यदि मूल रूप में देखा जाये तो कुण्डलिनी (kundalini ) ही समस्त अध्यात्म, तंत्र, मंत्र, यंत्र, योग और धर्म का केंद्र बिंदु है। हमारे शरीर का वह द्वार है, जहा से प्रवेश करने के उपरांत ही हमारे आध्यात्मिक जीवन की शुरुआत होती है।
भारतीय संस्कृति की मुख्य देंन होने के बाद भी जान सामान्य को इसके बारे में अत्यंत अल्प ज्ञान है। मूलतः इसका कारण इसको लेकर रचा गया आडम्बर भी हो सकता है।
सभ्यता के शुरुआती समय जब अन्य सभ्यताये अपने आस पास के बारे में ज्ञान संजोने का प्रयास कर रही थी। वही भारतीय लोग अपने शरीर के अवयवों का अध्यन कर उसे विकसित करने की पद्धती को विकसित करने का प्रयास कर रहे थे।
तंत्रिका तंत्र ( नाड़ी ) के विषय में विस्तृत वर्णन किया गया है,और जिन केन्द्रो पर यह नाडिया घनीभूत होती है। उन्हें चक्र के रूप में व्यक्त किया गया है।
कैसे मानवीय चेतना को उसके उच्चतम स्तर तक ले जाया जाय ताकि सम्पूर्ण ब्रह्मांडीय ज्ञान को अपनी चेतना में धारण करने योग्य हो सके। भारतीय दर्शन में इसे ही निर्वाण अथवा मोक्ष की अवस्था माना गया है।
परंतु सभी का प्रारम्भ बिंदु कुण्डलिनी को ही माना गया है। इसके जागरण के पश्चात ही अन्य चक्रो की जागरण प्रक्रिया आरम्भ होती है। जिससे हम विभिन्न शक्तियों और अनुभवों को प्राप्त करते है।
पूर्ण प्रक्रिया को कालांतर में अनेक विधियों द्वारा संपन्न करने की पढतिया विकसित हुई जैसे कि तंत्र, मन्त्र, यन्त्र और योग जो बाद में धर्म का भी आधार बनी।
इस विषय यथा संभव तार्किक रहते हुये वर्णन का प्रयास किया गया है। साथ ही जगह जगह प्रमुख मान्यताओं को भी स्थान दिया गया है।
इसके तारतम्य के आरंभ को समझने के लिये चक्रो को जानना और समझना आवश्यक है। अतः Chakras पर क्लिक कर चक्रो से सम्बंधित अपनी जिज्ञासा शांत करे।
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What is kundalini and it’s position | कुण्डलिनी और उसकी स्थिति
इसकी शक्ति को ‘कॉसमिक एनर्जी, ‘ ‘सर्पेट-पॉवर ‘ अथवा विश्व व्यापिनी विद्युत शक्ति भी कहते हैं । यह एक अग्निमय गुप्त शक्ति है अत: इसे ‘सर्पेट फायर ‘ भी कहा गया है।
प्रयोगो से पाया गया है, कि प्रकाश की गति ब्रह्माण्ड में सबसे अधिक है। किन्तु माना जाता है, कि जिस प्रकार क्वांटम भौतिकी में इंटेंगल पार्टिकल्स ( Quantum entanglement ) के मध्य कोई भी सुचना का अदान प्रदान प्रकाश की गति से भी अधिक तीव्र गति से होता है।
उसी प्रकार का व्यवहार शक्ति जाग्रत होने पर भी देखा जाता है। यह शक्ति का नाम कुण्डलिनी होने का कारण इसका साढ़े तीन लपेटे खाया हुआ कुटिल आकार है।
सर्प के कुण्डली मारे रहने के समान ही यह शक्ति भी कुण्डली मारे मूलाधार में पड़ी रहती है।
गुद्य प्रदेश में गुदा से दो अंगुल पहले व लिंगमूल से दो अंगुल पहले, बीच में (चार अंगुल विस्तार वाले मूलाधार में)
मूलाधार के कंद में दक्षिणावृत्त से साढ़े तीन फेरे लगाए हुए।
नीचे को मुख किए सर्पिणी के सदूश अपनी ही पूंछ को अपने मुख में दिए हुए सुषुम्ना के विवर में शक्ति का वास है। यह सभी नाडियों को स्वयं में लपेटे हुए है।
सम्पूर्ण ब्रह्मांड में जितनी भी शक्तियां विद्यमान हैं, उन सबको ईश्वर ने मनुष्य शरीर रूपी पिंड में एक स्थान पर एकत्रित कर दिया है । यही शक्ति कुण्डलिनी है।
गुदा व लिंग के बीच में स्थित योनिमंडल/कंद में यह शक्ति वास करती है। सुषुम्ना नाड़ी का मुख त्रिकोण साधारणावस्था में बन्द रहता है।
अत: यह शक्ति प्रवाह में नहीं रहती, सुप्त या अविकसित अवस्था में रहती है । इस सुषुम्ना नाड़ी के दाएं-बाएं जाने वाली पिंगला व इड़ा नाड़ियों में प्राणशक्ति निरंतर प्रवाह में रहती है।
योग आदि उपायों द्वारा सुषुम्ना का मुख त्रिकोण खोलकर शक्ति का प्रवाह ऊपर की ओर किया जाता हैं। यह अतिसूक्ष्म व दिव्य शक्ति वाली विद्युत ही कुण्डलिनी है।
जो समस्त शक्तियों व चमत्कारों की आधारभूता है। ध्वनि तथा वर्ण कुण्डलिनी शक्ति के ही सार रूप हैं। अत: कुण्डलिनी विकास के ही मन्त्र हैं।
kundalini awakning methods | कुण्डलिंनगी जागरण के उपाय
प्रत्येक व्यक्ति के गुण, स्वभाव व प्रकृति अलग-अलग होते हैं। व्यक्ति के संस्कार और विकारों की भी अलग-अलग स्थितियां रहती हैं।
मानसिकता, सामर्थ्य, पात्रता व लगन भी विभिन्न स्तरों की होती है। प्रत्येक व्यक्ति का भाग्य भी अलग होता है।
अत: निश्चित अवधि में एक ही मार्ग अनुकूल नहीं होता। कोई तंत्र मार्ग से सफल होने की सम्भावनाओं वाला होता है, कोई मन्त्र मार्ग से।
कोई हठयोग से तो कोई ध्यान योग से | इतना ही नहीं, सम्भव है, किसी को एक ही ‘झटके’ में सफलता मिल जाये और कोई अनगिनत बार भी चूक जाए।
यह भी सम्भव है, कि पूरे जीवन में भी सफलता हाथ न लगे। ऐसे लोग भी हो सकते हों या हुए हैं, जो जन्म जन्मान्तरों के बाद सफलता प्राप्त करते हैं।
संक्षेप में कुण्डलिनी जागरण के मूल रूप से योग और मंत्र दो ही उपाय हैं।
kundalini awakning yoga | योग द्वारा कुण्डलिनी जागरण
जैसा कि नाम ही से स्पष्ट है, योग का अर्थ सामान्य भाषा में जोड़ना या बढ़ाना है। अपने केन्द्रियकरण को, नियंत्रण को, मनोबल, आत्मबल व अपनी शक्तियों पर अपना नियंत्रण करना या बढ़ाना।
इस प्रकार योग एक पुल है जो स्व को परम से जोड़ता है। योग का अर्थ मात्र शारीरिक कलाबाज़ियां नहीं है । जैसा कि प्राय: समझ लिया जाता है।
हटठ योग, ध्यान योग, ज्ञान योग, सांख्य योग, कर्मयोग, भक्ति योग, प्रेमयोग के नाम आपने भी सुने होंगे। ये सभी योग की विभिन्न प्रणालियां हैं।
इनमें हठयोग व ध्यानयोग कुण्डलिनी जागरण के लिए अधिक उपयोगी हैं। ध्यानयोग में कुण्डलिनी जागृत कर षट्चक्र भेदन का विधान है।
जिनको भेदा जाना है, उनको भली प्रकार जानना अनिवार्य है। यही छ: चक्रों को जानने का महत्त्व है। सोलह आधारों द्वारा मन को प्रारम्भ में एकाग्र करने में सहजता रहती है।
दृष्टि की स्थिरता बढ़ती है, तथा पात्रता, शुद्धि, आरोग्यता, बल आदि लाभ होते हैं।
ध्यान योग में आसन की आवश्यकता बैठकर ध्यान करने के लिए पड़ती है। ताकि एक ही मुद्रा में सुखपूर्वक, बिना हिले-डुले दीर्घकाल तक बैठा जा सके और थकान आदि के कारण एकाग्रता या ध्यान भंग न होने पाए।
आसन की सिद्धि हो जाने पर आघात नहीं लगता। मौसम, कष्ट आदि को सहने की सामर्थ्य शरीर में आ जाती है। पद्मासन, सिद्धासन, समासन, स्कास्तिकासन, वज्रासन, गौमुखासन, अर्ध-पद्मासन तथा सरलासन आदि प्रमुख हैं।
इन आसनों के साथ मुख्य रूप से ‘ मूलाधार बन्ध’ लगाना अनिवार्य होता है। आवश्यकतानुसार ‘उड्डियान बन्ध’ तथा “जालंधर बंध’ भी लगाए जाते हैं। बिना मूलाधार बन्ध लगाए ‘कुण्डलिनी जागरण का प्रयास निरापद नहीं होता।
इसमें कुण्डलिनी के जागृत होकर ऊपर उठंने के आघात से वीर्य या मूत्र निकल जाने की तीव्र आशंका रहती है तथा अन्य उपद्रव भी संभावित होते हैं। अतः ‘मूलाधार बन्ध ‘ अवश्य लगाना चाहिए।
आसन के साथ मूलबन्ध, उड़ियान बन्ध, जालंधर बन्ध भी होने चाहिएं। इसके साथ ही प्राणायाम द्वारा श्वास को रेचक, पूरक एवं कुम्भक से नियंत्रित कर मनो भावो को भी नियंत्रित करना आवश्यक है।
ध्यान के लिये दो लक्ष्यों में आन्तरिक 6 चक्र तथा बाह्य लक्ष्य नासिकाग्र, भ्रूमध्य आदि रहते हैं। इन्हीं लक्ष्यों पर दृष्टि व ध्यान को एकाग्र किया जाता है।
अत: इनको “लक्ष्य’ कह कर पुकारा गया है। पांचों आकाश ध्यान लगने के बाद शरीर के भीतर दिखाई पड़ने वाले क्रमश: ज्योतिमान घटक हैं जो ‘ ध्यान यात्रा’ के सुचारु व सही दिशा में जाने के लक्षण हैं।
kundalini awakning mantra | मंत्र द्वारा कुण्डलिनी जागरण
जागरण का अन्य मार्ग मंत्र उच्चारण द्वारा भी मन गया है। इस विधि में विशेष मंत्रो को सही क्रम में उच्चारित करने से विशेष आवृत्ति का नाद उत्पन्न होता है।
जिसके प्रतिक्रिया स्वरुप कुण्डलिनी अनुनादित होती हुई उर्धव गति की और अग्रसर होती है।
मानसिक मंत्र जाप विधि के अनुसार दोनों पैरों की एडियों पर शरीर को तोलकर स्वास्तिकासन में बैठें (बाएं पैर की एड़ी को सिद्ध आसन की भांति योनि प्रदेश/सीवन पर दृढ़ता से लगाएं।
फिर दाहिने पैर की एड़ी को बाएं पैर की एड़ी पर स्थापित ‘कर पूरे शरीर को दोनों एड़ियों के आधार पर तोल लें।
सिद्धासन और इसमें यही अन्तर है कि सिद्धासन में एक एड़ी योनि प्रदेश को दबाती है जबकि दूसरी उपस्थ पर रहती है और स्वास्तिकासन में दोनों एडिियां ही योनि प्रदेश व गुदा को दबाती/शरीर के नीचे रहती हैं।
इस प्रकार मूलाधार पर भरपूर दबाव पड़ता है। किन्तु इस आसन को लगाने से पूर्व मूलबन्ध का प्रबल अभ्यास आवश्यक है।
इस आसन को यदि मूलबन्ध के बिना लगाएं तो नपुंसकत्व की सम्भावना भी रहती है, और मूलाधार के या कुण्डलिनी के जागरण की सम्भावनाएं भी न्यून हो जाती हैं।
कमर, गर्दन व सिर समसूत्र में रखें। तीनों बन्धों को दृढ़तापूर्वक लगाएं अथवा जालन्धर को छोड़ शेष दो बन्धों को ही लगाएं ।
इन्द्रियों को मन सहित अन्तर्मुखीकर दूंठ की भांति निश्चल होते हुए अधखुले नेत्रों से भ्रूमध्य पर देखें ( शाम्भवी मुद्रा)। इसी मुद्रा में खेचरी मुद्रा शामिल रहे तो प्रभाव और बढ़ जाता है।
तत्पश्चात “शिव सिद्ध शरण’ मन्त्र को मन में ही 7 बार बोलकर मन ही में सात बार सुनें । तब ‘ ॐ ऐं हीं श्रीं क्लीं स्वाहा ‘ मन्त्र को मन ही में बोलते व सुनते रहें।
शनैः शनै: ऐसा अभ्यास करें कि बोलें एक ही बार और बार-बार उसकी प्रतिध्वनि भीतर से सुनते रहें (इसके लिए ध्यान की तीव्रता की आवश्यकता होती है)।
ऐसा संभव न हो तो इस मन्त्र को भी सात बार बोलकर भीतर से ही सुनने के बाद ‘सो5हम्’ मन्त्र का ही चिन्तन करते रहना चाहिए।
इस प्रकार कुण्डलिनी जागरण की यह विधि ध्यान योग और मन्त्र उपाय दोनों ही का सम्मिलित रूप है।
अनुभवियों के अनुसार इस प्रक्रिया में सर्वप्रथम दिव्य गन्धों की और फिर दिव्य प्रकाश की अनुभूति होती है। अंततः कुण्डलिनी जागृत हो जाती है।
Shiv Puran Method | शिव पुराण में वर्णित विधि
रात्रि के दूसरे प्रहर ( अर्धरात्री) में श्मशान अथवा किसी निर्जन एकांत स्थान पर, अथवा घर ही के शुद्ध, हवादार, एकांत कक्ष में।
पर्वत की चोटी, पवित्र नदी का तट, वन, तीर्थ स्थान, सरोवर, श्मशान, भूगर्भ ( तहखाना ) या गुफा आदि ध्यान साधनाओं के सर्वोत्तम स्थान माने गए हैं।
पद्मासन अथवा सिद्धासन लगाकर चर्मासन पर बेठें। तीन प्राणायामों द्वारा मन को स्थिर करें। फिर त्रिबन्ध लगाकर दोनों हाथों के अंगूठों को कानों में डालें।
तजर्नियों से दोनों नेत्रों को ढकें तथा मध्यमाओं से दोनों नासापुटों को दबाएं और अनामिकाओं से मुख को बन्द करें।
यदि प्राणायाम का अभ्यास है, तो अन्तर्कुम्भक करके ऐसा करें। यदि नहीं है, तो उंगलियों को इस प्रकार स्थापित करें कि नासिका से श्वांस ली जा सके व छोड़ी जा सके।
किन्तु श्वांस प्रश्वांस यथा सम्भव गहरे और धीमी गति में विलम्ब के साथ हों, जिससे मन की एकाग्रता में सहायता मिले)।
अब अपने कानों के भीतर होने वाली गड़गड़ाहट अथवा अग्नि के धधकने के समान उत्पन्न होने वाली ध्वनि पर ध्यान केन्द्रित करें। मन से अन्य सभी विकल्प हटा दें।
Experiances during kundalini awakning | कुण्डलिनी जागरण के अनुभव
शिव संहिता के सूत्रानुसार शरीर ब्रह्मांड संज्ञक है। जो कुछ इस ब्रह्मांड में है, वह सब इस शरीर में भी है। अत: ध्यान द्वारा शरीर ही में ब्रह्मांड दर्शन हो जाता है।
अभ्यास के दृढ़ हो जाने पर शरीर के भीतर की गड़गड़ाहट समाप्त होकर नदियों में जल बहने की ध्वनि के समान स्पष्ट नाड़ियों में रक्त बहने की ध्वनि सुनाई देने लगती है।
जैसे-जैसे श्रोत्र शक्ति व केन्द्रियकरण बढ़ता है अन्य भीतरी सूक्ष्म ध्वनियां भी स्पष्ट होती चली जाती हैं। अन्त में जब शंख, घंटा आदि के नाद सुनाई देने पड़ें तो साधक को सिद्धि के निकट समझना चाहिए।
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