विज्ञान ( vigyan ) के दो प्रयोजन होते हैं। एक ओर तो यह इच्छा रहती है, कि अपने क्षेत्र में जितना जाना जा सके उतना जान लिया जाय। दूसरी ओर यह प्रयत्न रहता है, कि जो कुछ जान लिया गया है, उसे कम से कम सामान्य नियमों में गूथ लिया जाय।
रसल के इस कथन में विज्ञान का क्षेत्र दो भागों में विभाजित किया गया है। प्रथम भाग में विज्ञान की अध्ययन की सामंग्री की ओर संकेत है।
यह तो प्राय: स्पष्ट ही है, कि विज्ञान अवलोकन के द्वारा ही सूचना एकत्र करता है। अवलोकन ( observation ) को छोड़कर उसके पास ऐसा कोई साधन नहीं है, जिसकी सहायता से वह अध्यन सामग्री जुटा सके।
धर्म और दर्शन की तरह केवल श्रद्धा या चिन्तन से विज्ञान का कार्य नहीं चल सकता। विज्ञान तो प्रत्येक अवलोकन को प्रयोग की कसौटी पर कसता है।
दूसरे शब्दों में कहा जाय तो विज्ञान प्रत्यक्ष अनुभववादी है। जिस चीज का प्रत्यक्ष अनुभव होता है, वही चीज विज्ञान की दृष्टि से ठीक होती है।
उसकी सामग्री का आधार प्रत्यक्ष अनुभव है। इन्द्रियों की सहायता से मनुष्य जितना अनुभव प्राप्त करता है, वही विज्ञान का विषय है । आत्मप्रत्यक्ष, योगिप्रत्यक्ष या अन्य प्रत्यक्ष में उसका विश्वास नहीं होता ।
विज्ञान का सर्व प्रथम कार्य यही है, कि वह अनुभव के आधार पर जितना ज्ञान प्राप्त हो सकता है, प्राप्त करने की कोशिश करता है।
अपने अभीष्ट विषय को दृष्टि में रखते हुए इन्द्रियों और अन्य भौतिक-साधनों की सहायता से जितना ज्ञान इकट्ठा हो सकता है, इकट्ठा करने का प्रयत्न करता है।
यह विज्ञान की पहली भूमिका है। इस भूमिका का ज्ञान बिखरा हुआ होता है, तथा कोई साधारण वर्गीकरण नहीं होता है। जो ज्ञान जिस रूप में प्राप्त होता है, उसी मूल रूप में संगृहीत रहता है।
इसे तार्किक रूप से व्यवस्थित करने पर दूसरी व्यवस्था आरंभ होती है। इस व्यवस्था में विज्ञान प्राप्त सूचनाओं के आधार पर यह निर्णय करने का प्रयत्न करता है, कि सूचनाएं किस प्रकार विभाजित और सही क्रम में व्यवस्थित हो सकती है।
इस प्रकार सूचनाओं का सरलीकरण किया जा सकता है। मानव का विवेक सदैव व्यवस्थित प्रणाली को प्राथमिकता देता है।
अव्यवस्थित ज्ञान से किसी भी कार्य प्रणाली का कार्य सुचारु रूप से नहीं चल सकता है, क्योंकि समाज भी एक व्यवस्थित कार्य प्रणाली ही है।
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Vigyan obervation and experimets | विज्ञान के अवलोकन एवम प्रयोग
विज्ञान अनुभव जन्य ज्ञान को व्यवस्थित रूप में रखकर ज्ञान को आगे बढ़ाता है, और यही से प्रयोगो का क्षेत्र आरम्भ होता है। प्रयोग का अर्थ नियंत्रित परिस्थितियों ( प्रयोगशाला ) में अवलोकन या प्रयोग कर जानकारी को क्रम में व्यवस्थित करना होता है।
जिससे अर्जित ज्ञान को नियम अथवा नियमो के अन्तर्गत परिभाषित किया जा सके। जो नियम प्रयोगशाला में प्रमाणित हो जाते है, वे अंतिम रूप से सही मान लिये जाते है।
ऐसे नियम ही विज्ञान की दृष्टि में सामान्य नियम माने जाते है, और सर्वव्यापी सार्वत्रिक नियम के रूप में स्थापित हो जाते है। ऐस्टन के शब्दों में विज्ञान का कार्य हमारे अनुभवों को एक तर्कसंगत प्रणाली में व्यवस्थित करना है।
प्रयोगो को अध्ययन की सुंविधा की दृष्टि से सृष्टि को तीन भागो क्रमशः भौतिक (physical), प्राण सम्बन्धी (biological ) और मानसिक ( psychological ) में बाटा गया है। इनका ज्ञान ही विज्ञान का सम्पूर्ण ज्ञान है।
Darshan Vs Vigyan | दर्शन और विज्ञान
दर्शन और विज्ञान दो भिन्न क्षेत्रों में कार्य करते हैं। दर्शन विश्व को एक सम्पूर्ण तत्व समझ कर उसका ज्ञान कराता है, और
विज्ञान बाह्य जगत् के विभिन्न अंगों का अलग-अलग अध्ययन करता है।
इस प्रकार दर्शन का क्षेत्र विज्ञान से कई गुना अधिक है। ज्ञान की कोई भी धारा जिसका मानव-मस्तिष्क से सम्बन्ध है, दर्शन के
क्षेत्र से बाहर नहीं हो सकती।
दर्शन हमेशा ज्ञान की धारा के पीछे रहे हुए, अन्तिम तत्त्व को खोजने की कोशिश करता है, और उसी के आधार पर उस धारा को स्पष्ट करता है।
विज्ञान बाहरी जगत् तक ही सीमित है। अतः उसका कार्य हमेशा पदार्थों का एकत्रीकरण, उन्हें व्यवस्थित और वर्गीकरण करना ही रहेगा।
जो चीजें बाह्य अवलोकन और प्रयोग के आधार पर जैसी सिद्ध होंगी, विज्ञांन उन चीजों को उसी रूप में लेता रहेगा। इस ढंग से विज्ञान प्रदत्त ज्ञान हमेशा दृश्य जगत्-विषयक ही होगा।
यह पूर्ण होते हुए भी दर्शन की अपेक्षा अपूर्ण माना गया है, क्योकि विज्ञान अदृश्य और गूढ ज्ञान का समर्थन नहीं करता है। जैसा कि दर्शन ज्ञान में पाया जाता है।
विज्ञान का आधार केवल व्याप्ति है। जबकि दर्शन में व्याप्ति और निगमन दोनों ही सम्मिलित है।
विज्ञान और दर्शन में दूसरा मुख्य भेद यह है, कि विज्ञान अपने निर्णय का प्रदर्शन अपूर्ण रूप में करता है, जबकि दर्शन अपने विषय का स्पष्टीकरण पूर्णा रूप से करता है।
वैज्ञानिक निर्णय पूर्ण इसलिए नहीं होता, कि उसका आधार सत्य का एक अंश-दृश्य जगत् ही है। इस अंश के पीछे रहने वाला दूसरा महत्त्वपूर्णा अंश-अलौकिक अथवा पारमार्थिक जगत् (Noumenon) विज्ञान को दिखाई नहीं देता।
परिणामस्वरूप विज्ञान का दर्शन अघूरा होता है। दर्शन सत्य के दोनों अंशों को देखता है, और उन्हीं अंशों के आधार पर अपना निर्णय देता है, फलस्वरूप दर्शन का निर्णय पूर्ण होता है।
Induction Vs Deduction | व्याप्ति और निगमन
विशेष घटनाश्रों को देखकर उनके आधार पर एक सामान्य नियम का निर्माण करना व्याप्ति है। उदाहरण के लिए घूम और अग्नि के कार्य-कारण भाव को ले सकते हैं।
हम अनेक स्थानों पर धुम और अग्नि को एक साथ देखते हैं, तथा कहीं पर भी बिना अग्नि के धुम को नहीं देखते। इस अवलोकन से हम इस निर्णाय पर पहुँचते हैं, कि घूम अग्नि का ही कार्य है।
इस प्रकार के कार्य-कारणभाव के ग्रहण का नाम व्यात्ति-ग्रहण है। इसी को अंग्रेजी में ( Induction ) कहते हैं।
इसके विपरीत एक दूसरी पद्धति है, जिसे निगमन ( Deduction ) कहते हैं। इसके अनुसार सामान्य नियम के आधार पर विशेष घटना की कसौटी होती है।
उदाहरण के लिये मानवता मानवता एक सामान्य सिद्धान्त या गुण है। जिसमें हम यह गुण देखते हैं, उसी को मानव कहना पसन्द करते हैं।
निगमन विधि की विशेषता यह है, कि वह हमारे अनुभव के आधार पर नहीं बनती अपितु हमारा अनुभव उसको आधार मान कर आगे बढ़ती है।
दूसरे शब्दों में व्याप्ति संयोजनात्मक है, जबकि निगमन विश्लेपणात्मक है। व्याप्ति अनेक घटनाओं के संयोजन से एक नियम बनाती है।
निगमन का कार्य एक बने हुए नियम का विश्लेपण पूर्वक विविध घटनाओ के साथ मेल स्थापित करना है ।
दर्शन और विज्ञान में अंतर होते हुये भी दोनों में कुछ साम्य भी है। विज्ञान और दर्शन दोनों का उद्देश्य किसी घटना या वस्तु का सामान्य स्पष्टीकरण करना ही है।
जिसे ज्ञान का संयुक्तिकरण भी कहते है, अर्थात विशेष तथ्यों का सामान्य सत्य में परिवर्तन। यदपि दोनों ही शाखाये स्पष्टीकरण के उद्देश्य को सामने रख आगे बढ़ते है।
किन्तु कई दार्शनिको का मत है, कि दर्शन का कार्य वहा से आरंभ होता है, जहा विज्ञान का कार्य समाप्त होता है। दृश्य जगत का जितना अनुभवजन्य और साधारण विवेचन तथा स्पष्टीकरण हो सकता है।
वह सब विज्ञान के क्षेत्र के अंतर्गत आता है। जहा वैज्ञानिक अनुभव कुछ कार्य नहीं कर सकता और वैज्ञानिक अवलोकन की गति मंद हो जाती है। वहा से दर्शन की खोज प्रारंभ होती है।
Vigyan Vs Dharma | विज्ञान और धर्म
पूर्व काल में धर्म अथवा धर्म सम्मत ज्ञान ही विज्ञान कहलाता था। मध्यकालीन विज्ञान के अग्रदूत कोपरनिकस और रोजरबेकन विज्ञान और धर्म के महान प्रदर्शकों में गिने जाते है।
सतरहवीं-अठारहवीं शताब्दी में धर्म और विज्ञान ने अपना-अपना क्षेत्र सुर्वंथा अलग कर लिया। दोनों के बीच एक प्रकार का समझोता हो गया।
जिसके अनुसार भौतिक जगत् का भार विज्ञान के कन्धों पर पड़ा और आध्यात्मिक जगत् का भार धर्म के लिए बच गया।
डार्विन के विकासवाद ने धर्म और विज्ञान के बीच इतनी गहरी खाई खोद दी, कि दोनों के पुनर्मिलन की आशा हमेशा के लिए अस्त हो गई।
आज हम धर्म और विज्ञान के बीच जो कलह या संघर्ष देखते हैं। वह वास्तव में धर्म और विज्ञान का संघर्ष नहीं है, अपितु उन दो
वस्तुओं के बीच एक प्रकार की खटपट है, जो धर्म और विज्ञान के नाम से सिखाई जाती है।
जिस प्रकार कला और विज्ञान के बीच कोई कलह नहीं है, कला और धर्म में कोई झगड़ा नहीं है। उसी प्रकार धर्म और विज्ञान में भी कोई संघर्ष नहीं है। दोनों की अपनी-अपनी हृष्टि है, और उसी दृष्टि के आधार पर दोनों तत्त्व के दो भिन्न-भिन्न अंशों को ग्रहण करने का प्रयत्न करते हैं।
साधारणतया यह माना जाता है, कि धर्म आन्तरिक अनुभव को अपना आधार बनाकर चलता है, और विज्ञान बाह्य अनुभव पर खड़ा होता है।
किन्तु इस भेद पर विशेष जोर देना उचित नहीं, क्योंकि कभी-कभी धर्म बाह्य अनुभव को भी प्रमाण मानता हुआ आगे बढ़ता है। धर्म और विज्ञान में खास अन्तर यह है, कि विज्ञान का सम्बन्ध वस्तु के अस्तित्व उसके गुण-धर्म से ही होता है।
विज्ञान वस्तु को ‘क्या है’ केवल इसी रूप में ग्रहण करता है । धर्म इस ‘क्या है’ के साथ-ही-साथ उसका ‘क्या मूल्य है’ इस
सत्य को भी प्रतिपादित करने का प्रयत्न करता है।
विज्ञान की दृष्टि में वस्तु का अपना अस्तित्व होता है, मूल्य नहीं। मूल्यांकन करना धर्म की अपनी विशेषता है। इसके के बारे में और अधिक विस्तृत अध्ययन के लिए धर्म (Dharma ) पर क्लिक कर अध्ययन आरम्भ करे।
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