछ कर्मो का फल स्वयं भी ले सकती है जैसै चोरी का दण्ड भर कर। किंतु अपने सभी कर्मो का फल जीवात्मा स्वयं नहीं ले सकता है।

क्या जीवात्मा कर्म करते हुऐ थक जाती है

नहीं, जीवात्मा कर्मो को करते हुए हुए थकती नहीं है अपितु शरीर, इन्द्रियों आदि का सामर्थ्य घट जाता है।

जीवात्मा में कितनी स्वाभाविक शक्तियाँ हैं

उनमें २४ स्वाभाविक शक्तियाँ होती हैं।

शास्त्रों में आत्मा को जानना क्यों आवश्यक बताया गया है

जीवात्मा के स्वरूप को जानने से शरीर, इन्द्रिय और मन पर अधिकार प्राप्त हो जाता है। परिणाम स्वरुप आत्मज्ञानी बुरे कामों से बच कर उत्तम कार्यों को ही करता है।

जीवात्मा का स्वरूप (गुण, कर्म, स्वभाव, लम्बाई, चौड़ाई, परिमाण) क्या है: जीवात्मा अणु स्वरूप, निराकार, अल्पज्ञ, अल्पशक्तिमान है। वह चेतन है और कर्म करने मे स्वतंत्र है। उसका आकार बाल की नोंक के दस हजारवें भाग से भी सूक्ष्म है तथा वो अपनी विशेष स्वतंत्र सत्ता रखती है।

जीवात्मा शरीर मे कहाँ रहती है

जीवात्मा मुख्य रूप से शरीर के एक विशेष स्थान, जिसे ह्रदयादेश कहते हैं, वहां रहती है। किन्तु गौण रूप से नेत्र, कण्ठ इत्यादि स्थानों में भी वह निवास करती है।

क्या मनुष्य, पशु-पक्षी, कीट-पतंग आदि शरीरों में जीवात्मा भिन्न-भिन्न होते है या एक ही प्रकार के होते है

आत्मा तो अनेक है किन्तु हर एक आत्मा एक समान है। मनुष्य, पशु-पक्षी, कीट-पतंग आदि के शरीरो में भिन्न-भिन्न जीवात्माएं नहीं बल्कि एक ही प्रकार की जीवात्माएं है। भेद शरीरों का है, आत्माओ का नहीं।

जीवात्मा शरीर क्यों धारण करती है, कब से कर रही है और कब तक करेगी

जीवात्मा अपने कर्मफल को भोगने और मोक्ष को प्राप्त करने के लिए शरीर को धारण करती है। संसार के प्रारम्भ से यह शरीर धारण करती आयी है और जब तक मोक्ष को प्राप्त नहीं होता, तब तक शरीर धारण करती रहेगी।

क्या मरने के बाद जीव भूत, प्रेत, डाकन आदि भी बनकर भटकता है

मरने के बाद जीव न तो भूत, प्रेत बनता है और न ही भटकता है। यह लोगों के अज्ञान के कारण बनी हुई मिथ्या मान्यता है।

शरीर में जीवात्मा कब आती है

जब गर्भ धारणा होता है तभी जीवात्मा आ जाती है। कुछ विद्वानों की धारणाये हैं कि जीवात्मा गर्भ के तीसरे, आठवें या नवें महीने में आती है।

क्या जीव और ब्रह्म (ईश्वर) या आत्मा और परमात्मा एक ही है

जीव और ब्रह्म एक ही नहीं है अपितु दोनों अलग-अलग पदार्थ हैं जिनके गुण कर्म स्वभाव भिन्न-भिन्न हैं।

क्या जीव ईश्वर बन सकता है

जीव कभी भी ईश्वर नहीं बन सकता है।

क्या जीवात्मा एक वस्तु है

हाँ, जीवात्मा एक चेतन वस्तु है। वैदिक दर्शनों में वस्तु उसको कहा गया है जिसमे कुछ गुण, कर्म, स्वभाव इत्यादि होते हैं।

क्या जीवात्मा शरीर को छोड़ने में और नए शरीर को धारण करने में स्वतंत्र है

जीवात्मा नए शरीर को धारण करने में स्वतंत्र नहीं है अपितु ईश्वर के अधीन है। ईश्वर जब एक शरीर में जीवात्मा का भोग पूरा हो जाता है तो जीवात्मा को निकाल लेता है और उसे नया शरीर प्रदान करता है। मनुष्य आत्माहत्या करके शरीर छोड़ने में भी स्वतंत्र है।

निराकार अणु स्वरुप वाला जीवात्मा इतने बड़े शरीरों को कैसे चलता है

जैसे बिजली बड़े-बड़े यंत्रों को चला देती है, ऐसे ही निराकार होते हुए भी जीवात्मा अपनी प्रयत्न रुपी चुम्बकीय शक्ति से शरीरों को चला देती है।

क्या मनुष्य के मरने के बाद ८४ लाख योनियों में घूमने के बाद ही पुनः मनुष्य जन्म मिलता है

नहीं, मनुष्य के मृत्यु के बाद तुरंत अथवा कुछ जन्मों के बाद (अपने कर्फल भोग अनुसार) मनुष्य जन्म मिल सकता है।

शरीर छोड़ने के बाद कितने समय में जीवात्मा दूसरा शरीर धारण करती है

जीवात्मा शरीर छोड़ने के बाद ईश्वर की व्यवस्था के अनुसार कुछ पलों में शीघ्र ही दूसरे शरीर को धारण कर लेती है। यह सामान्य नियम है।

क्या इस नियम का कोई अपवाद भी होता है

हाँ, इस नियम का अपवाद भी होता है। मृत्यु के उपरांत जब जीवात्मा एक शरीर को छोड़ देती है लेकिन अगला शरीर प्राप्त करने के लिए अपने कर्मानुसार किसी माता का गर्भ उपलब्ध नहीं होता, तो कुछ समय तक ईश्वर की व्यवस्था में रहती है, बाद में अनुकूल माता-पिता मिलने से ईश्वर की व्यवस्थानुसार उनके यहाँ पुनः जन्म लेती है।

जीवात्मा की मुक्ति क्या है और कैसे प्राप्त होती है

प्रकृति के बंधन से छूट जाने और ईश्वर के परम आनंद को प्राप्त करने का नाम मुक्ति है। यह मुक्ति वेदादि शास्त्रों में बताये गए योगाभ्यास के माध्यम से समाधि प्राप्त करके समस्त अविद्या के संस्कारों को नष्ट करके ही मिलती है।

मुक्ति में जीवात्मा की क्या स्थिति होती है और वह कहाँ रहती है तथा बिना शरीर इन्द्रियों के कैसे चलती, खाती और पीती है

मुक्ति में जीवात्मा स्वतंत्र रूप से समस्त ब्रह्माण्ड में भ्रमण करती है और ईश्वर के आनंद से आनंदित रहती है। वो ईश्वर की सहायता से अपनी स्वाभाविक शक्तियों से घूमने फिरने का काम करती है। मुक्त अवस्था में जीवत्मा को शरीरधारी जीव की तरह खाने पीने की आवश्यकता नहीं होती है।

जीवात्मा की सांसारिक इच्छायें कब समाप्त होती है

जब ईश्वर की प्राप्ति हो जाती है और संसार के भोगों से वैराग्य हो जाता है तब जीवात्मा की संसार के भोग पदार्थ को प्राप्त करने की इच्छायेंं समाप्त हो जाती हैं।

जीवात्मा वास्तव में क्या चाहती है

जीवात्मा पूर्ण और स्थायी सुख, शांति, निर्भयता और स्वतंत्रता चाहती है।

भोजन कौन खाता है, शरीर या जीवात्मा

केवल जड़ शरीर भोजन को खा नहीं सकता और केवल चेतन जीवात्मा को भोजन की आवश्यकता नहीं है। शरीर में रहता हुआ जीवात्मा मन इन्द्रियादि साधनों से कार्य लेने के लिए भोजन खाती है।

एक शरीर में एक ही जीवात्मा रहती है या कई और जीवात्मा भी रहती है

एक शरीर में कर्ता और भोक्ता एक ही जीवात्मा रहती है। हाँ, दूसरे शरीर से युक्त दूसरी जीवात्मा किसी शरीर में रह सकती है, जैसे माँ के गर्भ में उसकी संतान।

जीवात्मा शरीर में विभू (व्यापक) है या परिच्छन (एकदेशी)

शरीर में जीवात्मा एकदेशी है, व्यापक नहीं। यदि व्यापक होती तो शरीर के घटने बढ़ने के कारण यह नित्य नहीं रह पायेगी।

जीव की सफलता क्या है

जीवात्मा की सफलता परमात्मा का साक्षातकार करके परम शांतिदायक मोक्ष को प्राप्त करना है।
क्या जीवात्मा को प्राप्त होने वाले सुख दुःख अपने ही कर्मों के फल होते है या बिना ही कर्म किये दूसरों के कर्मों के कारण भी सुख दुःख मिलते हैं: जीवात्मा को प्राप्त होने वाले सुख दुःख मूलतः अपने कर्मों के फल होते है किन्तु अनेक बार दूसरे के कर्मों के कारण भी परिणाम प्रभाव के रूप में (फल रूप में नहीं) सुख दुःख प्राप्त हो जाते है।

किन लक्षणों के आधार पर यह कह सकते है की किसी व्यक्ति ने जीवात्मा का साक्षात्कार कर लिया है

मन एवं इन्द्रियों पर अधिकार करके सत्यधर्म न्यायाचरण के माध्यम से शुभकर्मों को ही करना और असत्य अधर्म के कर्मों को न करना तथा सदा शांत, संतुष्ट और प्रसन्न रहना इस बात का द्योतक होता है कि इस व्यक्ति ने आत्मा का साक्षात्कार कर लिया है।

क्या ईश्वर जीवात्मा के पाप क्षमा करते है

ईश्वर कभी किसी मनुष्य के किए हुए पाप कर्म को क्षमा नहीं करते। मनुष्य जो पाप कर्म करता है उसका फल उसे दुख रूप में अवश्य ही भोगना पडता है। जो मनुष्य यह सोचता है कि उसके द्वारा किए जा रहे पाप कर्म को कोई देख नहीं रहा है, यह उस मनुष्य की सबसे बडी अज्ञानता है क्योंकि ईश्वर कण कण में विद्धमान है। वे स्वंय उस पाप कर्म को करने वाले मनुष्य के अंदर बैठे हुए मनुष्य द्वारा मन, वचन और इन्द्रियों के द्वारा किए जा रहे पाप व पुण्य कर्म को देख रहे है। जो मनुष्य पाप कर्म कर देता है परंतु बाद में उसका पश्चाताप करता है और आगे से पाप कर्म नहीं करने की प्रतिज्ञा करता है, प्रति दिन ईश्वर की स्तुति प्रार्थना और उपासना करता है, ईश्वर उस मनुष्य की आत्मा के बल को इतना बढा देते है कि जब दुख उसके जीवन में आता है तो वह दुख से घबराता नहीं है।

योगीराज श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है – अवश्यमेव हि भोक्तव्यं कृतं कर्मः शुभाशुभम्। अर्थात: मनुष्य जो भी शुभ और अशुभ कार्य करता है उनका फल उसे सुख व दुख रूप में अवश्य ही भोगना पडता है। अतः यदि आपसे कोई कहे कि वो ईश्वर से आपके पाप कर्म को क्षमा करा देगा, अथवा तीर्थ करने या दान देने पर ईश्वर आपके पाप कर्म को क्षमा कर देंगे, तो ये समझना चाहिए कि वो आपके साथ छल कर रहा है। ईश्वर अपनी न्याय व्यवस्था में किसी की सहायता नहीं लेते। वे सदैव स्वायत्त और स्वतंत्र हैं।

Written by

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