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ओंकार सर्वश्रेष्ठ क्यों ?

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ओंकार सर्वश्रेष्ठ क्यों ?

‘ योग दर्शन ’ में कहा गया है

ऊॅं साक्षात् ब्रह्म एतद्वि एवं अक्षर परम्। एतद्धयेवाक्षरं ज्ञात्वा यो यदिच्छति तस्य तत्।।

‘ओेंकार ’ की संकल्पना के विषय में भारत की सभी भाषाओं में प्रचुर साहित्य उपलब्ध है। उपनिषद् एवं योग ग्रंथों में ओंकार विषयक उद्बोधक उपपत्ति बताई गई है। ‘श्रीमद्भगवद् गीता ’ मे भी जगह-जगह ओंकार के माहात्म्य का वर्णन है।

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प्रणवः‘ सर्ववेदेषु वचन के अनुसार ओंकार को परमात्मा के समान महत्व प्राप्त है। इसी कारण ‘योग दर्शन’ कहता है- तस्य वाचकः प्रणवः तज्जपस्तदर्थ भावनम्।

अर्थात् – किसी भी तरह से किसी भी पद्धति से की गई साधना एवं उपासना का चरम बिंदु ओेंकार ही है। जब तक ओंकार का साक्षात्कार, दर्शन एवं अनुभूति प्राप्त नहीं होती तब तक पारमार्थिक मार्ग पर बढ़ना जारी रहता है। सभी उपासना एवं साधना का प्रारंभ सगुण तथा साकार परमात्मा से ही होता है और उसका पर्यवसान निराकार ईश्वर में होते समय स्थित्यंतर बिंदु ओंकार होता हैं।

यही कारण है कि वेदाध्यान, तपश्चरण एवं ब्रह्मचर्य पालन आदि विविध साधना मार्गां द्वारा ब्रह्मपद प्राप्ति किस तरह होती है, इसका वर्णन ‘कठोपनिषद्’ में इस प्रकार किया गया है-  सर्ववेदा यत् पदमाननन्ति तपांसि सर्वाणि च चद् वदन्ति। यदिछन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्त ने पदं संग्रहेण ब्रवीमि ऊॅ इत्येतत्।

टोंकारमितिहीन है, ऐसा ‘माण्डुक्योपनिषद्’ में भी कहा गया है-

ऊ इत्येतद् अक्षरं इदं सर्वं तस्य उपव्याख्यानं। भूतं भवद् भविष्यदिति सर्व ओंकार एव। यच्चयच्च्न्यत् त्रिकालातीतम् तदापि ओंकार एव।।

अर्थात् – केंवल मितिहीनता ही नही जिसे कोई भी विभ्क्ति, वचन या लिंग नहीं लगता ऐस अव्यय ओंकार है।

ऊ को एक, द्वि अथवा बहुववन में या पुल्लिंग, नपुंसक या स्त्रींलिग में तथा प्रथमा-द्वितीयादि में विभक्त नहीं किया जा सकता। इसलिए उसमें विकार नहीे हैं ऐसे विकारातीत, मितिहीन, उत्पत्ति, स्थिति एवं नाश रहित ओंकार का व्यक्तिकरण किस तरह हुआ, इस विषय में उद्बोधक और मौलिक वर्णन ‘गोपथ ब्राह्म’ में है- जगत नियंता और सृष्टिकर्ता प्रजापति ब्रह्मा ने सर्व देव, वेद, यज्ञ तथा शब्द आदि चराचर को जानने की कामना के वशीभूत जब ब्रह्य का स्मरण किया जाए तब ‘ऊॅ’ अक्षर दिखाई दिया। उसी का उच्चारण उन्होने पहले कियां।

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गोपथ ब्राह्यण‘ में आगे कहा गया है कि ब्रह्य ने ऊ की प्रथम मात्रा में ऋग्वेद एवं पृथ्वीलोक, द्वितीय मात्रा में यजुर्वेद एवं अंतरिक्ष लोक, तृतीय मात्रा में सामवेद एवं द्युलोक और चतुर्थ मात्रा में अथर्ववेद एवं इतिहास पुराण का साक्षात्कार किया।

जिस तरह सृष्टि निर्माता प्रजापति ब्रह्य के मुख से प्रथम अविकृत ओंकार बाहर निकला, उसी तरह जन्म लेने वाले हर बालक के मुंह से निकलने वाली पहली ध्वनि ओंकार का ही विकृत रूप है।

ओंकार में अ, उ, म्- तीन व्यक्त मात्राएं है और चैथी अर्धमात्रा अव्यक्त है। ओंकार की इन तीन मात्राओं के विषय में ‘माण्डुक्योपनिषद्’ कहता है- ओंकार की प्रथम मात्रा ‘अ’ आप्ति और अनादिमत्व का प्रतीक है। द्वितीय मात्रा ‘उ’ उत्कर्ष तरह प्रथम मात्रा के उच्चारण से आप्ति यानी सभी कामनाआंे की प्राप्ति होती है। तृतीया मात्रा सें मिति यानी दिक्, काल एवं वस्तु आदि सभी संबंधों का आकलन होता है। ये तीन व्यावहारिक फल है।

इसके साथ ही प्रथम मात्रा से अनादिमत्व का भी संपादन होता है। इस जगत के कारण परमात्मा से अपना जीवात्मा का एकरूपत्व ध्यान में आता है। द्वितीय मात्रा के कारण प्रकृति पुरूष के अभयत्व का ज्ञान होता है। तृतीय मात्रा के माध्यम से अपीतित्व का संबंध होता है। सारी दुनिया को व्याप्त करके भी बाकी रहने की क्षमता आती है। इस क्षमता की प्राप्ति परमात्म प्राप्ति ही है।

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ओंकार की चतुर्थ मात्रा पूर्णतया अव्यक्त होती हुई भी निर्गुण, निराकार, तटस्थ, निरवयव, अनादि, अनंत तथा ब्रह्यत्व का दर्शन है। यह अर्धमात्रा माया का अंत है और ब्रह्यत्व की प्राप्ति है। ऐसा कहकर ब्रह्या ने ‘दुर्गा सप्तशती’ ग्रंथ में कहा है कि चतुर्थ अव्यक्त अर्धमात्रा की केवल अनुभूति होती है। ओंकार का माह्यत्म्य केवल वैदिक धर्मं तक ही सीमीत नहीं है। अपितु सभी धर्मों, पंथांे एवं विचार प्रणालियों में इसका असाधारण महत्व हैं।

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इंसाई धर्मं का आमेन एवं मुसलमानों का आमीन ओंकार का ही परिवर्तित रूप है। स्तुति या प्रशंसा के अर्थ से भी ओंकार का प्रयोग होता है। विशषरूप से साहित्य में इसका प्रयोग किया गया हैं।

मंत्रार्थ से उपयोग किया जाने वाला ओंकार अति प्रसिद्ध है। किंतु मंत्रार्थ, स्तुत्यर्थ एवं मंगलार्थ आदि विविध कार्याें के लिए ओंकर लिखा गया कागज पैरों में नहीं आने देना चाहिए। इसकी दीक्षा लेना हर साधक का कर्तव्य है। यहां यह विशेष उल्लेखनीय है कि इश्तहारों, चंदा रसीदों, पत्र व्यवहार तथा साइन बोर्डाें पर ओेंकार का उपयोग न करें। अति पवित्र इस ओंकार को सामान्य रूप से उपयोग में लाकर उसकी पवित्रता को भंग नहीं करना चाहिए। ऐसे भव्य, दिव्य और गूढगम्य ओेंकार की साधना करके प्रत्येक व्यक्ति स्वर्ग व मोक्ष पा सकता है।

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