यजुर्वेदीयोपनिषद – यजुर्वेद के उपनिषद
यजुर्वेदीय उपनिषद के दो भाग है
शुक्ल यजुर्वेद और कृष्ण यजुर्वेद
शुक्ल यजुर्वेद के उपनिषद
इशावास्योपनिषद
यजुर्वेद सहिंता के चालीसवें अध्याय को ईशावास्योपनिषद कहा जाता है। यह अत्यंत प्राचीन पद्यात्मक उपनिषद है। इस उपनिषद में त्यागपूर्ण भोग, कर्म की महत्ता, विद्या-अविद्या का संबंध एवं परमात्मा का स्वरूप वर्णित है। इस पर सायन, अव्वट, महीधर एवं शंकराचार्य के भाष्य उपलब्ध है।
वृह्दारन्याकोप्निषद
शतपथ ब्रह्मण के अंतिम ६ अध्याय बृहदारण्यक उपनिषद कहलाते है। यह विशालकाय गद्यात्मक उपनिषद है। इसमें तीन कांड है- मधुकांड, मुनिकांड एवं खिलकांड। प्रत्येक कांड में २-२ अध्याय है। इसमें अश्वमेध यज्ञ, आत्मा की व्यापकता, मधुविद्या, ब्रह्म, प्रजापति, गायत्री आदि के विषय में विचार किया गया है। इस उपनिषद में याज्ञवल्क्य-मैत्रेयी का प्रसिद्द संवाद भी है। इस उपनिषद के प्रमुख ऋषि याज्ञवल्क्य है जीने अपने युग का श्रेष्ठ तत्वज्ञानी माना जाता है। इस पर शंकराचार्य का भाष्य उपलब्ध होता है।
इसके अतिरिक्त निम्न उपनिषद भी शुक्ल यजुर्वेद के अन्तर्गत आते है –
अध्यात्मोपनिषद • आद्यैतारक उपनिषद • भिक्षुकोपनिषद • हंसोपनिषद • जाबालोपनिषद • मंडल ब्राह्मण उपनिषद • मन्त्रिकोपनिषद • मुक्तिका उपनिषद • निरालम्बोपनिषद • पैंगलोपनिषद • परमहंसोपनिषद • सत्यायनी उपनिषद • सुबालोपनिषद • तारासार उपनिषद • त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद • तुरीयातीतोपनिषद • अद्वयतारकोपनिषद • याज्ञवल्क्योपनिषद • शाट्यायनीयोपनिषद • शिवसंकल्पोपनिषद
कृष्ण यजुर्वेद के उपनिषद
तैत्तिरीयोपनिषद
कृष्ण आयुर्वेद की तैत्तिरीय शाखा के तैत्तिरीय आरण्यक के सप्तम से नवं
प्रपाठक को तैत्तिरीयोपनिषद कहते है। इसमें ३३ आध्याय है जिन्हें क्रमशः शिक्षावल्ली, ब्रह्मानन्दवल्ली एवं भृगुवल्ली कहते हैं। ये वल्लियाँ अनुवाकों में विभक्त हैं। इस उपनिषद में दिए गए मातृ देवो भवः, अतिथि देवो भवः इन उपदेशों का सार्वकालिक महत्त्व है। इसमें आचार्य द्वारा स्नातक को दिए गए उपदेश हैं तथा ब्रह्म को आनंद, सत्य ज्ञान एवं अनंत कहकर उससे आकाश, वायु, अग्नि, जल आदि की उत्पत्ति कही गयी है साथ ही ब्रह्म संबंधी जिज्ञासा का निरूपण है। शंकराचार्य ने इस पर भाष्य किया है।
कठोपनिषद
कृष्ण यजुर्वेद की कठशाखा से सम्बद्ध उपनिषद है। इसमें २ अध्याय हैं जो ३-३ वल्लियों में विभक्त हैं। इसमें नचिकेता की कथा है। यम द्वारा प्रदत्त उपदेश अत्यंत महत्वपूर्ण है। पुरुष को ज्ञान की परम सीमा माना गया है। आत्मा की व्यापकता तथा विविध रूपों में उसकी अभिव्यक्ति का निरूपण भी इस उपनिषद में प्राप्त होता है। इस उपनिषद पर भी शंकर भाष्य उपलब्ध है।
श्वेताश्वतरोपनिषद
इस उपनिषद को परवर्ती माना जाता है। इसमें ६ अध्याय है, इनमें ब्रह्म की व्यापकता तथा उसके साक्षात्कार का उपाय वर्णित है। योग का भी इसमें विस्तृत वर्णन है। ईश्वर की स्तुति रूद्र के रूप में की गयी है। एकात्मक ब्रह्म की माया का वर्णन है जिसमें त्रिगुणात्मक सृष्टि होती है। इस उपनिषद में सांख्य दर्शन के मौलिक सिद्धांतों का प्रतिपादन है।
अक्षि उपनिषद • अमृतबिन्दु उपनिषद • अमृतनादोपनिषद • अवधूत उपनिषद • ब्रह्म उपनिषद • ब्रह्मविद्या उपनिषद • दक्षिणामूर्ति उपनिषद • ध्यानबिन्दु उपनिषद • एकाक्षर उपनिषद • गर्भ उपनिषद • कैवल्योपनिषद • कालाग्निरुद्रोपनिषद • कर उपनिषद • कठरुद्रोपनिषद • क्षुरिकोपनिषद • नारायणो • पंचब्रह्म • प्राणाग्निहोत्र उपनिषद • रुद्रहृदय • सरस्वतीरहस्य उपनिषद • सर्वासार उपनिषद • शारीरिकोपनिषद • स्कन्द उपनिषद • शुकरहस्योपनिषद • तेजोबिन्दु उपनिषद • वराहोपनिषद • योगकुण्डलिनी उपनिषद • योगशिखा उपनिषद • योगतत्त्व उपनिषद • कलिसन्तरणोपनिषद • चाक्षुषोपनिषद