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सदगुरु ओशो – एक वैचारिक क्रांति

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ओशो का परिचय देना आकाश को मुट्ठी में बांधने जैसा असंभव काम है… और किस ओशो का परिचय दिया जाए- मृण्मय दीपक का अथवा चिन्मय ज्योति का? चैतन्य की वह लौ तो कागजी शब्द-पेटियों में समाती नहीं, केवल परोक्ष सांकेतिक भाषा में इशारे संभव हैं; जैसे उनकी समाधि पर अंकित ये :

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ओशो 

जिनका न कभी जन्म हुआ और न ही मृत्यु

11 दिसम्बर, 1931 और 19 जनवरी, 1990 के बीच

जो इस पृथ्वी ग्रह पर केवल विचरण करने आए।

हां, उस अनूठी और प्यारी माटी की देह के संबंध में अवश्य कुछ कहा जा सकता है जिसमें वह अलौकिक ज्योति अवतरित हुई, और 58 वर्षों तक धरती के अनेक भूखंडों पर अपनी ज्ञान-रश्मियां बिखेरती गौतम बुद्ध के ढाई हजार साल बाद धर्म-चक्र-प्रवर्तक के रूप में अस्तित्व ने धरती पर ओशो को भेजा।

अपनी ननिहाल कुचवाड़ा, मध्य प्रदेश में उनका जन्म हुआ। नाना ने प्यार से उनका नाम ‘राजा’ रखा। बचपन के स्वर्णिम सात साल उन्होंने नाना-नानी के प्यार की छांव तले बिताए। नानाजी के देहांतोपरांत 1938 में वे अपने माता-पिता के घर गाडरवारा आए। 10 वर्ष की उम्र में पाठशाला में प्रवेश के वक्त नामकरण हुआ- ‘रजनीश चंद्र मोहन जैन’। हाई स्कूल तक की शिक्षा यहीं पर हुई। उनके सौभाग्यशाली पिता स्वामी देवतीर्थ भारती और मां अमृत सरस्वती ने कालांतर में अपने पुत्र का शिष्यत्व कुशाग्र बुद्धि, विद्रोही स्वभाव, असाधारण प्रतिभा एवं विलक्षण वाक् शक्ति के धनी ओशो, विद्यार्थी जीवन में अपने शिक्षकों तथा सहपाठियों के बीच सदा आकर्षण के केन्द्र रहे।

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इक्कीस वर्ष की आयु में 21 मार्च, 1953 को वे जबलपुर के भंवरताल उद्यान में मौलश्री वृक्ष के नीचे बुद्धत्व को उपलब्ध उस समय वे डी. एन. जैन कालेज के छात्र थे। सन् 1956 में सागर विश्वविद्यालय से प्रथम श्रेणी में प्रथम स्थान प्राप्त कर दर्शन शास्त्र में एम. ए. किया। तत्पश्चात संस्कृत कालेज रायपुर में लगभग एक वर्ष तक व्याख्याता रहे। सन् 1958 से 1966 तक जबलपुर विश्वविद्यालय में दर्शन शास्त्र के प्राध्यापक रहे। इस अवधि में वे भारत भ्रमण कर व्याख्यान देते रहे, और वर्ष 1964 से ध्यान शिविरों का संचालन भी आरंभ कर दिया।

जीवन के विभिन्न पहलुओं पर अपनी मौलिक व क्रांतिकारी दृष्टि प्रस्तुत करने वाले ‘आचार्य रजनीश’ के रूप में उनकी ख्याति सर्वत्र फैलने लगी। वर्ष 1967 से उन्होंने स्वयं को पूरी तरह धर्म-चक्र-प्रवर्तन एवं मनुष्य के आध्यात्मिक पुनरुत्थान के कार्य में संलग्न कर दिया। विभिन्न रमणीक स्थलों पर दस दिवसीय साधना शिविर लेने शुरु किए। अनेक महानगरों में उन्होंने बीस से पचास हजार श्रोताओं वाली जुलाई 1970 में वे मुंबई आ गए और ‘भगवानश्री रजनीश’ के रूप में विश्व विख्यात होने लगे।

इसी साल 26 सितंबर को मनाली में उन्होंने नव-संन्यास दीक्षा देनी आरंभ की। हजारों मुमुक्षु घर-परिवार या नौकरी-व्यापार छोड़े बगैर, अपना सहज-सामान्य जीवन जीते हुए, नए नाम के साथ गैरिक वस्त्र व माला सन् 1974 की 21 मार्च को ओशो पूना आश्रम में आ बसे, जहां सात साल तक निरंतर, एक-एक माह के लिए उनके क्रमशः हिन्दी व अंग्रेजी में सुबह डेढ़ घंटे प्रवचन चले। योग, भक्ति, झेन, ताओ, सांख्य, सूफी, हसीद आदि धाराओं पर व्याख्यान दिए; तथा बुद्ध, महावीर, मीराबाई, लाओत्से, गोरखनाथ, जीसस, जरथुस्त्र जैसे विश्व के तमाम रहस्यदर्शी संतों के वचनों के गूढ़ रहस्य उजागर किए।

उनके अमृत प्रवचन करीब 5000 आडियो-वीडियो संकलन एवं 650 किताबों के रूप में उपलब्ध हैं। विश्व की लगभग 50 मुख्य भाषाओं में उनके साहित्य का अनुवाद अब तक हो चुका है। इस अवधि में वे शाम को नियमित रूप से साधकों को संन्यास दीक्षा, ऊर्जा दर्शन व व्यक्तिगत मार्गदर्शन देते रहे। संन्यास नामों की व्याख्या के माध्यम से ओशो ने अनाहत नाद, अंतस-आलोक, दिव्य जीवन ऊर्जा, दिव्य रस-गंध-स्वाद एवं दिव्य प्रेम के गुह्य आयामों की चर्चा की, जिनके संकलन दर्शन डायरियों के रूप में प्रकाशित हुए। प्रतिमाह 11 से 20 तारीख तक दस दिवसीय समाधि शिविरों का आयोजन मार्च 1981 से उनके कार्य का नया आयाम मौन-सत्संग के रूप में प्रारंभ हुआ।

मई 1981 में वे अमेरिका प्रस्थान कर गए जहां उनके शिष्यों ने ओरेगॉन के मरुस्थल में रजनीशपुरम नगर नामक हरा-भरा मरुद्यान बसाया। साढ़े तीन वर्ष के मौन के उपरांत अक्टूबर 1984 में ओशो ने पुनः प्रवचन देना शुरु किया। सितम्बर 1985 में ओशो की सचिव अपनी कुछ प्रमुख सहयोगियों सहित अचानक रजनीशपुरम से चली गई और पीछे छोड़ गई अपराधों की एक लंबी सूची। ओशो ने अन्वेषण के लिए अधिकारियों को आमंत्रित किया, किंतु सरकार ने इस परिस्थिति को, कम्यून नष्ट करने के हथकंडे के रूप में इस्तेमाल किया।

बिना किसी वारंट के ओशो को गिरफ्तार कर 12 दिनों तक विभिन्न जेलों में रखने के दौरान उन्हें थैलियम नामक धीमा जहर दिया और अंततः उन्हें अमेरिका छोड़ने को बाध्य किया। नवंबर 1985 से लगभग नौ माह तक विश्व भ्रमण के दौरान, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की दुहाई देने वाले तथाकथित 21 प्रजातांत्रिक देशों ने, ओशो को या तो अपने मुल्क में प्रवेश की अनुमति नहीं दी अथवा कुछ समय के उपरांत निष्कासित कर दिया। इस दौरान भी विभिन्न प्रवचन-शृंखलाएं चलती रहीं।

जुलाई 1986 की 29 तारीख को वे मुंबई आए। जनवरी 1987 में पुनः पूना आश्रम पधारे। वर्ष 1989 के आरंभ में उन्होंने अपने नाम से ‘भगवान’ संबोधन हटा दिया और केवल ‘श्री रजनीश’ कहलाने लगे। बाद में उन्होंने ‘रजनीश’ शब्द भी छोड़कर ‘ओशो’ नाम से पुकारा जाना पसंद किया। दिनांक 10 अप्रैल 1989 को उन्होंने अंतिम प्रवचन दिया, तदुपरांत प्रति संध्या मौन सत्संग के माध्यम से अपनी आंतरिक संपदा लुटाते रहे।

जनवरी 1990 की 19 तारीख को ओशो ने अपने शिष्यों के नाम यह संदेश छोड़ते हुए पृथ्वी से प्रयाण कौन सा स्वप्न सौंपकर वे विदा हुए? क्या है उनका स्वप्न? कुछ शिष्यों ने उनके नाम पर विशाल आश्रम, भवन और बगीचे निर्मितकरना शुरु कर दिए। कुछ भक्तों ने उनके शब्दों के प्रकाशन एवं ध्यान विधियों के प्रचार-प्रसार को ही अपने कर्तव्य की इतिश्री मान ली। कुछ मित्रों ने आत्म-विकास करते हुए बुद्धत्व पाना अपना गंतव्य समझा, तो कुछ अन्य मित्र बुद्धत्व प्राप्ति के बाद उस परमज्ञान की संपदा को बांटने में संलग्न हो गए।

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ओशो का मुख्य अनुदान सिर्फ वैचारिक क्रांति या ध्यान विधियों का सृजन नहीं, जैसा कि बहुधा समझा जाता है; और न ही जगत को यौन-कुंठा से मुक्त करना है, जिस विषय पर अक्सर उन्हें विवादित किया जाता है। कृष्ण, बुद्ध, पतंजलि, दादू, कबीर, नानक और उपनिषद के ऋषियों की तरह ओशो का केन्द्रीय तथा प्रमुख योगदान तो ओंकार, समाधि, व परमात्मा के अनुभवगम्य दिव्य रूपों जैसे- नाद, नूर, अमृत, ऊर्जा, आदि से लेकर अद्वैत, कैवल्य एवं निर्वाण आदि का वैज्ञानिक ढंग से उद्घाटन है, जिसे ओशोधारा विभिन्न समाधि शिविरों के माध्यम से शृंखलाबद्ध तरीके से प्रस्तुत कर रही है- यही तो है परमगुरु ओशो का मूल संदेश |

यही तो है सभी बुद्धों, जिनों, और संतों के सपनों का सार-निचोड़!

ओशो के नजरिये में ‘पूर्ण मनुष्य’को अखंड होना चाहिए- पूरब के अध्यात्म और पश्चिम के विज्ञान का संश्लेषण, संसारी और संन्यासी एक संग, भौतिकवादी एवं आत्मवादी दृष्टियों का समन्वय, धनी तथा ध्यानी, बाहर से सुख-सुविधा में और भीतर से शांति-समाधि में जीने वाला, प्रेमपूर्ण, कलात्मक, सृजनशील, बहुआयामी मनुष्य होना चाहिए।

प्रतीकात्मक रूप से इसी को उन्होंने ‘झोरबा दि बुद्धा’कहा है। संक्षेप में यही है उनका संदेश।महापरिनिर्वाण के ढाई दशक बाद, आज भी ओशो उतने ही विवादास्पद हैं, जितने कि अपने जीवनकाल में रहे। स्पष्ट है कि ओशो की क्रांति-अग्नि आज भी प्रज्वलित है और शायद तब तक जलती रहेगी, जब तक इस जमीन पर एक भी मनुष्य जीवित रहेगा! क्षणभंगुर दीए की संक्षिप्त कथा तो समाप्त हुई… किंतु शाश्वत् ज्योति की आभा तो फैली है, फैलती रहेगी, और मुमुक्षुओं के जीवन-पथ को आलोकित करती ही रहेगी!

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