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One-Sidedness Vs Many-sidedness

Darshan, Dharma, Education, India, Religion

कई अर्थो में यह सही भी है, किन्तु अनेकांतवाद को एकान्तवाद का मात्र विपरीत शब्द (One-Sidedness Vs Many-sidedness) मान लेना पूर्ण रूप से सही नहीं है। स्याद्वाद और अनेकांतवाद को एक दूसरे का पर्याय भी माना जाता है।

एकान्तवाद किसी एक दृष्टि का ही समर्थन करता है। यह हमेशा दो विरोधी रूपों में दिखाई देता है। कभी सामान्य और विशेष के रूप में मिलता है तो कभी सत् और असत् के रूप में।

कभी निर्वचनीय और अनिर्वचनीय के रूप में दिखाई देता है तो कभी हेतु और अहेतु के रूप में। जो लोग सामान्य का ही समर्थन करते हैं वे अभेदवाद को ही जगत् का मौलिक तत्त्व मानते हैं और  भेद को मिथ्या कहते हैं।

उसके विरोधी रूप भेदवाद का समर्थन करने वाले इससे विपरीत सत्य का प्रतिपादन करते हैं। वे अभेद को सर्वथा मिथ्या समझते हैं और भेद को ही एकमात्र प्रमाण मानते है।

One-sidedness Vs Many-sidedness | एकान्तवाद और अनेकान्तवाद

एकान्तवाद की छत्रछाया में पलने वाले ये वाद हमेशा जोड़े के रूप में मिलते हैं। जहाँ एक प्रकार का एकान्तवाद खड़ा होता है, वहाँ उसका विरोधी एकान्तवाद तुरन्त मुकाबले में खड़ा हो जाता है।

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दोनों की टक्कर प्रारम्भ होते देर नहीं लगती। यह एकान्त वाद का स्वभाव है। इसके बिना एकान्तवाद पनप ही नहीं सकता। 

एकान्तवाद के इस पारस्परिक शत्रतापूर्ण व्यवहार को देखकर कुछ लोगों के मन में विचार पाया कि वास्तव में इस क्लेश का मूल कारण क्या है ? सत्यता का दावा करने वाले प्रत्येक दो विरोधी पक्ष आपस में इतने लड़ते क्यों हैं ?

यदि दोनों पूर्ण सत्य हैं तो दोनों में विरोध कैसा ? इससे मालूम होता है कि दोनों पूर्ण रूप से सत्य तो नहीं हैं। तब क्या दोनों पूर्ण मिथ्या हैं ? ऐसा भी नहीं हो सकता, क्योंकि ये लोग जिस सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हैं उसकी प्रतीति अवश्य होती है।

बिना प्रतीति के किसी भी सिद्धान्त का प्रतिपादन सम्भव नहीं। ऐसी स्थिति में इनका क्या स्थान है ? ये दोनों अंशतः सत्य हैं, और अंशतः मिथ्या।

एक पक्ष जिस अंश में सच्चा है, दूसरा पक्ष उसी अंश में झठा है। इसीलिए उनमें परस्पर कलह होता है। एक पक्ष समझता है कि मैं पूरा सच्चा हूँ और मेरा प्रतिपक्षी बिल्कुल झूठा है। दूसरा पक्ष भी ठीक यही समझता है।

यही कलह का मूल कारण है। जैन दर्शन इस सत्य से परिचित है। वह मानता है कि वस्तु में अनेक धर्म हैं। इन धर्मों में से किसी भी धर्म का निषेध नहीं किया जा सकता।

जो लोग एक धर्म का निषेध करके दूसरे धर्म का समर्थन करते हैं, वे एकान्तवाद की चक्की में पिस जाते हैं।

वस्तु कथंचित् भेदात्मक है कथंचित् अभेदात्मक है, कथंचित् सत्कार्यवाद के अन्तर्गत है कथंचित् असत्कार्यवाद के अन्तर्गत है, कथंचित् निर्वचनीय है कथंचित् अनिर्वचनीय है, कथंचित् तर्कगम्य है कथंचित् तर्कागम्य है।

प्रत्येक दृष्टि की एवं प्रत्येक धर्म की एक मर्यादा है। उसका उल्लंघन न करना ही सत्य के साथ न्याय करना है। जो व्यक्ति इस बात को न समझ कर अपने आग्रह को जगत् का तत्त्व मानता है, वह भ्रम में है।

उसे तत्त्व के पूर्णरूप को देखने का प्रयत्न करना चाहिए। जब तक वह अपने एकान्तवादी आग्रह का त्याग नहीं करता, तब तक तत्त्व का पूर्ण स्वरूप नहीं समझ सकता।

किसी वस्तु के एक धर्म को तो सर्वथा सत्य मान लेना और दूसरे धर्म को सर्वथा मिथ्या कहना वस्तु की पूर्णता को खंडित करना है। परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले धर्म अवश्य ही एक दूसरे के विरोधी हैं, किन्तु सम्पूर्ण वस्तु के विरोधी नहीं हैं।

वस्तु तो दोनों को समान रूप से आश्रय देती है। यही दृष्टि स्याद्वाद है, अनेकान्त वाद है, अपेक्षावाद है। परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले धर्मों का समन्वय कैसे हो सकता है ?

पदार्थ में वे किस ढंग से रहते हैं ? हमारी प्रतीति से उनका क्या साम्य है ? इत्यादि प्रश्नों का आगमों के आधार पर विचार करें।

स्यादवाद के विरोध स्वरुप दिए जाने वाले तर्कों एवं उनके उत्तरो के लिए ‘स्याद्वाद दोष परिहार’ ( Debate On Syadvada ) अवश्य पढ़े एवं गहराई से जानने के लिए “स्यादवाद (Debrief the Syadvada Theory) ” अवश्य पढ़े।

जैन धर्म के बारे में अधिक जानने के लिये जैन धर्म (About Jainism) पर जाये एवं इसके मूल सिद्धांतो को जानने के लिये “मूल जैन सिद्धांत (Doctrines of jainism)” पढ़े।

सद्वाद और असद्वाद

सद्वाद का एकान्तरूप से समर्थन करने वाले किसी भी कार्य की उत्पत्ति या विनाश को वास्तविक नहीं मानते। वे कारण और कार्य में भेद का दर्शन नहीं करते।

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दूसरी ओर असद्वाद के समर्थक हैं। वे प्रत्येक कार्य को नया मानते हैं। कारण में कार्य नहीं रहता, अपितु कारण से सर्वथा भिन्न एक नया ही तत्त्व उत्पन्न होता है।

कुछ एकान्तवादी जगत् को अनिर्वचनीय समझते हैं । उनके मत से जगत् न सत् है, न असत् है । दूसरे लोग जगत् का निर्वचन कर सकते हैं। उनकी दृष्टि से वस्तु मात्र का निर्वचन करना अर्थात् लक्षणादि बनाना असम्भव नहीं।

तीर्थंकर किसे कहते है? यह अवतार से कैसे भिन्न होते है? इत्यादि प्रश्नो के उत्तर जानने के लिये Philosophy behind Teerthankar पर जाये।

हेतुवाद और अहेतुवाद

इसी तरह हेतुवाद और अहेतुवाद भी आपस में टकराते हैं। हेतुवाद का समर्थन करने वाले तर्क के वल पर विश्वास रखते हैं। वे कहते हैं कि तर्क से सब कुछ जाना जा सकता है।

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जगत् का कोई भी पदार्थ तर्क से अगम्य नहीं। इस वाद का विरोध करते हुए अहेतुवादी कहते हैं कि तर्क से तत्त्व का निर्णय नहीं हो सकता। तत्त्व तर्क से अगम्य है।

उपरोक्त बातें ही जैन दर्शन का मूल सिद्धांत निर्धारित करती है। वर्तमानकालीन चौबीस तीर्थकरों का संक्षिप्त परिचय प्राप्त करने हेतु (24 Teerthankar Introduction) पर जाये।

महावीर स्वामी के विस्तृत जीवन परिचय के लिये निम्नलिखित लिंको पर जाये।

महावीर स्वामी की शिक्षाओं और समाज तथा विभिन्न क्षेत्रो में शिक्षाओं से होने वाले प्रभाव को जानने के लिए Teerthankar Mahaveer Swami अवश्य पढ़े।

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Your Astrology Guru

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