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श्रीमद् भागवत कथा – Shrimad Bhagwat Katha

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श्रीमद् भागवत कथा हिंदी – Shrimad Bhagwat Katha

भागवत पुराण (Shrimad Bhagwat katha in hindi) कलिकाल में सभी पुराण में सर्वाधिक आदरणीय पुराण में से एक है, हमेशा से भागवत पुराण कथा (Shrimad Bhagwat Katha) हिन्दू समाज की धार्मिक, सामाजिक और लौकिक मर्यादाओं की स्थापना में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करता आ रहा हैं। यह वैष्णव सम्प्रदाय का प्रमुख ग्रन्थ है। भागवत पुराण में वेदों, उपनिषदों तथा दर्शन शास्त्र के गूढ़ एवं रहस्यमय विषयों को अत्यन्त सरलता के साथ निरूपित किया गया है। इसे भारतीय धर्म और संस्कृति का विश्वकोश कहना अधिक समीचीन होगा।

श्रीमद् भागवत कथा (bhagavat katha) में सकाम कर्म, निष्काम कर्म, ज्ञान साधना, सिद्धि साधना, भक्ति, अनुग्रह, मर्यादा, द्वैत-अद्वैत, द्वैताद्वैत, निर्गुण-सगुण तथा व्यक्त-अव्यक्त रहस्यों का समन्वय उपलब्ध होता है। ‘श्रीमद्भागवत पुराण’ वर्णन की विशदता और उदात्त काव्य-रमणीयता से ओतप्रोत है। यह विद्या का अक्षय भण्डार है।

यह पुराण सभी प्रकार के कल्याण देने वाला तथा त्रय ताप-आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक आदि का शमन करता है। ज्ञान, भक्ति और वैरागय का यह महान ग्रन्थ है। भागवत पुराण (bhagwat puran) में बारह स्कन्ध हैं, जिनमें विष्णु के अवतारों का ही वर्णन है। नैमिषारण्य में शौनकादि ऋषियों की प्रार्थना पर लोमहर्षण के पुत्र उग्रश्रवा सूत जी ने इस पुराण के माध्यम से श्रीकृष्ण के चौबीस अवतारों की कथा कही है।

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Bhagwat Mahapuran – भागवत पुराण कथा 

प्रथम स्कन्ध 

प्रथम स्कन्ध मे कुन्ती और भीष्म सेभक्ति योग  (Bhakti yoga) के बारे मे बताया गया य और ‘परीक्षित की कथा’ के माध्यम से ये बताया गया है कि एक मरते हुये व्यक्ति को क्या करना चाहिये? क्योकि ये प्रश्न केवल परीक्षित का नही, हम सब का है क्योकि ‘सात दिन’ ही प्रत्येक जीव के पास है, आठवां दिन है ही नही, इन्ही सात दिन मे उसका जन्म होता है और इन्ही सात दिन मे मर जाता है।

द्वितीय स्कन्ध 

द्वितीय स्कन्ध मे ‘योग-धारणा’  (Yog Dharna) के द्वारा शरीर त्याग की विधि बराई गयी है, भगवान का ध्यान कैसे करना चाहिये उसके बारे बताया गया है।

तृतीय स्कन्ध 

इसमे ‘कपिल-गीता’ का वर्णन है जिसमे ‘भक्ति का मर्म’ ‘काल की महिमा’ और देह-गेह मे आसक्त पुरुषों की ‘अधोगति’ का वर्णन मनुष्य योनि को प्राप्त हुये जीव की गति क्या होती है। केवल भक्ति से ही वह इन सब से छूटकर भगवान की और जा सकता है।

चतुर्थ स्कन्ध 

इसमे यह बताया गया है कि यदि भक्ति सच्ची हो तो उम्र का बंधन नही होता ‘ध्रुव की कथा’ ने यही सिद्ध किया है। ‘पुरजनोपाख्यान’ मे इन्द्रियों की प्रबलता के बारे मे बताया गया है।

पंचम स्कन्ध 

इसमे ‘भरत-चरित्र’ के माध्यम से यह बताया गया है कि भरतजी कैसे एक हिरण के मोह मे पडकर अपने तीन जन्म गवा देते है। ‘भवाटवी’ के प्रसंग में यह बताया गया है कि व्यक्ति अपनी इन्द्रियों के बस मे होकर कैसे अपनी दुर्गति करता है।नरकों का वर्णन बताया गया है कि मरने के बाद व्यक्ति की अपने-अपने कर्मो के हिसाब से कैसे नरको की यातना भोजनी पडती है।

षष्ट स्कन्ध 

षष्ट स्कन्ध मे भगवान ‘नाम की महिमा’ के सम्बन्ध मे ‘अजामिलोपाख्यान’ है, “नारायण कवच” का वर्णन है जिससे वृत्रासुर का वघ होता है, नारायण कवच वास्तव मे भगवान के विभिन्न नाम है जिसे धारण करने वाले व्यक्ति को कोई परास्त नही कर सकता। ‘पुंसवन विधि’ एक संस्कार है जिसके बारे मे बताया गया है।

सप्तम स्कन्ध 

इसमे ‘प्रहलाद-चरित्र’ के माध्यम से बताया गया है कि हजारों मुसीबत आने पर भी भगवान का नाम न छूटे, यदि भगवान का बैरी पिता ही क्यों न हो तो उसे भी छोड देना चाहिये। मानव-धर्म, वर्ण-धर्म, स्त्री-धर्म, ब्रह्मचर्य गृहस्थ और वानप्रस्थ आश्रमो के नियम का कैसे पालन करना चाहिये, इसका निरुपण है। कर्म व्यक्ति को कैसे करना चाहिये, यहि इस स्कन्ध का सार है।

अष्टम स्कन्ध 

भगवान कैसे भक्त के चरण पकडे हुये व्यक्ति का पहले और बाद मे भक्त का उद्धार करते है यह ‘गजेन्द्र-गाह कथा’ के माध्यम से बताया गया है। ‘समुद्र मंथन’, ‘मोहिनी अवतार’, वामन अवतार’, के माध्यम से भगवान की भक्ति और लीलाओं का वर्णन है।

नवम स्कन्ध 

नवम स्कन्ध मे ‘सूर्य-वंश’ और चन्द्र-वंश’ की कथाओं के माध्यम से उन राजाओं का वर्णन है जिनकी भक्ति के कारण भगवान ने उन्के वंश मे जन्म लिया। जिसका चरित्र सुनने मात्र से जीव पवित्र हो जाता है। यही इस स्कन्ध का सार है।

दशम स्कन्ध – पूर्वार्ध 

भागवत का ‘हृदय’ दशम स्कन्ध है बडे-बडे संत महात्मा, भक्त के प्राण है यह दशम स्कन्ध, भगवान अजन्मा है, उनका न जन्म होता है न मृत्यु, श्री कृष्ण का तो केवल ‘प्राकट्य’ होता है, भगवान का प्राकट्य किसके जीवन मे, और क्यों होता है, किस तरह के भक्त भगवान को प्रिय है, भक्तो पर कृपा करने के लिये, उन्ही की ‘पूजा – पद्धति’ स्वीकार करने के लिये, चाहे जैसे भी पद्धति हो, के लिये ही भगवान का प्राकट्य हुआ, उनकी सारी लीलाये, केवल अपने भक्तो के लिये थी |

जिस-जिस भक्त ने उद्धार चाहा, वह राक्षस बनकर उनके सामने आता गया और जिसने उनके साथ क्रिडा करनी चाही वह भक्त, सखा, गोपी, के माध्यम से सामने आते गये, उद्देश्य केवल एक था – ‘श्री कृष्ण की प्राप्ति’ भगवान की इन्ही ‘दिव्य लीलाओ का वर्णन’ इस स्कन्ध मे है जहां ‘पूतना मोक्ष’ उखल बंधन’ चीर हरण’ ‘ गोवर्धन’ जैसी दिव्य लीला और रास, महारास, गोपीगीत तो दिवाति दिव्य लीलायें है। इन दिव्य लीलाओ का श्रवण, चिंतन, मनन बस यही जीवन का सार’ है।

दशम स्कन्ध – उत्तरार्ध 

इसमे भगवान की ‘ऎश्वर्य’ लीला’ का वर्णन है जहां भगवान ने बांसुरी छोडकर सुदर्शन चक्र धारण किया उनकी कर्मभूमि, नित्यचर्या, गृहस्थ, का बडा ही अनुपम वर्णन है।

एकादश स्कन्ध 

इसमे भगवान ने अपने ही यदुवंश को ऋषियों का श्राप लगाकर यह बताया की गलती चाहे कोई भी करे मेरे अपने भी उसको अपनी करनी का फ़ल भोगना पडेगा, भगवान की माया बडी प्रबल है उससे पार होने के उपाय केवल भगवान की भक्ति है, यही इस स्कन्ध का सार है। अवधूतोपख्यान – 24 गुरुओं की कथा शिक्षायें है।

द्वादश स्कन्ध 

इसमे कलियुग के दोषों से बचने के उपाये – केवल ‘नामसंकीर्तन’ है। मृत्यु तो परीक्षित जी को आई ही नही क्योकि उन्होने उसके पहले ही समाधि लगाकर स्वयं को भगवान मे लीन कर दिया था। उनकी परमगति हुई क्योकि इस भागवत रूपी अमृत का पान कर लिया हो उसे मृत्यु कैसे आ सकती है।

इस पुराण में वर्णाश्रम-धर्म-व्यवस्था को पूरी मान्यता दी गई है तथा स्त्री, शूद्र और पतित व्यक्ति को वेद सुनने के अधिकार से वंचित किया गया है। ब्राह्मणों को अधिक महत्त्व दिया गया है। वैदिक काल में स्त्रियों और शूद्रों को वेद सुनने से इसलिए वंचित किया गया था कि उनके पास उन मन्त्रों को श्रवण करके अपनी स्मृति में सुरक्षित रखने का न तो समय था और न ही उनका बौद्धिक विकास इतना तीक्ष्ण था। किन्तु बाद में वैदिक ऋषियों की इस भावना को समझे बिना ब्राह्मणों ने इसे रूढ़ बना दिया और एक प्रकार से वर्गभेद को जन्म दे डाला।

‘श्रीमद्भागवत पुराण’ में बार-बार श्रीकृष्ण के ईश्वरीय और अलौकिक रूप का ही वर्णन किया गया है। पुराणों के लक्षणों में प्राय: पाँच विषयों का उल्लेख किया गया है, किन्तु इसमें दस विषयों-सर्ग-विसर्ग, स्थान, पोषण, ऊति, मन्वन्तर, ईशानुकथा, निरोध, मुक्ति और आश्रय का वर्णन प्राप्त होता है (दूसरे अध्याय में इन दस लक्षणों का विवेचन किया जा चुका है)। यहाँ श्रीकृष्ण के गुणों का बखान करते हुए कहा गया है कि उनके भक्तों की शरण लेने से किरात् हूण, आन्ध्र, पुलिन्द, पुल्कस, आभीर, कंक, यवन और खस आदि तत्कालीन जातियाँ भी पवित्र हो जाती हैं।

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श्रीमद्भागवतमहापुराण – प्रथम स्कंध – तृतीयोध्यायः – भगवान के अवतारों का वर्णन

श्रीसूतजी कहते हैं – सृष्टि के आदि में भगवान ने लोकों के निर्माण की इच्छा होते ही उन्होने महतत्त्व आदि से निष्पन्न पुरुषरूप ग्रहण किया। उसमें दस इंद्रियाँ, एक मन और पाँच भूत – ये सोलह कलाएँ थी। उन्होने कारण-जल में शयन करते हुये जब योगनिंद्रा का विस्तार किया, तब उनके नाभि-सरोवर में एक कमल प्रकट हुआ और उस कमल से प्रजापतियों के अधिपति ब्रह्माजी उत्पन्न हुये। भगवान के उस विराटरूप के अंग – प्रत्यंग में ही समस्त लोकों की कल्पना की गयी है, वह भगवान का विशुद्ध सत्त्वमय श्रेष्ठ रूप है।

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योगी लोग दिव्य दृष्टि से भगवान के उस रूप का दर्शन करते हैं। भगवान का वह रूप हजारों पैर, जाँघे, भुजाएँ और मुखों के कारण अत्यंत विलक्षण है; उसमें सहस्त्रों सिर, हजारों कान, हजारों आँखे और हजारों नासिकाएँ हैं। हजारो मुकुट, वस्त्र और कुण्डल आदि आभुषणो से वह उल्लासित रहता है। भगवान का यही पुरुषरूप जिसे नारायण कहते हैं, अनेक अवतारों का अक्षय कोष है–इसी से सारे अवतार प्रकट होते है। इस रूप के छोटे-से-छोटे अंश से देवता, पशु-पक्षी और मनुष्यादि योनियों की सृष्टि होती है।

उन्ही प्रभु पहले कौमारसर्ग में सनक, सनंदन, सनातन और सनत्कुमार – इन चार ब्राह्मणो के रूप में अवतार ग्रहण करके अत्यंत कठिन अखंड ब्रह्मचर्य का पालन किया। दूसरी बार इस संसार के कल्याण के लिये समस्त यज्ञों के स्वामी उन भगवान ने ही रसातल में गयी हुयी पृथ्वी को निकाल लाने के विचार से सूकररूप ग्रहण किया।

ऋषियों की सृष्टि में उन्होने देवर्षि नारद के रूप में तीसरा अवतार ग्रहण किया और सात्वत तंत्र का उपदेश किया; उसमें कर्मो के द्वारा किस प्रकार कर्म बंधन से मुक्ति मिलती है, इसका वर्णन है। धर्मपत्नी मूर्ति के गर्भ से उन्होने नर-नारायण के रूप में चौथा अवतार ग्रहण किया। इस अवतार मे उन्होने ऋषि बनकर मन और इंद्रियों का सर्वथा संयम करके बड़ी कठिन तपस्या की।

पाँचवे अवतार में वे सिद्धों के स्वामी कपिल के रूप में प्रकट हुये और तत्त्वों का निर्णय करने वाले सांख्य – शास्त्र का, जो समय के फेर से लुप्त हो गया था, आसुरि नामक ब्राह्मण को उपदेश किया। अनुसूया के वर माँगने पर छ्ठे अवतार मे वे अत्रि की संतान – दत्तात्रेय हुये। इस अवतार में उन्होने अलर्क एवम प्रह्लाद आदि को ब्रह्मज्ञान का उपदेश किया।

सातवीं बार रुचि प्रजापति की आकूति नामक पत्नी से यज्ञ के रूप मे उन्होने अवतार ग्रहण किया और अपने पुत्र याम आदि देवताओं के साथ स्वायम्भुव मंवंतर की रक्षा की। राजा नाभि की पत्नी मेरु देवी के गर्भ से ऋषभदेव के रूप में भगवान ने आठवाँ अवतार ग्रहण किया। इस रूप में उन्होने परमहंसों का मार्ग, जो सभी आश्रमियों के लिये वंदनीय है, दिखाया।

ऋषियों की प्रार्थना से नवीं बार वे राजा पृथु के रूप में अवतीर्ण हुये। शौनकादि ऋषियों! इस अवतार में उन्होने पृथ्वी से समस्त ओषधियों का दोहन किया था, इससे यह अवतार सबके लिये बड़ा ही कल्याणकारी हुआ। चाक्षुष मंवंतर के अंत में जब सारी त्रिलोकी समुद्र में डूब रही थी, तब उन्होने मत्स्य के रूप में दसवाँ अवतार ग्रहण किया और पृथ्वीरूपी नौका पर बैठाकर अगले मंवंतर के अधिपति वैवस्वत मनु की रक्षा की।

जिस समय देवता और दैत्य समुद्र मंथन कर रहे थे, उस समय ग्यारहवाँ अवतार धारण करके कच्छ्परूप से भगवान ने मंदराचल को अपनी पीठ पर धारण किया। बारहवी बार धंवंतरि के रूप मे अमृत लेकर समुद्र से प्रकट हुये और तेरहवी बार मोहिनीरूप धारण करके दैत्यो को मोहित करते हुये देवताओ को अमृत पिलाया। चौदहवे अवतार में उन्होने नरसिंह रूप धारण किया और अत्यंत बलवान दैत्यराज हिरण्यकशिपु की छाती अपने नखों से अनायास इस प्रकार फाड डाली, जैसे चटाई बनाने वाला सींक को चीर डालता है।

पंद्रहवी बार वामन का रूप धारण करके भगवान दैत्यराज बलि के यज्ञ में गये। वे चाहते तो थे त्रिलोकी का राज्य, परंतु माँगी उन्होने केवल तीन पग पृथ्वी। सोलहवें परशुराम अवतार में जब उन्होने देखा कि राजा लोग ब्राह्मणों के द्रोही हो गये है, तब क्रोधित होकर पृथ्वी को इक्कीस बार क्षत्रियों से शून्य कर दिया। इसके बाद सत्रहवें अवतार में सत्यवती के गर्भ से पराशरजी के द्वारा वे व्यास के रूप में अवतीर्ण हुये, उस समय लोगो की समझ और धारणा शक्ति कम देखकर आपने वेदरूप वृक्ष की कई शाखाएँ बना दी। अठारहवी बार देवताओं का कार्य सम्पन्न करने की इच्छा से उन्होने राजा के रूप मे रामावतार ग्रहण किया और सेतु-बंधन, रावणवध आदि वीरतापूर्ण बहुत सी लीलाएँ की।

उन्नीसवें और बीसवें अवतारों में उन्होने यदुवंश मे बलराम और श्रीकृष्ण के नाम से प्रकट होकर पृथ्वी का भार उतारा। उसके बाद कलियुग आ जाने पर मगधदेश मे देवताओ के द्वेषी दैत्यों को मोहित करने के लिये अजन के पुत्र रूप में आपका बुद्धावतार होगा। इसके भी बहुत पीछे जब कलियुग का अंत समीप होगा और राजा लोग प्रायः लुटेरे हो जायेंगे, तब जगत के रक्षक भगवान विष्णुयश नामक ब्राह्मण के घर कल्किरूप में अवतीर्ण होंगे।

शौनकादि ऋषियों! जैसे अगाध सरोवर से हजारों छोटे-छोटे नाले निकलते है, वैसे ही सत्त्वनिधि भगवान श्रीहरि के असंख्य अवतार हुआ करते हैं। ऋषि, मनु, देवता, प्रजापति, मनुपुत्र और जितने भी महान शक्तिशाली हैं, वे सब-के-सब भगवान के ही अंश हैं। ये सब अवतार तो भगवान के अंशावतार अथवा कलावतार हैं, जब लोग दैत्यों के अत्याचारों से व्याकुल हो उठते हैं, तब युग-युग में अनेक रूप धारण करके भगवान उनकी रक्षा करते हैं। भगवान के दिव्य जन्मों की यह कथा अत्यंत गोपनीय-रहस्यमयी है, जो मनुष्य एकाग्रचित्त से नियमपूर्वक सांयकाल और प्रातःकाल प्रेम से इसका पाठ करता है, वह सब दुःखों से छूट जाता है।

प्राकृत स्वरूपरहित चिन्मय भगवान का जो यह स्थूल जगदाकार रूप है, यह उनकी माया के महत्तत्वादि गुणो से भगवान में ही कल्पित है। जैसे बादल वायु के आश्रय रहते है और धूसरपना धूल मे होता है, परंतु अल्पबुद्धि मनुष्य बादलों का आकाश में और धूसरपने का वायु मे आरोप करते हैं-वैसे ही अविवेकी पुरुष सबके साक्षी आत्मा मे स्थूल दृश्यरूप जगत का आरोप करते हैं। इस स्थूलरूप से परे भगवान का एक सूक्ष्म अव्यक्त रूप है- जो न तो स्थूल की तरह आकारादि गुणोवाला है और ना देखने, सुनने मे ही आ सकता है; वही सूक्ष्मशरीर है।

आत्मा का आरोप या प्रवेश होने से वही जीव कहलाता है और इसी का बार-बार जन्म होता है। उपर्युक्त सूक्ष्म और स्थूल शरीर अविद्या से ही आरोपित है। जिस अवस्था मे आत्मस्वरूप के ज्ञान से यह आरोप दूर हो जाता है, उसी समय ब्रह्म का साक्षात्कार होता है। तत्त्वज्ञानी लोग जानते है कि जिस समय यह बुद्धिरूपा परमेश्वर की माया निवृत्त हो जाती है, उस समय जीव परमानंदमय हो जाता है और अपनी स्वरूप-महिमा मे प्रतिष्ठित होता है। वास्तव मे जिनके जन्म नही है और कर्म भी नही हैं, उन हृदयेश्वर भगवान के अप्राकृत जन्म और कर्मो का तत्त्वज्ञानी लोग इसी प्रकार वर्णन करते है; क्योंकि उनके जन्म और कर्म वेदों के अत्यंत गोपनीय रहस्य हैं

भगवान की लीला अमोध है। वे लीला से ही इस संसार का सृजन, पालन और संहार करते हैं, किंतु इसमे आसक्त नही होते। प्राणियों के अंतःकरण मे छिपे रहकर ज्ञानेंद्रिय और मन के नियंता के रूप में उनके विषयों को ग्रहण भी करते है, परंतु उनसे अलग रहते हैं, वे परम स्वतंत्र है–ये विषय कभी उन्हे लिप्त नहीं कर सकते। जैसे अनजान मनुष्य जादूगर अथवा नट के संकल्प और वचनों से की हुई करामात को नही समझ पाते, वैसे ही अपने संकल्प और वेदवाणी के द्वारा भगवान के प्रकट किये हुये इन नाना नाम और रूपों को तथा उनकी लीलाओ को कुबुद्धि जीव बहुत सी तर्क-युक्तियों के द्वारा नही पहचान सकता।

चक्र्पाणि भगवान की शक्ति और पराक्रम अनंत है – उनकी कोई थाह नही पा सकता। वे सारे जगत के निर्माता होने पर भी इससे सर्वथा परे है। उनके स्वरूप को अथवा उनकी लीला के रहस्य को वही जान सकता है, जो नित्य – निरंतर निष्कपट भाव से उनके चरणकमलों की दिव्य गंध का सेवन करता है- सेवाभाव से उनके चरणो का चिंतन करता रहता है। शौनकादि ऋषियों! आप लोग बड़े ही सौभाग्यशाली और धन्य है जो इस जीवन मे और विघ्न-बाधाओं से भरे इस संसार मे समस्त लोकों के स्वामी भगवान श्रीकृष्ण से वह सर्वात्मक आत्मभाव, वह अनिर्वचनीय अनन्य प्रेम करते है, जिससे फिर जन्म -मरणरूप संसार के भंयकर चक्र मे नही पड़ना होता।

भगवान वेदव्यास ने यह वेदों के समान भगवच्चरित्र से परिपूर्ण भागवत नाम का पुराण बनाया है। उन्होने इस श्लाघनीय, कल्याणकारी और महान पुराण को लोगो के परम कल्याण के लिये अपने आत्मज्ञानिशिरोमणि पुत्र को ग्रहण कराया। इसमे सारे वेद और इतिहासों का सार-सार संग्रह किया गया है। शुकदेवजी राजा परीक्षित को यह सुनाया। उस समय वे परमार्षियो से घिरे हुये आमरण अनशन का व्रत लेकर गंगातट पर बैठे हुये थे।

भगवान श्रीकृष्ण जब धर्म, ज्ञान आदि के साथ अपने परमधाम को पधार गये, तब इस कलियुग मे जो लोग अज्ञानरूपी अंधकार से अँधे हो रहे है, उनके लिये यह पुराणरूपी सूर्य इस समय प्रकट हुआ है। शौनकादि ऋषियों! जब महातेजस्वी श्रीशुकदेवजी महाराज वहाँ इस पुराण की कथा कह रहे थे, तब मै भी वहाँ बैठा था। वहीं मैंने उनकी कृपापूर्ण अनुमति से इसका अध्ययन किया। मेरा जैसा अध्ययन है और मेरी बुद्धि ने जितना जिस प्रकार इसको ग्रहण किया है, उसी के अनुसार इसे मैं आप लोगों को सुनाऊँगा।

सभी पुराणों में श्रीमद भगवत का स्थान 

पुराणों के क्रम में भागवत पुराण पाँचवा स्थान है पर लोकप्रियता की दृष्टि से यह सबसे अधिक प्रसिद्ध है। वैष्णव 12 स्कंध, 335 अध्याय और 18 हज़ार श्लोकों के इस पुराण को महापुराण मानते हैं। साथ ही उच्च दार्शनिक विचारों की भी इसमें प्रचुरता है। परवर्ती कृष्ण-काव्य की आराध्या ‘राधा’ का उल्लेख भागवत में नहीं मिलता। इस पुराण का पूरा नाम श्रीमद् भागवत पुराण है।

मान्यता 

कुछ लोग इसे महापुराण न मानकर देवी-भागवत को महापुराण मानते हैं। वे इसे उपपुराण बताते हैं। पर बहुसंख्यक मत इस पक्ष में नहीं हैं। भागवत के रचनाकाल के संबंध में भी विवाद है। दयानंद सरस्वती ने इसे तेरहवीं शताब्दी की रचना बताया है, पर अधिकांश विद्वान इसे छठी शताब्दी का ग्रंथ मानते हैं। इसे किसी दक्षिणात्य विद्वान की रचना माना जाता है। भागवत पुराण का दसवां स्कंध भक्तों में विशेष प्रिय है।

सृष्टि-उत्पत्ति 

सृष्टि-उत्पत्ति के सन्दर्भ में इस पुराण में कहा गया है- एकोऽहम्बहुस्यामि। अर्थात् एक से बहुत होने की इच्छा के फलस्वरूप भगवान स्वयं अपनी माया से अपने स्वरूप में काल, कर्म और स्वभाव को स्वीकार कर लेते हैं। तब काल से तीनों गुणों- सत्व, रज और तम में क्षोभ उत्पन्न होता है तथा स्वभाव उस क्षोभ को रूपान्तरित कर देता है।

तब कर्म गुणों के महत्त्व को जन्म देता है जो क्रमश: अहंकार, आकाश, वायु तेज, जल, पृथ्वी, मन, इन्द्रियाँ और सत्व में परिवर्तित हो जाते हैं। इन सभी के परस्पर मिलने से व्यष्टि-समष्टि रूप पिंड और ब्रह्माण्ड की रचना होती है। यह ब्रह्माण्ड रूपी अण्डां एक हज़ार वर्ष तक ऐसे ही पड़ा रहा। फिर भगवान ने उसमें से सहस्त्र मुख और अंगों वाले विराट पुरुष को प्रकट किया। उस विराट पुरुष के मुख से ब्राह्मण, भुजाओं से क्षत्रिओं से क्षत्रिय, जांघों से वैश्य और पैरों से शूद्र उत्पन्न हुए।

श्री मद्भागवत माहात्म्य

कीर्तनोत्सव मे उद्धव जी का प्रकट होना, श्री मद्भागवत मे विशुद्ध भक्ति, भगवान श्री कृष्ण के नाम लीला गुण आदि का संकीर्तन किया जाय तो वे स्वयं ही हृदय मे आ विराजते है और श्रवण, कीर्तन करने वाले के सारे दुख मिटा देते है। ठीक वैसे ही जैसे सूर्य अन्धकार को और आंधी बादलों को तितर-बितर कर देते है।

जिस वाणी से घट-घटवासी अविनाशी भगवान के नाम लीला, गुण का उच्चारण नही होता, वह वाणी भावपूर्ण होने पर भी निरर्थक है, सारहीन है, जिस वाणी से चाहे वह रस, भाव, अंलकार आदि से युक्त ही क्यो न हो – जगत को पवित्र करने वाले भगवान श्रीकृष्ण के यश का कभी गान नही होता। वह तो अत्यन्त अपवित्र है इसके विपरीत जिसमे सुन्दर रचना भी नही है, और जो व्याकरण आदि की दृष्टि से दूषित शब्दों से युक्त भी है, परन्तु प्रत्येक श्लोक मे भगवान के सुयश नाम जडे है वही वाणी लोगो के सारे पापों का नाश कर देती है।

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