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श्रीयंत्र : रातोरात कुबेरपति बनने का साधन

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श्रीयंत्र : रातोरात कुबेरपति बनने का साधन

श्रीयंत्र सर्वोपरि क्यों?

श्रीयंत्र को सभी यंत्रो का राजा कहा गया है। इस संदर्भ में एक पौराणिक कथा इस प्रकार है-
एक बार lakshmi ji पृथ्वी से नाराज होकर वैकुंठ चल गई। लक्ष्मीजी की अनुपस्थिति में पृथ्वी पर अनेक प्रकार की समस्याएं उत्पन्न हो गई। lord Vishnu के बहुत मनाने पर भी लक्ष्मी नहीं मानी। तब देेवगुरू बृहस्पति ने

लक्ष्मी को आकर्षित करने के लिए ‘श्रीयंत्र’ के स्थापन एवं पूजन का विधान बताया। श्रीयंत्र की विधि-विधान से पूजा-अर्चना की गई तो लक्ष्मीजी को न चाहते हुए भी विवश होकर पृथ्वी पर लौटना पडा़। उन्होने कहा- ‘‘श्रीयंत्र ही मेरा आधार है, इसमे मेरी आत्मा निवास करती है। इसलिए मुझे आना पडा हैं।’’ भगवती त्रिपुर सुंदरी का यंत्र भी श्रीयंत्र ही है। इसीलिए इसे सभी यंत्रों में श्रेष्ठ एवं यंत्रराज कहा गया है। ‘योगिनी हृदय’में इस यंत्र का महात्म्य वर्णित है।

श्रीयंत्र के चित्रित्र स्वरूप् में कई वृत्त है। सबसे अंदर वाले केन्द्र में एक बिंदु है। इस बिन्दु के चतुर्दिक् नौ त्रिकोण बनाए गए है। इनमें से पांच त्रिकोणों की नोक ऊपरी ओर तथा चार त्रिकोंणों की नोक नीचे की ओर है। ऊध्र्वमुखी त्रिकोणों को भगवती का प्रतिनिधि माना जाता है तथा उन्हे शिव युवती की संज्ञा दी गई है। नीचे की नोक वाले त्रिकोणों को lord shiv का प्रतिनिधि मान कर उन्हें ‘श्रीकंठा’ कहा गया हैं।

ऊध्र्वमुखी पांच त्रिकोण पांच प्राण, पांच ज्ञानेन्द्रियों, पांच तन्मात्राओं और पांच महाभूतों के प्रतीक है। शरीर में यह अस्थि, मेदा, मांस, अवृक और त्वक् के रूप् में विद्यमान है। अधोमुखी चार त्रिकोण शरीर में जीव, प्राण, शुक्र और मज्जा के द्योतक है। ब्रह्मण में यह मन,बुद्धि,चित्त और अहंकार के प्रतीक है। पांच ऊध्र्वमुखी और चार अधोमुखी त्रिकोण नौ मूल प्रकृतियों का प्रतिनिधित्व करते है। इस प्रकार यंत्र में एक अष्ट दल वाला दूसरा षोडश दल वाला कमल है। पहला अंदर वाले वृत्त के बाहर और दुसरा दुसरे वृत्त के बाहर है।

आनंद लहरीमें भगवान शंकराचार्य ने इस प्रकार लिखा है

चतुर्भिः श्रीकंठो शिव युवतिभिः पंचभिरभिः। प्रभिन्नाभिः शंभोर्नवनिरपि मूल प्रकृतिभिः। 
त्रयश्चत्वारि हृद्बसुदलकलाब्ज त्रिवलयत्रिरेखाभिः सार्धः तव भवन कोणः परिणताः।।

अर्थात् श्रीयंत्र की रचना के अनुसार चार श्रीकंठों के, पांच शिव की युवतियों के, शंभु की नौ अभिन्न मूल प्रवृत्त्यिों के, तैंतालिस वसुदल कलाब्ज की त्रिवलय, तीन रेखाओं के साथ आपके (त्रिपुर सुंदरी) भवन-कोण में परिणत होते हैं। एक अन्य वृतांत के अनुसार श्रीयंत्र का संबंध आद्यशंकराचार्य से भी है। जब शंकराचार्य ने शिवजी से विश्व कल्याण का कोई उपाय पूछा तो उन्होने ‘श्रीयंत्र’ और ‘श्रीविद्या’ प्रदान करते हुए कहा कि श्रीविद्या की साधना करने वाला मनुष्य अपार कीर्ति और लक्ष्मी का स्वामी होगा, जबकि ‘श्रीयंत्र’ की साधना करने वाला प्रत्येक प्राणी सभी देवताओें की कृपा प्राप्त करेगा, क्योंकि श्रीयंत्र में सभी देवी-देवताओं का वास हैं।

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श्रीयंत्र का पूजन क्यों ?

दुनिया का प्रत्येक सुख-शांति और समृद्धि चाहता है। साधारण ही नहीं मुक्ति की कामना  करने वाले साधक को भी धर्म कार्यो एवं जीवन-निर्वाह के लिए धन की आवश्यकता होती है। साधरणतया कहा गया है कि जहां भोग है वहां  मोक्ष नही और जहां मोक्ष की इच्छा है वहां भोग का प्रश्न ही नहीं उठता। लेकिन जो साधक   त्रिपुर सुदंरी की सेवा में तत्पर हैं, वे भोग और मोक्ष दोनों के अधिकारी है।

पुराणों में वर्णित एक कथा के अनुसार भगवती महालक्ष्मी ने चिरकाल तक महात्रिपुर सुदंरी की उपासना करने के बार अनेक वरदान प्राप्त किए थें। इनमें से एक वरदान यह भी था कि महालक्ष्मी ‘श्री’ नाम से संसार में प्रसिद्धि प्राप्त करेंगी। तब से ही ‘श्री’ शब्द का अर्थ लक्ष्मी के रूप में प्रचलित हो गया और श्रीविद्याा से संबंधित श्रीयंत्र को महालक्ष्मी से जोड दिया गया। अर्थात् यह महालक्ष्मी को प्रसन्न करने का यंत्र बन गया। अतः जो भी साधक श्रीयंत्र की पूूजा अर्चना करता है, उसे अपार यश, धन-समृद्धि आदि प्राप्त होते है।

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