भारतवर्ष की संस्कृति एवं विरासत की नींव के मुख्य आधार यहाँ के अलग-अलग धर्म एवं जातियां हैं। जिस प्रकार से भारत में आपको सभी धर्म आपस में घुले-मिले मिलेंगे वैसा संसार में कहीं नहीं है।
भारत के प्रमुख एवं प्राचीन धर्मों में सबसे ऊपर आने वाला धर्म है जैन धर्म (Jainism)। जैन धर्म की शिक्षाएं एवं अहिंसा का सिद्धांत इसे सभी धर्मों में सर्वोपरि बनाता है।
जैन धर्म के प्रवर्तकों द्वारा तर्क के आधार पर एक विचारधारा को विकसित किया जो यह मानता है कि किसी दिए गए मामले में भविष्यवाणी के सात तरीके हो सकते हैं।
यह विचारधारा भविष्यवाणियों में अनिश्चितता के तत्व का परिचय देती है और इसलिए इससे संभाव्यता की अवधारणा का परिचय मिलता है। इसे स्यादवाद या ‘हो सकता है’ का सिद्धांत भी कहा जाता है।
यदि हम जैन और वेदांत दर्शन पर विचार करें, तो हम पाएंगे कि दोनों अपने-अपने तरीके से सही हैं और दोनों विचारधाराएं एक दूसरे का खंडन नहीं करती हैं।
जैन दर्शन सृष्टि की प्रक्रिया की गहराई में नहीं जाता जैसा कि वेदांतवाद में होता है। इसलिए जैन दर्शन वेदांतवाद से अलग है क्योंकि वेदांतवाद मोक्ष प्राप्ति के लिए पहले ईश्वर के निकट होने के निष्कर्ष पर पहुंचता है।
दूसरी ओर, जैन धर्म आम मनुष्यों के लिए ब्रह्मांड की जटिलता को आसानी से समझ में आने की विचारधारा के साथ आता है और स्यादवाद के विचार प्रस्तुत करता है।
यह धर्म मनुष्य के मोक्ष प्राप्ति की एक अद्भुत अवधारणा है, जो किसी भी चीज़ के सही मूल्यांकन के लिए आवश्यक है।
जैन धर्म लगभग हर चीज में जीवन को परिभाषित करता है, इसलिए यह धर्म पूरी तरह से अहिंसा के पालन का उपदेश देता है।
संक्षेप में जैन अनुयायी एक तीर्थंकर को अपने मोक्ष मार्ग में आगे बढ़ने के लिए सर्वोच्च आदर्श मानते हैं। तीर्थंकर जिनके पास अनंत ज्ञान, अनंत आनंद एवं अनंत शक्ति है।
यह आनंदमय अवस्था वेदांतिक ‘चित्तानंद’ के समान है। जैन धर्म अरिहंत एवं सिद्ध के बीच के अंतर को स्पष्ट करता है, जो वेदांतिक जीवन मुक्त तथा विदेह मुक्ति (शरीर से मुक्त) होने के अनुरूप हैं।
जैन तीर्थंकर वे सिद्ध पुरुष होते हैं, जो अपने जीवन काल में सत्य की गहरी खोज करते हैं तथा उसे अपनी दैनिक दिनचर्या में भीतर तक उतार लेते हैं, जो कि एक उच्च श्रेणी की ज्ञान की अवस्था है।
अरिहंत एवं सिद्ध तीर्थंकर वे है, जो सरल शब्दों में ज्ञान एवं मुक्ति मार्ग को दिखाने का काम करते हैं।
जैन धर्म मानव आत्मा के लिए ब्रह्मांड में अस्तित्व को नियंत्रित करने वाले नियमों के साथ अन्य जीवित प्राणियों के साथ अनंत काल में अपनी भविष्य की स्थिति के संबंध में एक गंभीर चिंतन के साथ शुरू होता है।
अहिंसा एक व्यक्ति के जीवन के सभी भागों मानसिक, मौखिक एवं शारीरिक रूप से प्रभावित करती है तथा सही मायने में मुक्ति का मार्ग दिखाती है।
अहिंसा के इसी विचार के कारण इस धर्म में जीवन के सभी रूपों के लिए गहरी करुणा की भावना समाहित है।
जैन धर्म एक शांत, अत्यधिक गंभीर जीवन शैली, करुणा पर एक सांस्कृतिक आग्रह, नैतिकता का एक समाज बनाता है। जिसने नाटकीय रूप से दुनिया को बदल दिया है और परिवर्तन को प्रभावित करना जारी रखा हुआ है।
यह जीवन का एक पारिस्थितिक रूप से समझने एवं व्यतीत करने का जिम्मेदार तरीका है, जो विचार, क्रिया एवं कर्म में अहिंसक है।
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Origin of Jainism | जैन धर्म की उत्पत्ति
भारत भूमि को जैन धर्म का जन्म स्थान या उत्पत्ति स्थान कहा जाता है। संसार के प्राचीनतम धर्मो में से एक है जैन धर्म। जैन धर्म का इतिहास आज से 3000 साल ईसा पूर्व की इंडो-आर्यन संस्कृति से भी पहले का है।
इस मायने में जैन धर्म अन्य धर्मों से अद्वितीय है, क्योंकि 5000 से अधिक वर्षों के अपने अस्तित्व के दौरान, इसने कभी भी अपने मूल सिद्धांत या व्यवहार में अहिंसा की अवधारणा से समझौता नहीं किया है।
जैन धर्म में अहिंसा को सर्वोच्च धर्म (अहिंसा परमो धर्मः) के रूप में माना जाता है, तथा यह धर्म व्यक्ति के साथ-साथ सामाजिक स्तर पर भी विचार, शब्द एवं कर्म में इसके पालन पर जोर देता है।
इस धर्म के उपदेशक तीर्थंकर के नाम से जाने जाते हैं, जो जैन धर्म की शिक्षाओं को अपने शिष्यों तथा अनुचरों तक पहुँचाने का काम करते हैं।
भगवान वर्धमान महावीर स्वामी को इस धर्म के 24 वे तीर्थंकर के रूप में सबसे अधिक मान्यता प्राप्त हुई। उन्होंने “सही” ज्ञान, विश्वास एवं इच्छाओं पर नियंत्रण के अभ्यास से जुड़ी जैन धर्म की शिक्षाओं का अंतिम शिक्षक माना जाता है।
भगवान महावीर स्वामी का उद्भव इस धर्म के उदय से काफी बाद का है, किन्तु यही इस धर्म के सबसे प्रख्यात एवं पूजनीय धर्म प्रवर्तक के रूप में प्रसिद्ध हुए।
जैन धर्म ग्रंथों में महावीर के जीवन का पौराणिक वर्णन उनकी जीवनी की व्याख्या के रूप में काम करता है तथा उनके द्वारा गठित प्रारंभिक समुदाय की प्रकृति के बारे में कुछ निष्कर्ष निकालने की अनुमति देता है।
जैन धर्म की पुस्तक जिनवाणी अलग-अलग संतो एवं तीर्थंकरों की शिक्षाओं का एक संग्रह है जो इसके अनुयायियों को इन शिक्षाओं के पालन का तरीका बताती है।
ऋषभनाथ या ऋषभदेव को पहला तीर्थंकर माना जाता है। 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ का जन्म वाराणसी में हुआ था, वह आठवीं या सातवीं शताब्दी ईसा पूर्व में जन्मे थे। सबसे खास बात यह है, कि सभी तीर्थंकर जन्म से क्षत्रिय थे।
दुःख से मुक्ति पाना, यही भारतीय दर्शनशास्त्र (Indian philosophy) का मुख्य प्रयोजन है, और इसी प्रयोजन की सिद्धि के लिए विविध दार्शनिक विचारधाराओं की उत्पत्ति हुई है।
यद्यपि दुःख सब दर्शनों की उत्पत्ति का सामान्य कारण है, किन्तु दुःख क्या है, उसका क्या रूप है, उसके कितने भेद हैं, उससे छुटकारा पाने की क्या विधि है?
जैन धर्म की शिक्षाओं में स्वयं और इन्द्रियों पर संयम और नियंत्रण पर विशेष जोर दिया गया है, जिसका प्रतिबिम्भ भारतीय योग में भी मिलता है, जो परस्पर सम्बंधित भी है।
योग को वर्तमान समय में केवल एक व्यायाम अथवा आसान पढती के रूप में देखा जाता है, किन्तु यह सम्पूर्ण जीवन शैली है जिसकी झलक जैन मुनियो में देखने को मिलती है।
योग को विस्तार से समझने के लिए योग (Yoga ) पर जाये और पढ़ें।
Reasons behind the rise of Jainism | जैन धर्म के उदय के कारण
जब भी किसी समाज में जातीय भेदभाव या अन्य कुरीतियों ने बढ़ोतरी होती है, तब हमेशा एक नए धर्म का उदय होता है।
इस प्रकार छठी शताब्दी ईसा पूर्व में फारस में जोरोस्टर, चीन में कन्फ्यूशियस एवं भारत में महावीर तथा गौतम बुद्ध जैसे विचारकों का उदय हुआ।
इनकी शिक्षाओं एवं सामाजिक बुराइयों को दूर कर जनकल्याण की भावना ने उस समय के निर्धन एवं असहाय लोगों का जीवन सुलभ किया।
Religious ritual | धार्मिक कर्मकांड
जिस समयकाल में जैन धर्म का उदय हुआ उस दौरान की सामाजिक व्यवस्था में अनगिनत कुरीतियां शामिल थी। जिनमे सबसे बड़ी धार्मिक कर्मकांडों की अधिकता सर्वोपरि थी।
धार्मिक अनुष्ठान एवं कर्मकांड उस समय के सामाजिक जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन गए थे। कोई भी धार्मिक समारोह जैसे विवाह, जन्म, मुंडन, मृत्यु जैसे संस्कार बहुत महंगे हो गए।
सभी तत्कालीन धर्मो के पुरोहित एवं पुजारी कोई भी धार्मिक संस्कार साधारण विधि से संपन्न नहीं करते थे। जिसकी वजह से आम जनता पर आर्थिक बोझ बढ़ गया था।
गरीब एवं आम आदमी के लिए इस बोझ को वहन करना आसान नहीं हो पा रहा था जिसकी वजह से लोगों के भीतर इस व्यवस्था के प्रति रोष उत्पन्न होने लगा।
इसी कारन जब जैन धर्म के प्रवर्तकों या तीर्थंकरों द्वारा साधारण एवं कर्मकांड रहित शिक्षाओं का उपदेश लोगों तक पहुँचाया तो आम जनता इस धर्म की और खींचने लगी।
जल्द ही इस धर्म का विस्तार तीव्रता से होने लगा एवं बहुत जलती सभी निर्धन एवं असहाय लोग जैन धर्म के अनुयायी बनने लगे।
Religious Persecution | धार्मिक अत्याचार
उस समय में धार्मिक पुरोहित वर्ग ने आम लोगों को धर्म का सहारा लेकर यज्ञों एवं घरेलू अनुष्ठानों को सम्पन्न करने के लिए मजबूर किया। सबसे पहले क्षत्रियों ने समाज पर पुरोहित वर्ग के वर्चस्व का भी विरोध किया।
इस कारण से धार्मिक स्थलों के पास बहुत संपत्ति एवं धन जमा होने लगी जिसका दुरुपयोग पुरोहितों द्वारा किया जाने लगा। यही बात लोगों में असंतोष का कारण बनी।
Caste System | कठोर जाति व्यवस्था
महावीर स्वामी के समय काल में समाज चार जातियों में बँटा हुआ था। जहा ब्राह्मण एवं क्षत्रिय लोग समाज में शीर्ष स्थान पर थे, वहीँ शूद्रों को बहिष्कृत माना जाता था। जाति व्यवस्था के कारण सभी वर्गों के बीच समानता नहीं थी।
बहुत से लोग इस कट्टर जाति व्यवस्था को आम जनता के लिए दमनकारी मानते थे। इसी कारण लोग जैन धर्म की ओर आकर्षित हुए, क्योंकि यह धर्म जाति व्यवस्था को पूरी तरह से नकारता था।
जैन धर्म में सभी लोगों को समान समझा जाता था एवं छुआछूत जैसी कुरुति का विरोध करते हुए सभी के लिए तीर्थंकरों की शिक्षा सरलता से उपलब्ध थी।
Sanskrit Language | संस्कृत भाषा को समझने में कठिनाई होना
तत्कालीन धार्मिक ग्रन्थ संस्कृत भाषा में उपलब्ध होने की वजह से आम जनमानस के लिए उनको स्वयं से पढ़ना एवं समझना आसान नहीं था।
जिसकी वजह से लोगों की निर्भरता पंडित एवं धार्मिक गुरुओं पर बढ़ने लगी। यह बात भी लोगों के जैन धर्म की साधारण भाषा में मिलने वाली शिक्षाओं के प्रति आकर्षण का कारण बना।
Political Patronage | राजनीतिक संरक्षण होना
जैन धर्म के सभी तीर्थंकर क्षत्रिय थे। इसी कारण इस धर्म को राजनीतिक संरक्षण प्राप्त हुआ। जो इस धर्म के प्रचार एवं विस्तार में सहायक सिद्ध हुआ।
राजकीय सुरक्षा एवं सानिध्य में जैन मुनियों एवं श्रावकों द्वारा लोगों तक इसकी शिक्षाओं का आसानी से प्रचार एवं प्रसार संभव हो सका।
Agriculture Based Economy | कृषि आधारित अर्थव्यवस्था
भारत की अर्थव्यवस्था हमेशा से कृषि प्रधान रही है, उस दौरान भी भारत में कृषि आधारित अर्थ व्यवस्था भी इसे आगे बढ़ाने में सहायक सिद्ध हुई।
जैन धर्म बलि प्रथा के बिलकुल विरूद्ध था, क्योंकि इसका मूल सिद्धांत ही अहिंसा था। यही वजह थी कि बहुत सारे कृषकों ने इसे अपनाया।
जानवर पालना विशेष रूप से गाय, बैल किसानो को खेती के लिए सबसे ज़रूरी था। इसलिए जब जैन धर्म में किसी भी जीव की बलि को निषेध किया गया तो उन्होंने इस धर्म का स्वागत किया।
उपरोक्त कारण विशेष रूप से इसके फैलाव का जरिया बना। लोगों ने आगे बढ़कर धर्म की शिक्षाओं को सुना एवं आत्मसात किया।
Principles of Jainism | जैन धर्म के सिद्धांत
किसी भी धर्म के सिद्धांत उसकी आत्मा होते हैं। इन सिद्धांतों के आधार पर ही किसी भी धर्म की नींव कितनी गहरी है यह हम जान पाते हैं।
जिसने सरल और आम लोगों की समझ एवं आत्मीयता से जुड़े सिद्धांत लेकर कोई धर्म उत्पन्न होता है, उतना ही लम्बे समय तक उसमे लोगों की आस्था बनी रहती है।
इस प्रकार जैन धर्म का उदय भी अपने तीन मूल सिद्धान्त के साथ हुआ – सही विश्वास, सही ज्ञान एवं सही आचरण। इन तीनों मूल सिद्धांतों का अनुसरण करना सभी अनुयायियों के लिए जैन धर्म में आवश्यक है।
इसके सिद्धांतों के दृष्टिकोण में हम जैन धर्म के पाँच मूलभूत सिद्धांतों को निर्धारित करते हैं। यही नियम सभी के लिए अनिवार्य हैं।
जिसका वास्तव में अर्थ है, कि इस मानव जीवन को इस तरह से जीने के लिए कदम-दर-कदम हम खुद को संयमित करें ताकि हम शांति एवं आनंद की स्थिति का अनुभव कर सकें।
अहिंसा परमो धर्म :
जैन धर्म के अनुसार मानव जीवन जीने का पहला मौलिक तरीका अहिंसा है, जैसा कि भगवान महावीर ने कहा, “अहिंसा परमो धर्म”।
जैन धर्म के प्रथम सिद्धांत के अनुसार अहिंसा का सर्व-समावेशी अनुसरण आपके दैनिक जीवन में सभी के प्रति सहिषुणता की भावना बढ़ाता है।
अहिंसा परमो धर्म के सिद्धांत का अनुपालन आपको किसी को चोट पहुंचाने, हत्या करने आदि से रोकता है। जैन धर्म में सभी जीवो का जीवन अमूल्य है, चाहे वह एक इंसान हो या चींटी सभी को जीने का समान अधिकार है।
इस सिद्धांत के मूल में किसी को विचारात्मक कष्ट पहुँचाना भी हिंसा का ही एक रूप है। इसलिए इस नियम का पालन आपको अपने विचारों में हिसात्मक होने से भी रोकता है।
अहिंसा का तीसरा मूल रूपं किसी के प्रति घृणित विचार न रखना भी होता है। यदि आप किसी को घृणा की भावना से देख भी लेते हैं, तो आप उसके प्रति हिंसात्मक व्यवहार कर लेते हो।
अतः जैन धर्म का सर्वप्रथम सिद्धांत आपको उपरोक्त तीन प्रकार से किसी के भी प्रति हिंसात्मक व्यवहार करने से रोकता है।
Being Honest | सत्य पालन
जैन धर्म के दुसरे मूल सिद्धांत सत्यता का पालन से जुड़े पहलू की सबसे गलत व्याख्या होती आ रही है। हम युवा पीढ़ी को जैन धर्म के मूल सिद्धांत के रूप में सच बोलने के नियम पालन के लिए कहते रहते हैं।
लेकिन, सच बोलना एक ऐसी शिक्षा है, जिसे हम सभी अपनी नैतिक कक्षा 2 या 3 में सीखते हैं। भगवान महावीर उस श्रेणी की किसी चीज को 5 मूल सिधान्तो में से एक के रूप में सूचीबद्ध नहीं कर सकते।
इस सिद्धांत का मलतब कुछ और होना चाहिए। इस मूलभूत सिद्धांत को “सही चुनें” के रूप में माना जाना बिलकुल ठीक होगा।
हमें इस मानव मन को इस प्रकार अनुशासित करना है कि जीवन में जो भी स्थिति आए हमें सही क्रिया एवं सही प्रतिक्रिया का चयन करना चाहिए। तभी आप जैन धर्म के दुसरे महा सिद्धांत सत्य पालन का अनुसरण कर पाएंगे।
Don’t Steal | चोरी न करना
इस सिद्धांत के अनुसार आपके द्वारा किसी की चीज़ों को चुराने से ही तात्पर्य नहीं है,बल्कि आध्यात्मिक रूप से इसका मतलब शरीर-मन-बुद्धि को अपना नहीं मानना है।
चोरी न करना, विचार करना या दूसरों की चीजों या संपत्ति को छीनना नहीं। लेकिन जब गहरे पहलू की बात आती है, आध्यात्मिक रूप से, इसका मतलब शरीर-मन-बुद्धि को अपना नहीं मानना है।
आत्मा शुद्ध चेतना है तथा शरीर-मन-बुद्धि मानव जीवन के ऐसे उपकरण हैं ,जो हमें सच्चे स्व को जानने में सक्षम बनाते हैं। उदाहरण के लिए, घड़े में पानी, हम जानते हैं कि इस घड़े में पानी हो सकता है लेकिन घड़ा पानी नहीं है।
घड़ा यहाँ सिर्फ पानी रखने के लिए है, और यह पानी है जो प्यास बुझाता है, घड़े को नहीं। इसी प्रकार तन-मन-बुद्धि में शुद्ध आत्मा निहित है।
लेकिन ‘मैं’ नहीं है। हमारे अज्ञान की स्थिति में हम लगातार ‘मैं’ और ‘मेरा’ के रूप में शरीर-मन-बुद्धि का दावा करते हैं, यानी ‘चौर्य’ (चोरी) की उच्चतम स्थिति।
ऐसी झूठी धारणाओं से लौटकर और स्वयं को केवल ‘मैं’ और ‘मेरा’ मानकर, हम आचार्य के मूल सिद्धांत का पालन करते हैं।
Celibacy | ब्रह्मचर्य
जब कोई भी जैन धर्म का अनुयायी अपने जीवन में जैन धर्म के पहले तीन मूल सिद्धांतों का अनुसरण कर लेता है तब यह अवस्था उसके जीवन का हिस्सा बनती है।
अहिंसा, सत्यता तथा आचर्या या चोरी न करने के 3 सिद्धांतों के साथ जीवन जीने पर आप अपने भीतर अपनी इच्छाओं को नियंत्रण में करना सीख जाते है।
यही अवस्था आपको ब्रह्मचर्य के मूल सिद्धांत की अवस्था तक ले जाती है, जो जैन धर्म के पांच मूल सिद्धांतों में से चौथा सिद्धांत है।
जब कोई व्यक्ति सही और गलत के अंतर को समझ जाता है,तथा उसी के आधार पर जीवन के निर्णय लेने लगता है, तो यह इस बात का प्रमाण है, कि उसका शाश्वत प्राण जागृत हो गया है।
वास्तविक शब्द ‘ब्रह्मचर्य’ है जिसका शाब्दिक अर्थ है ब्रह्म (आत्मा) में रहना। । जब हम जान जाते हैं, कि तन-मन-बुद्धि ‘मैं’ नहीं है, तो हम स्वाभाविक रूप से देखते हैं कि ‘मैं’ क्या है?
स्वयं के प्रति चेतना के इस प्रारंभिक बदलाव को ब्रह्मचर्य के रूप में जाना जाता है। व्यक्ति स्वाभाविक रूप से दूसरे के साथ शारीरिक भोग से खुद को दूर कर सकता है।
जब कोई अपने ही शरीर से कष्ट का अनुभव करता है तो दूसरों के स्पर्श-शरीर-इन्द्रिय से सुख प्राप्त करने की लालसा आसानी से छूट जाती है।
Renunciation | अपरिग्रह
जब किसी का अंतर्ज्ञान जागृत हो जाता है तो वह व्यक्ति शरीर-मन-बुद्धि के अनुभवात्मक ज्ञान के साथ जीवन जीता है, क्योंकि वह अपरिग्रह की स्थिति में पहुँच जाता है।
जिससे किसी भी प्रकार की संपत्ति के लिए अनासक्ति उत्पन्न कर देता है। यहाँ सम्पति का मतलब आर्थिक संपत्ति ही नहीं किसी भी दुनियाबी वास्तु के प्रति मोह से है।
इस अनासक्ति को जीवन के सभी स्तरों पर स्पष्ट रूप से महसूस किया जा सकता है, व्यक्ति स्वयं में महसूस कर सकता है कि वह भगवान महावीर द्वारा दिखाए गए मार्ग को जी रहा है।
इस प्रकार जैन धर्म के पांच मूलाधार वास्तव में जीने का एक ऐसा तरीका है, जो इस मानव जीवन के माध्यम से मुक्ति का कारण बन सकता है।
यदि कोई इन सिद्धांतों के अनुसार जीवन जीता है, तो वे आत्म-जांच का मार्ग अपना रहे हैं जो अंततः आत्म-साक्षात्कार की ओर ले जाता है।
धर्म, दर्शन और विज्ञान (Dharma, Darshan and Vigyan ) परस्पर सम्बद्ध तो हैं ही। अपितु किसी न किसी रूप में एक दूसरे के पूरक भी हैं। यह कहना भी ठीक है, कि इन द्रष्टियो के मार्ग भिन्न-भिन्न हैं।
तीनों अपनी-अपनी स्वतंत्र पद्मति के आधार पर सत्य की खोज करते हैं। तीनों अपने-अपने स्वतंत्र द्रष्टि बिन्दु के अनुसार तत्त्व की शोध करते हैं। इतना होते हुए भी तीनों का लक्ष्य एकान्त रूप से भिन्न नहीं है।
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