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मीरा बाई का जीवन परिचय – जन्म, समाधी और इतिहास

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मीरा बाई का जीवन परिचय – Meera Bai in Hindi

भक्त शिरोमणि मीरा बाई का इतिहास और मीरा बाई का जीवन परिचय इन हिंदी आपको इस पोस्ट के माध्यम से मिल जायेगा. इसमें हमने मीरा बाई का जन्म, मीरा बाई की समाधि और मीरा बाई की जीवनी को सम्पूर्ण रूप से बतलाया है –

मीरा एक सन्त, दार्शनिक एवं मनीषी थी। अगर इतिहास के पन्नो में हम भक्ति योग की खोज करें तो मीरा बाई के चरित्र से बढ़िया शायद ही कोई उदहारण मिले। उसे अखिल ब्रह्माण्ड में कृष्ण के दर्शन होते थे। उसके लिए वृक्ष पत्थर, लता, फूल, पक्षी- ये सभी कृष्णमय थे। वह बहुमुखी प्रतिभा की स्वामिनी तथा उदारचरित्र महिला थी। ऐसे किसी व्यक्ति की खोज अत्यन्त दुष्कर है जो उसके समकक्ष हो। उसके व्यक्तित्व में एक विलक्षण आकर्षण था। वह एक राजकुमारी थी और राजकुमारी होते हुए भी उसने अपने उच्च पद और उसके अनुरूप सुख-सुविधा तथा भोग-विलास का परित्याग कर अपने लिए निर्धनता, तप, त्याग,  तथा वैराग्यपूर्ण जीवन का चयन किया। उसने अपने सम्मुख उपस्थित बाधाओं और कठिनाइयों का सामना साहस तथा निर्भीकता के साथ किया। दृढ संकल्प वाली मीरा अपने निश्चय पर सदैव अटल रही।

मीरा बाई का जन्म

मीरा को राधा का अवतार कहा जाता है। उनका जन्म सन् 1499 में राजस्थान स्थित मारवाड़ के एक छोटे राज्य मेड़ता में कुर्खी गाँव में हुआ था। वह रतनसिंह रणवीर की पुत्री तथा मेड़ता के दूदा जी की पौत्री थी। मेड़ता के रणथोर विष्णु के परम भक्त थे। मीरा का पालन-पोषण वैष्णव-मत प्रभावित वातावरण में हुआ था, जिसके फलस्वरूप वह भगवान कृष्ण के भक्ति मार्ग की ओर उन्मुख हो गयी। चार वर्ष की अल्पायु में ही उसमें धार्मिक प्रवृत्ति के दर्शन होने लगे। एक बार उसके निवास स्थान के सामने से कोई बारात जा रही थी। दूल्हा आकर्षक परिधान धारण किये हुए था। बालिका मीरा ने उसे देखकर अपनी माँ से बाल-सुलभ सहजता से पूछा- माँ, मेरा दूल्हा कौन है?’ मीरा की माँ मुस्करा उठीं। उन्होंने कुछ विनोदपूर्ण तथा कुछ गाम्भीर्य- मिश्रित भाव से श्रीकृष्ण की प्रतिमा की ओर संकेत करते हुए कहा- ‘मेरी प्रिय मीरा, यह सुन्दर प्रतिमा ही तुम्हारा दूल्हा है।”

अब बालिका मीरा कृष्ण की प्रतिमा से अत्यधिक प्रेम करने लगी। उसका अधिकांश समय प्रतिमा के प्रसाधन में ही व्यतीत होता था। वह प्रतिमा का पूजन करती, उसके साथ सोती, उसके चतुर्दिक नृत्य करती और उसके सम्मुख मधुर गीत गाती। प्रतिमा के साथ उसका वार्तालाप भी होता था।

मीरा बाई का विवाह और ससुराल

मीरा के पिता ने मेवाड़ स्थित चित्तौड़ के राणा कुम्भा के साथ मीरा के विवाह का आयोजन किया। मीरा एक कर्तव्यपरायण पत्नी थी। वह अपने पति के आदेश का निष्ठापूर्वक पालन करती थी। गृह कार्य से मुक्त होकर वह प्रतिदिन भगवान कृष्ण के मन्दिर में चली जाती तथा पूजन के पश्चात् उनकी प्रतिमा के समक्ष गायन तथा नृत्य किया करती। वह लघु विग्रह उठकर मीरा का आलिंगन करता, वंशी बजाता तथा उसके साथ वार्तालाप करता था। ईर्ष्या आदि सांसारिक कालुष्य से ग्रस्त राणा की माँ तथा राजप्रासाद की कुछ अन्य महिलाएँ मीरा के इस आचरण को उचित नहीं समझती थीं। मीरा के प्रति उनके मन में आक्रोश के भाव थे। मीरा की सास प्राय: उसकी भर्त्सना किया करती तथा उसे दुर्गा की पूजा करने के लिए विवश किया करती थी, किन्तु मीरा का निश्चय सुदृढ़ था। उसने कहा, ‘मैंने अपना जीवन अपने प्रेमी भगवान कृष्ण को अर्पित कर दिया है।”

मीरा की ननद एक षड्यन्त्र रचकर निर्दोष मीरा की निन्दा करने लगी। उसने राणा को सूचित किया कि मीरा कुछ लोगों से गुप्त रूप से प्रेम करती है और उसने मीरा को उसके प्रेमियों के साथ मन्दिर में स्वयं देखा है। उसने राणा से यह भी कहा कि यदि वह उसके साथ कभी रात को मन्दिर में चलें, तो वह उन्हें उसके प्रेमियों को दिखा भी देगी। उसने राणा से यहाँ तक कह डाला कि मीरा ने अपने आचरण से चित्तौड़ के राणा परिवार की प्रतिष्ठा को कलंकित कर दिया है। राणा कुम्भा क्रोधोन्मत्त हो उठा।

हाथ में तलवार लिये वह मीरा के आवास की ओर दौड़ पड़ा। सौभाग्य से मीरा अपने कक्ष में नहीं थी। राणा के एक दयालु सम्बन्धी ने उन्हें शान्त करते हुए कहा, ‘राणा, शीघ्रता मत करो। आवेश में कुछ करने से तुमको भविष्य में पश्चात्ताप करना होगा। घटनाओं के सतर्कतापूर्ण निरीक्षण के पश्चात् ही वास्तविकता के सम्बन्ध में किसी निष्कर्ष पर पहुँचना चाहिए। मीरा एक महान भक्त महिला है। जो कुछ तुमने सुना है, वह उसके विरुद्ध निन्दा का एक मिथ्या अभियान भी हो सकता है। मीरा के सर्वनाश के लिए कुछ ईर्ष्यालु महिलाओं का यह एक षड्यन्त्र भी हो सकता है। इस समय तुम शान्त रहो।’

राणा कुम्भा अपने सम्बन्धी के इस विवेकपूर्ण परामर्श से सहमत हो गये। राणा की बहन उन्हें आधी रात को मन्दिर में ले गयी। जब राणा द्वार खोलकर मन्दिर के भीतर गये, तब उन्होंने वहाँ मीरा को एकाकी पाया। वह आनन्दातिरेक में श्रीकृष्ण के विग्रह में वार्तालाप कर रही थी। राणा ने मीरा से पूछा, ‘मीरा, तुम इस समय किससे बात कर रही हो? अपने प्रेमी को मेरे सामने लाओ।’ मीरा ने उत्तर दिया, ‘मेरे हृदय को चुराने वाला स्वामी तो यहीं बैठा है।’ इतना कह कर वह मूच्छित हो गयी।

मीरा बाई का साधुओं के प्रति आदर सम्मान

कुछ लोगों ने यह मिथ्या प्रचार किया कि मीरा साधुओं से निस्संकोच मिला-जुला करती है। निस्सन्देह उसके हृदय में साधुओं के प्रति आदर तथा सम्मान की भावना थी और वह उनसे बिना किसी झिझक के मिलती-जुलती थी। मीरा ने इस अर्थहीन अपकीर्ति की ओर कभी ध्यान नहीं दिया। वह सर्वदा अडिग तथा अक्षुब्ध रही।

मीरा बाई ​और भक्ति

राणा तथा उसके सम्बन्धियों द्वारा मीरा को कई प्रकार से उत्पीड़ित किया गया। उसके साथ वही व्यवहार किया गया जो हिरण्यकशिपु ने अपने पुत्र प्रह्लाद के प्रति किया था। जिस तरह भगवान हरि ने प्रहलाद की रक्षा की, उसी प्रकार श्रीकृष्ण मीरा की रक्षा के लिए सदैव तत्पर रहे। एक बार राणा ने एक टोकरी में नाग बन्द कर मीरा के पास इस सन्देश के साथ भेजा कि इसमें फूलों का हार है। मीरा स्नान से निवृत्त होकर पूजा करने बैठ गयी। इसके पश्चात् जब उसने टोकरी खोली, तब उसे उसमें श्रीकृष्ण की एक मनोहर मूर्ति तथा फूलों का हार मिला!

इसके पश्चात् राणा ने उसके पास विष का एक प्याला भेजकर उसे अमृत बताया। मीरा ने उसे भगवान को अर्पित कर दिया और तत्पश्चात् प्रसाद- रूप में स्वयं ग्रहण कर लिया। यह उसके लिए वास्तविक अमृत था। इसके पश्चात् राणा ने उसके शयन के लिए कण्टकों की शय्या भेजी। मीरा अपनी पूजा समाप्त कर उस पर सो गयी और आश्चर्य की बात तो यह है कि कण्टकों की वह शय्या गुलाब के फूलों की शय्या में रूपान्तरित हो गयी!

मीरा बाई द्वारा तुलसीदासजी को लिखा पत्र

अपने पति के सम्बन्धियों द्वारा इस प्रकार उत्पीड़ित तथा अभिशंसित मीरा ने तुलसीदासजी को एक पत्र भेजकर यह पूछा कि इस स्थिति में क्या करना उचित होगा। उसने पत्र में लिखा था, ‘साधुओं के साथ रहने के कारण मेरे सभी सम्बन्धी मुझे प्रताड़ित करते हैं, जिसके कारण मैं अपनी भक्ति-साधना विधिवत् नहीं कर पाती। अपने बाल्यकाल से ही मैंने गिरिधर गोपाल को अपना सखा मान लिया है और उनके साथ में घनिष्ठ रूप से सम्बद्ध हो चुकी हूँ। में इस सम्बन्ध को तोड़ नहीं सकती।”

तुलसीदास ने उस पत्र के उत्तर में लिखा, ‘जो लोग राम और सीता की पूजा नहीं करते, उन्हें शत्रु समझ कर उनका परित्याग कर देना चाहिए, भले ही वे तुम्हारे निकटतम सम्बन्धी ही क्यों न हो। भगवान की सान्निध्य-प्राप्ति के लिए प्रहलाद ने अपने पिता का परित्याग किया, विभीषण ने अपने भाई रावण का परित्याग किया, भरत ने अपनी माता का परित्याग किया, बलि ने अपने गुरु तक का परित्याग किया और ब्रज की गोपियों ने अपने पतियों का परित्याग किया। ऐसा करने के पश्चात इन लोगों के आनंद में वृद्धि ही हुई। पवित्र हृदय सन्तों का कहना है कि भगवान के प्रति अनुरक्ति तथा प्रेम
ही सत्य तथा शाश्वत है, अन्य सारे सम्बन्ध मिथ्या तथा क्षणिक है

‘छाड़ मन हरि विमुखन को संग, जिनके संग कुमति उपजत, पड़त भजन में भंग ‘

अकबर और तानसेन द्वारा छद्मवेश धारण कर मीरा के भक्ति गीत सुनना

एक बार अकबर तथा उसकी राज-सभा के संगीतज्ञ तानसेन छद्मवेश में मीरा के प्रेरक भक्ति गीत सुनने के लिए चित्तौड़ आये। मन्दिर में प्रवेश कर उन लोगों ने मीरा के आत्मोद्दीपक गीत सुने, उनके हृदय गीत में लीन हो गये। अकबर उन गीतों से अत्यधिक प्रभावित हुआ। वहाँ से चलने के पूर्व उसने मीरा के पावन चरणों का स्पर्श किया और प्रतिमा के सम्मुख भेंट स्वरूप पन्ने का एक हार रख दिया। किसी प्रकार राणा को भी यह ज्ञात हो गया कि अकबर ने छद्मवेश में मन्दिर में प्रविष्ट होकर मीरा के चरण का स्पर्श करने के पश्चात् भेंट स्वरूप उसे एक हार प्रदान किया था। वह क्रोधाग्नि में जल उठा। उसने मीरा से कहा, “तुम नदी में डूब मरो, जिससे संसार भविष्य में तुम्हारा मुख न देख सके। तुमने मेरे परिवार को कलंकित कर दिया।”

मीरा पति की आज्ञा शिरोधार्य कर गोविन्द, गिरिधर, गोपालहरि के इन नामों का स्मरण करती हुई नदी में डूबने के लिए निकल पड़ी। मार्ग में वह उल्लसित हो कर गीत गाती तथा नृत्य करती रही। नदी के तट पर पहुँच कर जब उसने उसमें कूदने के लिए अपना पैर उठाया, तब पीछे से एक हाथ ने उसे पकड़ लिया। पीछे मुड़कर देखने पर उसे अपने प्रियतम कृष्ण के दर्शन हुए! वह मूर्च्छित हो गयी। कुछ क्षणों के उपरांत उसकी आँखें खुलीं। भगवान ने मुस्कराते हुए उससे कहा, ‘मेरी प्रिय मीरा, तुम्हारा पति एक नश्वर प्राणी है, जिससे अब तुम्हारा कोई सम्बन्ध नहीं रहा। अब तुम पूर्णतः स्वतन्त्र हो। हृदय को प्रमुदित करो। तुम मेरी हो। अब तुम ब्रज के कुंज-वनों तय वृन्दावन की गलियों की ओर शीघ्र प्रस्थान करो और मेरी खोज वहीँकरो।’ इसके पश्चात वे अन्तर्धान हो गये।

मीरा बाई का वृन्दावन पहुँचाना

मीरा ने उस दिव्य आह्वान का तुरंत अनुसरण किया। वह राजस्थान की तप्त बालुकामयी भूमि पर नंगे पाँव चल पड़ी। मार्ग में महिलाओं, बालक-बालिकाओं तथा भक्तजनों ने श्रद्धापूर्वक उसका स्वागत-सत्कार किया। वृन्दावन पहुंचते ही उसे उसके मुरलीधर के दर्शन हो गये। क्षुधा की शान्ति के लिए वह वृन्दावन में भिक्षाटन करती और गोविन्द मन्दिर में जाकर अपने आराध्य का पूजन करती। तब से यह मन्दिर अधिकाधिक प्रख्यात होता गया और अब तो यह एक तीर्थस्थान बन गया है।

मीरा के भक्त उसके दर्शनार्थ चित्तौड़ से वृन्दावन आने लगे। राणा कुम्भा भी एक भिक्षुक के वेश में उससे मिलने वृन्दावन आये और उसके समक्ष स्वयं को अनावृत्त करते हुए उन्होंने अपने पूर्व- कुकर्मों तथा निर्मम कृत्यों के लिए पश्चात्ताप किया। मीरा ने तुरंत अपने पति के चरणों में सिर झुका दिया।

वृन्दावन के वैष्णवों में जीव गोस्वामी शीर्षस्थ थे। मीरा उनका दर्शन करना चाहती थी। उन्होंने उसकी इस इच्छा को अस्वीकार कर दिया। उन्होंने मीरा को इस आशय की सूचना दे दी कि वह अपने समक्ष किसी नारी को आने की अनुमति नहीं देंगे। मीराबाई ने इसके उत्तर में कहा, ‘मैं तो सोचती थी कि वृन्दावन का प्रत्येक व्यक्ति नारी है और यहाँ एकमात्र गिरिधर गोपाल ही पुरुष हैं। किन्तु आज मुझे ज्ञात हुआ कि उनके अतिरिक्त यहाँ कोई अन्य पुरुष भी है।’ मीरा के इन शब्दों से जीव गोस्वामी को लज्जित होना पड़ा। वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि मीरा एक महान् भक्त महिला है। शीघ्र ही उसके पास पहुंचकर उन्होंने उसे समुचित सम्मान प्रदान किया।

मीरा बाई एक महान कृष्ण भक्त

आज तक इस संसार के रंग-मंच पर अगणित राजकुमारियों, रानियों तथा महारानियों का अवतरण हुआ और वे काल के गर्भ में विलीन हो गयीं, किन्तु चित्तौड़ की महारानी का स्मरण हम आज भी करते हैं। इसका कारण क्या है? क्या इसका कारण उसका सौन्दर्य है? क्या वह मात्र अपने कवित्व-कौशल के लिए स्मरणीय है? नहीं। इसका कारण उसका त्याग, भगवान के प्रति उसकी अनन्य भक्ति तथा ईश्वर साक्षात्कार है। वह श्रीकृष्ण के सम्मुख आकर उनसे बात करती थी। अपने उस प्रियतम कृष्ण के साथ-साथ भोजन करती तथा उनके प्रेम-रस का पान करती थी। उसके अप्रतिम आध्यात्मिक गीत उसके अन्तर्तम से निःसृत हुए हैं। उसने श्रीकृष्ण के चरणों में पूर्ण आत्म-समर्पण कर उनके प्रति अनन्य प्रेम के गीत गाये हैं।

मीरा के गीत पाठकों के मन में आस्था, साहस, भक्ति तथा ईश्वर प्रेम का संचार करते हैं। वे जिज्ञासुओं को भक्ति मार्ग की ओर प्रेरित कर उनके मन में एक अद्भुत रोमांच का संचार कर देते हैं, जिससे हृदय द्रवित हो उठता है। मीरा का दृष्टिकोण अत्यन्त व्यापक था।

मीरा का लौकिक जीवन आपत्तियों तथा अशान्ति से ग्रस्त रहा। लोगों से उसे कष्ट ही-कष्ट मिले, किन्तु अपनी भक्ति तथा अपने आराध्य श्रीकृष्ण की कृपा से वह का विचलित नहीं हो सकी। राजकुमारी होते हुए भी उसे भिक्षाटन करना पड़ा और कभी कभी तो उसे मात्र जल से ही जीवन निर्वाह करना पड़ा। उसका जीवन त्याग तथा आत्म-समर्पण का सर्वोच्च उदाहरण था।

मीरा में कृष्ण के प्रति सरल सहज अनुरक्ति थी। वह लोगों की आलोचना तथा शास्त्रीय अनुदेशों पर कभी कोई ध्यान नहीं देती थी। उसे शास्त्र-विहित पूजन-अर्चन का ज्ञान नहीं था। उसने साधन भक्ति का अभ्यास नहीं किया था। बाल्यावस्था से ही वह कृष्ण पर अपने प्रेम-रस की वर्षा करती आ रही थी। कृष्ण उसके पति, पिता, माता, सखा, सम्बन्धी, गुरु- सब कुछ थे। कृष्ण ही उसके प्राणनाथ थे। मीरा ने भक्ति के प्रारम्भिक चरणों को अपने पूर्व जन्म में ही निष्पन्न कर लिया था।

मीरा बाई का स्वभाव

मीरा एक निर्भीक महिला थी। उसका स्वभाव निष्कपट था। उसके आचरण में प्रफुल्लता, शालीनता तथा सुरुचि के दर्शन होते थे। उसने स्वयं को गिरिधर गोपाल की प्रेम-गंगा में डुबो दिया था। उसके होठों पर सर्वदा गिरिधर गोपाल का नाम रहता था। स्वप्न में भी वह स्वयं को श्रीकृष्ण में विलीन कर दिया करती थी।

अपने दिव्योन्माद में मीरा सार्वजनिक स्थान पर नृत्य करने लगती थी। उसमें काम-भाव नहीं था। उसकी उदात्त अवस्था को शब्दों में व्यक्त कर पाना सम्भव नहीं है। वह प्रेम-सिन्धु में डूबी रहती थी। उसे शरीर तथा प्रतिवेश का अध्यास नहीं था। किसी भी व्यक्ति के लिए उसकी भक्ति की गहनता की माप करना सम्भव नहीं था।

मीरा की भक्ति-सुरभि से देश-देशान्तर तक सुगन्धमय हो उठे। उसके सम्पर्क में जो भी आया, वह उसके प्रेम-सिन्धु की बलवती लहर से प्रभावित हो गया। वह गौरांग की भाँति प्रेम तथा निष्कपटता की प्रतिमूर्ति थी। उसका हृदय भक्ति का मन्दिर तथा उसका मुख-मण्डल प्रेम का कमल-कुसुम था। उसकी दृष्टि में दयालुता, बातों में प्रेम, प्रवचन में प्रफुल्लता तथा गीतों में उत्साह था। वह कितनी चमत्कारपूर्ण महिला थी! उसका व्यक्तित्व कितना आश्चर्यजनक था और उसके रूप में कैसी सम्मोहकता थी।

जीवन का दुःसह भार लिये इस संसार में घोर परिश्रम करने वाले क्लान्त-श्रांत एवं भग्न-हृदय लोगों के लिए मीरा के रहस्यवादी गीत उपशामक औषधि की भाँति हैं। उसके गीतों का मधुर संगीत श्रोताओं पर अपना सौम्य-सुखद प्रभाव छोड़ जाता है। मीरा की भाषा में इतनी शक्ति है कि एक घोर नास्तिक का हृदय भी उसके भक्ति गीतों से द्रवीभूत हो जाएगा। मीरा ने संसार के रंगमंच पर अपने निर्दिष्ट कर्तव्य का पालन कुशलतापूर्वक किया। उसने लोगों को ईश्वर- प्रेम की ओर उन्मुख किया। उसने अपने पारिवारिक संकटों के झंझावातग्रस्त सिन्धु में अपनी नौका का कुशलतापूर्वक संचालन करते हुए स्वयं को अनन्त शान्ति, प्रेम तथा आनन्द के दूसरे तट पर पहुँचा दिया। नारी होते हुए भी उसके व्यक्तित्व में कितनी निर्भीकता तथा कितना साहस था! किशोरावस्था से ही वह उत्पीड़न सहती रही, किन्तु उसने कभी इसका प्रतिवाद नहीं किया। उसने संसार के मर्मभेदी उपहास तथा व्यंगात्मक आलोचनाओं को वीरतापूवक सहन किया। वह संसार पर अपनी अमिट छाप छोड़ गयी। उसकी कीर्ति-गाथा सदा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक हस्तान्तरित होती रहेगी।

वृन्दावन से मीरा द्वारका चली गयी। वहाँ वह रणछोड़ जी के मन्दिर में भगवान कृष्ण की प्रतिमा में अन्तलींन हो गयी। धरती पर जब तक कृष्ण का नाम रहेगा, तब तक मीरा का नाम भी रहेगा।

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