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शिव पूजन : महाशिवरात्रि पूजन रात्रि में ही क्यों करना चाहिए

Shiv Pujan – शिव पूजन की विशेषताएं क्या है ?

शिव पूजा (Shiv Puja) के संबंध में अनेक पंथों में अलग-अलग प्रथाएं प्रचलित है। कुछ पंथों में शिवाजी को अर्पण कया हुआ नैवेद्य, पत्र, फूल, फल एवंज जल अग्राह्म माने गए है। लेकिन शिव को पूर्ण ब्रह्म मानने वाले भक्त इस विषय में कभी नहीं सोचते। यदि शिवपिंड को चित्ता भस्म का लेपन किया जाता है तो उस पर अर्पित वस्तुएं ग्रहण न करने योग्य मानना तर्कसंगत है। परंतु शालाग्राम शिला के संपर्क से उस पर चढा़ए गए पदार्थ पवित्र बन जाते है।

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शास्त्रानुसार शिवतीर्थ अग्राहा हैं परंतु स्वयंभू बाणलिंग का तीर्थ ग्राह्म है। घर में पूजे जाने वाले शिवलिंग (बाणलिंग) का तीर्थ भी ग्राह्म है। शिव पूजा में नीराजन से आरती उतारने के बाद प्रसाद चढाने का रिवाज है। कारण शिवजी को अपने भोग में हुई देरी सहन नहीं होती, ऐस माना जाता है।

शिव दीक्षा लेने वाले साधक को उसके गुरू द्वारा परंपरागत चली आई विधियों की जानकारी दी जाती हैं। लेकिन शिव दीक्षा न लिए हुए साधक को शिव पूजा के सामान्य नियमो का पालन करना चाहिए। शिव पूजा में शंख की पूजा नहीं की जाती है नही शिवजी कों शंख के जल से स्नान करना चाहिए।

यदि मंदिर में मानव द्वारा निर्मित एवं स्थापित शिवलिंग हो तो शिव प्रदक्षिणा प्रणाली तक ही पूजा करें। यहां से उलटें चलें। शिव मंदिर की प्रणाली से गंगा बहती है, ऐसी संकल्पना है। परंतु स्वयंभू लिंग एवं चललिंग पर यह नियम लागू नहीं होता। भस्म धारण किए बिना शिव पूजा का प्रारंभ नहीं करना चाहिए। शिव पूजा के समय गले में रूद्राक्ष की माला अवश्य धारण करें।

Mahashivratri Puja – शिव पूजन रात्रि में ही क्यों ?

फाल्गुन कृष्णपक्ष की चतुर्दशी ‘शिवरात्रि’ के नाम से विश्व प्रसिद्ध हैं। यह घर भगवान शंकर की आराधना का प्रमुख दिवस (रात्रि) है। लेकिन प्रश्न यह है कि भगवान शंकर को रात्रि की क्यों प्रिय हुई और वह भी फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी की ? यह बात विदित है कि भगवान शंकर संहार शक्ति और तमोगुण के अधिष्ठाता है, अतः तमोमयी रात्रि से उनका स्नेह स्वाभाविक हैं।

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वैसे भी रात्रि संहारकाल की प्रतिनिधि है। उसका आगमन होते ही सर्वप्रथम प्रकाश का, जीवों के दैेनिक क्रिया-कलापों का और अंत में निद्रा द्वारा चेतनता का संहार होकर पूरा विश्व संहारिणी रात्री की गोद में अचेत होकर सो जाता है। ऐसी दशा में प्राकृतिक दृष्टि से शिव का रात्रिप्रिय होना सहत ही हृदयंगम हो जाता है। यही कारण है कि भगवान शंकर की आराधना न केवल इस रात्रि में अपितु सदैव प्रदोष ( रात्रि प्रारम्भ  होने पर ) में भी की जाती है।

शिवरात्रि का कृष्णपक्ष में आने का भी एक कारण है। जैसा कि सर्वाविदित है कि शुक्लपक्ष में चन्द्रमा पूर्ण होता है और कृष्णपक्ष में क्षीण। स्वाभाविक रूप से उसकी वृद्धि के साथ-साथ संसार के सम्पूर्ण रसवान पदार्थों में वृद्धि और क्षय के साथ -साथ उनमें क्षीणता होती है। इस प्रकार घटते-घटते चन्द्रमा अमावस्या कों बिलकुल क्षीण हो जाता है। चराचर के हृदय के अधिष्ठाता चन्द्र के क्षीण हो जाने से उसका प्रभाव सम्पूर्ण भूमण्ड़ल के प्राणियों पर पडता है।

परिणामस्वरूप उनके अन्तः करण में तामसी शक्तियां चेतन हो जाती है जिनसे अनेक प्रकार के अनैतिक अपराधों का जन्म होता है। इन्हीं शक्तियों को भूत-प्रेतादि कहा जाता है। ये शिवगण हैं जिनके स्वामी शिव है। दिन में सूर्य की उपस्थिति तथा आत्मतत्व ही जागरूकता के कारण ये तामसी शक्तिया विशेष प्रभाव नहीं दिखा पाती किंन्तु चन्द्रविहीन अन्धकारमयी रात्रि के आगमन के साथ ही इनकी शक्ति प्रभावी हो जाती है।

जिस प्रकार बाढ़ रोकने से पहले पुल बांधा जाता है, उसी प्रकार चन्द्रक्षय तिथि आने से पहले उन तामसी शक्तियो को शांत करने के लिए इनकें एकमात्र स्वामी भगवान शिव की आराधना करने का विधान शास्त्रोंकारों ने किया है। यही कृष्ण चतुर्दशी  की रात्रि में शिव आराधना करने का रहस्य है।

परन्तु अब यहां यह प्ररन उठता है कि कृष्णपक्ष चतुर्दशी प्रत्येक मास में आती हैं, वे ‘शिवरात्रि’ क्यों नही कहलातीं ? फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी मे ही क्या विशेषता है जो इसे शिवरात्रि कहा  जाता है ? जहां तक प्रत्येक मास की चतुर्दशी के शिवरात्री कहलाने प्रश्न है तो निश्चय ही वे सभी शिवरात्री ही है और पच्चांगों में उनके इसी नाम का उल्लेख भी किया जाता है। यहां इस अंतर को अधिक स्पष्ट करने के लिए यह जानना भी आवश्यक है कि फाल्गुन की इस शिवरात्रि को ‘महाशिवरात्री’ के नाम से पुकारा जाता है।?

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जिस प्रकार क्षयपूर्ण तिथि ( अमावस्या ) कें दुष्प्रभाव से बचने के लिए उससे ठीक एक दिन पूर्व चतुर्दशी को यह उपासना की जाती है। उसी प्रकार क्षय होते हुए वर्ष के अन्तिम मास से ठीक एक मास पूर्व इसका विधान शास्त्रों में मिलता है जो सर्वथा युक्ति संगत है। सीधे शब्दा में हम कह सकते है कि यह पर्व वर्ष के ग्यारहवें मास और उस मास की भी उपान्य रात्रि में मनाया जाता है।

इसके अतिरिक्त हेमन्त ऋतु में ऐसा प्रतीत होता है जैसे कोई अज्ञात सत्ता प्रकृति का संहार करने में जुटी हो। ऐसे में चारों ओर उजाड़ का-सा वातावरण तैयार हो जाता हैं यदि इसके साथ भगवान शिव के रौद्र रूप सामंजस्य बैठाया जाए तो अनुपयुक्त नहीं होगा। इसके अतिरिक्त रूद्रों की संख्या ग्यारह होने के कारण भी यह पर्व 11वें मास मेे ही सम्पन्न होता है जो शिव के 11 रूद्रों स्वरूपों का सूचक है।

महाशिवरात्रि को व्रत व रात्रि जागरण क्यों ?

रात्रि जागरण के संदर्भ में श्रीकृष्ण ने कहा है-  या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।

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अर्थात:- जब सम्पूर्ण प्राणी अचेतन होकर नींद की गोद में  सो जाते है तो संयमी, जिसने उपवासादि द्वारा इन्द्रियों पर नियंत्रण प्राप्त कर लिया हो, जागकर अपने कार्याें को पूर्ण करता है। यही कारण है कि साधना-सिद्धि के लिए जिस एकंता एवं शांत वातावरण की आवश्यकता होती है, वह रात्रि से ही हो सकती है।

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